- पेट्रोलियम मूल्यवृद्धि पर दोहरा मापदंड, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों बच रहे टैक्स कटौती से
आनंद अग्निहोत्री
पेट्रोल और डीजल के दाम 16 दिन में 14वीं बार बढ़े हैं। रसोई गैस सिलेंडर पहले ही एकदम 50 रुपये महंगा कर दिया गया था। सीएनजी के दाम भी बढ़ाये जा चुके हैं। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से अगर फर्क पड़ता है तो सिर्फ आम आदमी पर। ट्रांसपोर्टर्स पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इधर पेट्रोल-डीजल महंगा हुआ, उधर उन्होंने मालभाड़ा बढ़ाया। व्यापारी भी खास प्रभावित नहीं होते। मालभाड़ा बढ़ते ही वे सामग्री महंगी कर देते हैं। अधिकारियों पर कोई असर नहीं होता क्योंकि उनके दौरों पर लगने वाले पेट्रोल-डीजल का भुगतान सरकारी महकमे से होता है। सबसे ज्यादा परेशान होता है सिर्फ आम आदमी क्योंकि न केवल उसका दैनिक यातायात निजी होता है बल्कि रोजमर्रा की जो सामग्री वह बाजार से खरीदता है, वह भी उसे महंगी मिलती है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या पेट्रोल-डीजल की कीमतें किसी भी तरह नियंत्रण में नहीं आ सकतीं।
केन्द्र में संप्रग शासन के दौरान तेल विपणन कम्पनियों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मूल्यों के आधार पर दाम तय करने का अधिकार दिया गया था। इसके पहले केन्द्र सरकार का इनके मूल्य पर नियंत्रण रहता था और तेल कम्पनियों को जो घाटा होता था, सरकार सब्सिडी के रूप में इसकी भरपाई करती थी। अपना आर्थिक बोझ घटाने के मकसद से सरकार ने इन कम्पनियों को अपने नियंत्रण से मुक्त किया था। तो क्या यह मान लें कि वास्तव में तेल कम्पनियों पर अब सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। अगर हकीकत में ऐसा है तो पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव के पीरियड में क्या तेल के मूल्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थिर रहे। चुनाव काल में क्यों नहीं तेल विपणन कम्पनियों ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाये। और चुनाव समाप्त होते ही 16 दिन के अंदर 14 बार 80-80 पैसे दाम बढ़ाकर पेट्रोल-डीजल का मूल्य शतक के पार कर दिया। क्या तेल कम्पनियां चुनाव काल में हुए घाटे की इस तरह पूर्ति करना चाहती हैं। सरकार भी अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के पुराने लॉजिक की दुहाई देकर मौन है। क्या उसे आम आदमी की दिक्कतों का एहसास नहीं हो रहा है।
चलिए एक बार को मान लिया कि तेल कम्पनियां अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से काम कर रही हैं। लेकिन पेट्रोल-डीजल की असली मूल्यवृद्धि तो केन्द्र और राज्य सरकारों के टैक्स के कारण होती है। केन्द्र सरकार अपना जीएसटी लगाती है और राज्य सरकार अलग। इसी तरह इस पर एक्साइज टैक्स लगते हैं। सरकारें जितना टैक्स पेट्रोल-डीजल से वसूलती हैं, उसका कोई ओर-छोर नहीं है। यहां यह ध्यान देना होगा कि केन्द्र का टैक्स स्थिर है लेकिन राज्य सरकारों ने अपने-अपने हिसाब से टैक्स लगा रखे हैं। यही कारण है कि किसी राज्य में पेट्रोल-डीजल के दाम कुछ हैं तो किसी में कुछ। राज्यों में चाहे भाजपा की सरकार हो या कांग्रेस की या अन्य किसी दल की, सब टैक्सों का जबर्दस्त दोहन कर रही हैं। संसद में विपक्षी दल कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस आदि महंगाई पर चर्चा की मांग करते हैं लेकिन वे इस ओर नहीं देखते कि जिन राज्यों में उनकी सरकारें हैं, वहां भी टैक्स वसूली में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। फिर किस मुंह से वे महंगाई पर चर्चा का सवाल उठाते हैं।
इन दिनों तर्क दिया जा रहा है कि रूस और यूक्रेन में युद्ध के चलते अंतर्राष्ट्रीय बाजार से महंगा तेल मिल रहा है। वहीं दूसरी ओर यह भी दावा किया जा रहा है कि भारत रूस से रियायती दाम पर तेल खरीद रहा है। ऐसा है तो रियायती दाम वाला तेल भी क्यों अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से बेचा जा रहा है। सच तो यह है कि किसी भी पार्टी की सरकार हो, सब अपना खजाना भरने में लगी हुई हैं। कारण यह कि पेट्रोल-डीजल आम आदमी की अनिवार्य दैनिक जरूरत है। महंगा हो या सस्ता, हर व्यक्ति को इसे खरीदना ही होगा। ऐसे में केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, सभी अपना फायदा ही देख रही हैं। आम आदमी को कितनी दुश्वारियों से जूझना पड़ रहा है, इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। कोरोना महामारी के कारण आम आदमी टूट चुका है। वहीं केंद्र और राज्य सरकारों ने पेट्रोल-डीजल पर टैक्स लगाकर खूब कमाई की है। बीते तीन साल में जहां एक ओर प्रति व्यक्ति सालाना आय 1.26 लाख रुपए से घटकर 99,155 रुपए सालाना पर आ गई है, वहीं सरकार की एक्साइज ड्यूटी से कमाई 2,10,282 करोड़ रुपए से बढ़कर 3,71,908 करोड़ पर पहुंच गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो बीते तीन साल में पेट्रोल-डीजल पर टैक्स (एक्साइज ड्यूटी) लगाकर सरकार ने आठ लाख करोड़ से ज्यादा की कमाई की है। हालात यही रहे तो किसी भी तरह महंगाई काबू में नहीं आ सकती, भले ही सरकार और आर्थिक विशेषज्ञ कुछ भी दावे करते रहें।