Friday, November 22, 2024
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हिन्दी सिनेमा की कालजयी कृति… मंटो

लेखक : दिलीप कुमार

सआदत हसन मंटो एक ऐसा नाम जो समाज के एक – एक रेशे को खोल कर देते थे. जिसने बिना किसी उम्मीद के अपने कहानियों का सृजन किया था.  यथार्थ को आतिश शब्दों का आकार देकर अपनी कहानियां कहीं…. मंटो खुद के लेखन के बारे में कहते थे – “मैं बाथरूम में बैठकर कहानियां सोचकर लिखने वाला लेखक नहीं हूं, जो देखा, जो समझा, वो काग़ज़ों पर उतार दिया. मैं यथार्थवादी लेखक हूं. मंटो के बारे में एक शब्द कहूँ वो जियाले अंदाज़ के मालिक थे. मंटो को थे कहना इसलिए पड़ रहा है, और यह धृष्टता मैं इसलिए भी कर रहा हूं क्योंकि मंटो शारीरिक रूप से इस दुनिया में नहीं है, लेकिन वो वैचारिक रूप से इस दुनिया में आज भी हैं.  आज बात करने वाला हूं फ़िल्मकार ‘नंदिता दास’ की फिल्म मंटो की जिन्होंने एक कठिन विषय पर फिल्म बनाने का सोचा था. आज के व्यपारिक दौर में मंटो पर फिल्म बनाना बहुत रिस्क का काम है. क्योंकि दर्शकों को मनोरंजन चाहिए, अब एक लेखक के जीवन पर फिल्म भला कौन देखेगा? जो अधिकांश साहित्य की दुनिया में ही जाना जाता हो!! मंटो फिल्म देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है, कि ‘नंदिता दास’ ने मंटो को कितना खूब पढ़ा है, एवं कितना समझा है. यह मंटो की, लेखनी, करिश्माई शख्सियत का प्रभाव ही था, कि उन्होंने मंटो की जिन्दगी को सिल्वर स्क्रीन पर उतार दिया. यूँ तो जितने लोग साहित्य प्रेमी हैं, जिन्होंने मंटो को पढ़ा है, जो मंटो को जानते हैं, उनके लिए फिल्म के अलग से कुछ नहीं है. जिन्होंने मंटो को नहीं पढ़ा, सिर्फ़ और सिर्फ़ नाम सुना है, उनके लिए मंटो एक कालजयी कला फिल्म साबित होगी… जिन दर्शकों को सिर्फ मनोरंजन चाहिए उन लोगों के लिए यह फिल्म नहीं है. मंटो को उर्दू, हिन्दी में तुलनात्मक नहीं कह रहा, फिर भी अगर ग़ालिब थे, अल्लामा इकबाल थे, तो मंटो थे. सआदत हसन मंटो की लेखनी का मयार बहुत ऊंचा है. ये भी मंटो ही कहते हैं “हज़ार हिंदुओं को मारकर मुसलमान समझते हैं, कि हिंदू धर्म ख़त्म हो गया, लेकिन ये अभी भी ज़िंदा है और आगे भी रहेगा.  उसी तरह हज़ार मुसलमानों को मारकर हिंदू इस बात का जश्न मनाते हैं, कि इस्लाम ख़त्म हो चुका. लेकिन सच्चाई आपके सामने है. सिर्फ मूर्ख ही ये सोच सकते हैं कि मजहब को बंदूक से मार गिराया जा सकता है.’अपनी कहानी की औरतों के बारे में खुद मंटो कहते हैं, ‘मेरे पड़ोस में अगर कोई महिला हर दिन अपने पति से मार खाती है, और फिर उसके जूते साफ करती है, उसके जूते की लेस बांधती है, तो मेरे दिल में उसके लिए जरा भी हमदर्दी नहीं होती. लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई महिला अपने पति से लड़कर और आत्महत्या की धमकी दे कर सिनेमा देखने चली जाती है पति को दो घंटे परेशानी में देखता हूं,  तो मुझे हमदर्दी होती है.’

नंदिता दास ने मंटो की पूरी जिन्दगी पर फिल्म नहीं बनाई, क्योंकि उनकी ज़िन्दगी को एक दो ढाई घण्टे में समेट पाना बहुत मुश्किल है. फिल्म ‘मंटो’ लेखक मंटो की जिंदगी के उन चार सालों के इर्द-गिर्द घूमती है, जब भारत को एक दंश झेलना पड़ा. जब देश का बंटवारा हुआ तो करोड़ों हिंदू-मुस्लमान को विस्थापित होना पड़ा. समाज में हिंसा फैली हुई थी. इस सब नरसंहार पर मंटो की सोच थी- “मत कहिए कि हज़ारों हिंदू मारे गए या फिर हज़ारों मुसलमान मारे गए. सिर्फ ये कहिए कि हज़ारों इंसान मारे गए, ये भी इतनी बड़ी त्रासदी नहीं है कि हज़ारों लोग मारे गए. सबसे बड़ी त्रासदी तो ये है कि हज़ारों लोग बेवजह मारे गए”.  मंटो की बेबाकी ही उनकी पहिचान थी.  उनकी आग उगलती कलम से निकलते अफ़साने जो हक़ीक़त को बयां करते हैं. उससे निकलते लावे और रूह को झकझोरते अफसाने ना हिंदुस्तान को पसंद आए और ना ही पाकिस्तान को जहां बटवारे के बाद मंटो ने अपनी ज़िंदगी गुजार दी. सिर्फ 42 साल की उम्र में दुनिया से फना हो जाने वाले इस अजूबे कहानीकार का नाम दुनिया के साहित्य में अलग मुकाम रखता है. फिल्म मंटो एक अलग स्तर की फिल्म है, यह फिल्म केवल साहित्य प्रस्तुति नहीं है, बल्कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी के रूप में सिर्फ उनकी शख्सियत को बयां करती है, कि उस दौर में मंटो कैसे रहे होंगे. जो लोग मंटो के बारे  जानते हैं उनके लिए मंटो की ज़िंदगी के ऊपर बनी ये फिल्म एक अलग ही प्रवाह में ले जाएगी, जिसका असर धीमा होगा. अंत में प्रभावी होगा. जो लोग साहित्य से ज्‍यादा जुड़े नहीं है, जिनको मंटो के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, उन्हें मंटो जैसी कला फिल्म  उनका नज़रिया है, क्या दर्शकों ने साहित्यिक दृष्टि से देखा? या एक कला फिल्म समझकर या बोरिंग कहकर खारिज कर दिया? सवाल है!! क्योंकि भारतीय सतही समझ के कारण ऐसी फ़िल्मों को सफलता कम ही मिली है.

एक अच्छा लेखक अपनी कलम में सच को कैद कर सकता है. एक सच्चा लेखक समाज को आइना दिखा सकता है। पर क्या बीतती है उस लेखक पर जो कहीं न कहीं अपनी ही कहानियों में दूर खड़ा अपने पात्रों को देखता रहता है. सादत हसन मंटो की ज़िंदगी खुद ही एक कहानी है. उसे 2 घंटे की फिल्म में ढालना बड़ा मुश्किल काम है पर जैसे इस फिल्म में किया गया है वैसे बॉलीवुड में कम ही देखने को मिलता है. अगर आपने मंटो को नहीं पढ़ा है तो कोई बात नहीं मंटो की अपनी कहानी के अलावा इस फिल्म की कहानी में मंटो की पांच कहानियां भी गुथी हुई हैं. आप जान जाएंगे कि जिस इंसान के बारे में आप फिल्म देख रहे हैं वो अपने समय से कहीं आगे का प्रोग्रेसिव लेखक था. फिल्म के टेक्निकल असस्पेक्ट भी अद्भत हैं. आर्ट डायरेक्शन, कॉस्ट्यूम और बैकग्राउंड म्यूजिक एक दम परफेक्ट है. नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने मांझी, मंटो, ठाकरे के रोल में खुद को सिल्वर स्क्रीन पर खुद को जीवंत कर लिया है. आलोचनात्मक रूप से नवाजुद्दीन की तारीफ के लिए कोई मुफीद शब्द नहीं मिल रहे. अदाकारी के लिहाज से वो हमेशा अव्वल दर्जे पर ही रहते हैं. उनको जानने वाले बताते हैं कि नवाज बहुत ही साधारण, लेकिन बहुत खास इंसान हैं. ख़ासकर मंटो रोल में कहीं से वो नवाज लगे ही नहीं, बेह्तरीन रूप से जिया है. शांत स्वभाव के नवाज ने जियाले लेखक मंटो का किरदार, जुबां की तल्खी, एक ऐसा अलहदा अंदाज़, तेज शख्सियत को सिल्वर स्क्रीन पर उतारा उनकी अदाकारी के पाश में बंध गया हूं. नवाज ने खुद कहा था – “व्यक्तिगत रूप से मैंने मंटो को नहीं पढ़ा लेकिन उनकी कहानियां पढ़ी हैं, वो आज भी प्रासंगिक हैं. नंदिता ने मुझे बुलाया और कहा कि तुम मेरे मंटो हो, हालांकि यह बहुत मुश्किल भूमिका है, क्योंकि मंटो बहुत ही महान लेखक हैं, मैं अपने अंदर मंटो ज़िन्दा करने की कोशिश में हूँ कि नवाज कुछ दिनों के लिए मेरे अन्दर से गायब हो जाए. मैं जो कर सकता हूं वो करूंगा, क्योंकि इसके बाद लोग मानेंगे कि मंटो ऐसे थे”. रसिका दुग्गल का भी अदाकारी उत्तम है. ताहिर का ये अब तक की सबसे यादगार भूमिका है.

“मेरे मुल्क की तरह मैं भी कट कर आज़ाद हुआ” एक ऐसा डायलॉग है जो मंटो का बखूबी वर्णन करता है. फिल्म की कहानी में साफिया मंटो (रसिका दुग्गल) जोर-जोर से कहानी पढ़ रही होती है, उसके चेहरे पर अपने पति के नाजुक पेशे के मुतालिक एक डर होता है. यह जानने के लिए कि समाज कैसे अपरिपक्व, असंवेदनशील, बेशर्म व्यवहार करता है. यह तो पुख्ता है, और काफी सच भी है. यहीं से मंटो की कहानी शुरू होती है – एक सफल लेखक जिसे उनके देश भारत में पूरी तरह से उनकी लेखनी को स्वीकार किया जाता है, श्याम एक मंटो का सबसे अच्छा दोस्त है, ताहिर राज भसीन द्वारा अभिनीत, एक प्यारा परिवार है. साफिया मंटो (रसिका दुग्गल) भारत ने अभी अँग्रेजी सत्ता से आजादी हासिल ही की थी, तब वह गर्भवती है.

एक लेखक के लिए चीजें जल्दी से बदल जाती हैं, क्योंकि मंटो हिन्दी सिनेमा सहित अपने दोस्तों को छोड़कर पाकिस्तान चले जाते हैं! अचानक मंटो देखते हैं, कि वास्तविक और दुखद स्थिति से भारत निकल चुका है. मंटो सफल होने के लिए वापस आते हैं या नहीं, यह फिल्म किस बारे में है. दोनों ही मामलों में, जीवन उन्हें लोगों के असली चेहरे दिखाता है. कुछ जो बदलते हैं. कुछ जो समय के साथ वैसे ही रहते हैं. मंटो एक ऐसा शख्स है जिसके पास कोई फिल्टर नहीं है, जिसे नंदिता दास ने कई बार पहनने के लिए सफेद कुर्ता देकर सूक्ष्मता से पेश किया है. भले ही दुनिया सूट पहन रही हो और दूसरों को दिखाने के लिए नकली मुस्कान का लिबास ओढ़ रखा है. दूसरी ओर मंटो लेखक एवं इंसान के रूप में बहुत ईमानदार है, अपने आस-पास के लोगों से भी ऐसा ही होने की उम्मीद करते हैं , लेकिन बदले में उन्हें कल्पना से परे चोट मिलती है. आम तौर पर मंटो जैसे लोग कहानियों में होते हैं असल में इतने सच्चे लोग इस दुनिया में मुश्किल से ही हुए हैं. मैं सच कहूँ तो मुझे मंटो की सरोकार की कलम से उनकी अनोखी शख्सियत से मुझे इश्क़ है… आजीवन इस तिलिस्म से बंधा रहना चाहता हूं…

मंटो की कलम बोलती थी. उनकी बात कहती थी. अगर मंटो को जानते नहीं हैं, तो फिल्म देख के जाना जा सकता है. अगर मंटो के बारे में जानते हैं, तो फिल्म देखकर मंटो को समझने में आसानी होती है. एक कला फिल्म है, थोड़ी स्लो होना भी स्वाभाविक है. क्योंकि फ़िल्म में रोमांच जैसा कुछ नहीं है. फिल्म को देखने से पहले मंटो की कुछ कहानियां पढ़ कर फिल्म देखा जाए तो फिल्म समझने में आसानी होगी. नंदिता दास की इस कालजयी कृति के लिए उनको सौ सलाम कि उन्होंने मंटो को सिल्वर स्क्रीन पर उतारा, तारीफ़ इसलिए भी बनती है, कि फ़िराक़, मंटो जैसी फ़िल्में बनाकर रिस्क लेना ही होता है, आखिकार एक फ़िल्मकार का भी व्यपारिक मूल्यों की कसौटी पर खरी उतरे…..

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