मनीष शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार
हम अपनी आजादी के 75वें वर्ष में कदम रखने जा रहे हैं। एक ऐसा वर्ष जिसमें अब तक हासिल उपलब्धियों पर जश्न मनाया जान था। विकास की नई यात्रा की तैयारी करनी थी और सबसे बड़ी दुनियाँ के सबसे बड़े और मजबूत लोकतन्त्र का गौरव गान करना था लेकिन स्वतन्त्रता दिवस के ठीक पहले सांसदों ने लोकतन्त्र के मंदिर में जो हरकत की, उससे संसद के साथ पूरा देश शर्मसार है। यूं तो संसद का पूरा मानसून सत्र ही सत्ता पक्ष और विपक्ष के अड़ियल रवैये के चलते बर्बाद हो गया। लेकिन 11 अगस्त को राज्यसभा में हुए हंगामे और हाथापाई की तस्वीर देखकर पूरा देश हैरान है।
शायद किसी भी देशवासी को ये आशा नहीं थी आजादी की सालगिरह से ठीक पहले देश के नीति नियंता माने जाने वाले सांसद महोदय इस तरह का अराजक व्यवहार करेंगे। देश के उपराष्ट्रपति एम वेंकेया नायडू इसके पहले कांग्रेस सांसद प्रताप बाजवा की हरकत को देखकर खासे आहत हो गए थे। उन्होने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक सांसद मेज पर चढ़कर हँगामा करेगा और रूल बुक फाड़ दी जाएगी। नायडू द्रवित होकर रो पड़े। फिरभी सांसदों के माथे पर शिकन नहीं आई। इसके बाद तो राज्य सभा में और भी भयावह तस्वीर सामने आई। एक दूसरे से मारपीट कि गई। कांग्रेस की सांसद ने मार्शल पर मारपीट का आरोप लगाया तो वीडियो में वो खुद महिला मार्शल से मारपीट करते नजर आए।
संसद के ऊपरी सदन में लोकतन्त्र को शर्मसार करने वाली घटना ने साबित कर दिया है कि जनता के चुने गए प्रतिनिधि गैर जिम्मेदार हैं। वो इस योग्य ही नहीं हैं कि उनको लोकतन्त्र के मंदिर में विराजमान किया जाए। क्या कांग्रेस सांसद प्रताप बाजवा देश को ये समझा पाएंगे कि उन्होने टेबल पर चढ़कर स्पीकर की कुर्सी की तरफ कागज़ फेंककर लोकतन्त्र की गरिमा बढ़ाई है।
संसद के मॉनसून सत्र शुरू होते ही ये तय हो गया था कि जासूसी और किसान मुद्दे को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जमकर खींचतान होगी लेकिन ये किसी ने नहीं सोचा था कि सांसद पूरी कार्यवाही ही हंगामे में स्वाहा कर देंगे। पहले तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने जमकर हँगामा किया जिसके बाद छह सांसद एक दिन के निलंबित भी हुए। लेकिन हंगामा रुकने कि बजाय बढ़ता ही गया। हो-हंगामे के कारण बाधित हुई लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाहियों से जनता के 2.16 अरब रुपये पानी में चले गए।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आंकड़े बताते हैं कि मॉनसून सत्र में संसद की उत्पादकता बीते दो दशकों में चौथी सबसे कम रही है। संसद के निचले सदन लोकसभा की उत्पादकता सिर्फ 21% प्रतिशत रही जबकि उच्च सदन राज्यसभा की उत्पादकता 29 प्रतिशत रही। लोकसभा को 19 दिनों तक प्रति दिन छह घंटे के हिसाब से चलना था। हालांकि, पेगासस जासूसी कांड की जांच और नए कृषि कानूनों की वापसी जैसी मांगों को लेकर हंगामे से सदन की कार्यवाही बाधित होती रही। इस कारण लोकसभा में कुल मिलाकर 21 घंटे ही कामकाज हो पाया। वहीं, राज्यसभा में 28 घंटे कामकाज हुआ।
प्रति मिनट औसतन 2.5 लाख रुपये खर्च के लिहाज से इस दौरान कुल 73.85 करोड़ रुपये खर्च हुए। साफ है कि मॉनसून सत्र में खर्च हुए कुल 2 अरब, 90 करोड़, 25 लाख रुपये में सिर्फ 73 करोड़, 85 लाख रुपये का सदुपयोग हो पाया। ऐसा इसलिए क्योंकि कुल 11,610 मिनट की कार्यवाही में सिर्फ 49.14 मिनट ही कामकाज हो पाया। मतलब कि 144 घंटे 16 मिनट यानी कुल 8,656 मिनट के 2 अरब, 16 करोड़, 40 लाख रुपये बेकार हो गए।
क्या जनप्रतिनिधियों की अंतरात्मा देश कि गाढ़ी कमाई बर्बाद करने के लिए उनको माफ कर देगी। शायद नहीं फिरभी उनका गैरजिम्मेदार रवैया मानसून सत्र में जारी रहा। ऐसा नहीं है जनता के प्रतिनिधियों के ऐसा अमर्यादित व्यवहार पहली बार किया हो। ये चलन सबसे पहले दक्षिण भारत से शुरू हुआ जब तमिलनाडु विधानसभा में जानकी और जयललिता के समर्थकों के बीच जमकर हाथापाई हुई। उत्तर प्रदेश को ले लें तो 22 अक्टूबर 1997 को विधान सभा में हुए बवाल को कौन भूल सकता है। विधायक ने माइक उखाड़कर स्पीकर की तरफ फेंक दिया। इसके बाद विधायक एक दूसरे पर टूट पड़े। सिर्फ तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश ही नहीं बिहार आंध्र प्रदेश में भी ऐसे दृश्य देखे गए। हालांकि संसद की गरिमा पर अभी तक हमला नहीं हुआ था। 11 अगस्त को ये मिथक बी टूट गया जब पूरे देश ने हंगामे और मारपीट के दृश्य देखे। आजादी का जश्न ऐसे कडवे माहौल में न मनाया जाए इसकी पहल खुद जनप्रतिनिधियों को करनी होगी। अगर सांसदों में जरा भी नैतिक बल बचा है तो उनको सामने आकर देश से माफी मांगनी चाहिए। और यह संकल्प लेना चाहिए कि आजादी के 75वें वर्ष में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करेंगे जिससे देश की जनता अपने प्रतिनिधियों पर गर्व करेगी न कि शर्मसार होगी।