आनन्द अग्निहोत्री
तीन दिन से दैनिक भास्कर समूह और टीवी चैनल भारत समाचार के कार्यालयों में आयकर विभाग के छापे मीडिया की सुर्खियां बने हुए हैं। कार्यवाही अब भी जारी है। कहा जा रहा है कि सरकार विरोधी खबरें प्रकाशित करने पर यह छापेमारी की गयी है। वहीं कार्यवाही के बीच ही आयकर विभाग की ओर से बयान जारी कर कहा जा रहा है कि दोनों ही मीडिया कम्पनियों में करोड़ों रुपये की कर चोरी पकड़ी गयी है। सोशल मीडिया पर दोनों ही ओर से तरह-तरह की बातें प्रचारित की जा रही हैं। सत्यता क्या है, यह अभी दफन है लेकिन हमेशा दफन रहेगी, ऐसा भी नहीं है। जो भी सच्चाई होगी, वह सामने आयेगी ही। पहले यह जान लेना जरूरी है कि इस प्रोफेशनल दौर में मीडिया है क्या। नए मीडिया से क्या अपेक्षाएं की जा रही हैं।
मीडिया का नाम लेते ही हमारे सामने स्वाधीनता संग्राम के दिनों के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की तस्वीर भी सामने आ जाती है लेकिन वह एक ऐसा दौर था जब कलमकार के सामने एक मिशन था और वह था देश को फिरंगियों की गुलामी से मुक्ति दिलाना। इसके लिए वह कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे। ऐसा उन्होंने किया भी। यही कारण है कि उन दिनों के कलमकारों की छवि इतिहास में आदर्श के रूप में दर्ज है। समय सदा एक जैसा नहीं रहता। आजादी के बाद लोगों की सोच बदली, नजरिया बदला और नये परिदृश्य में काम शुरू हुआ। आजादी मिलने के कुछ दशकों बाद तक भी मीडिया का यही रुख बरकरार रहा जिसमें उसका मुख्य उद्देश्य शोषण से मुक्ति दिलाना, समाज सुधार, अन्याय के खिलाफ जंग, नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देना आदि शामिल रहा। धीरे-धीरे हालात बदलते चले गये और कैसे मीडिया संस्थान मीडिया हाउस बन बैठे, पता ही नहीं चला। ऐसा भी समय था जब कलमकार एक ही संस्थान में जीवन गुजार देता था और अब समय मंकी जम्प का चल रहा है।
इसमें असहज जैसा कुछ भी नहीं है। जैसे-जैसे लोग प्रोफेशनल होते गये, मीडिया भी बदलता गया। मिशन से वह भी प्रोफेशन में आ गया। मीडिया हाउस का मैनेजमेंट ही प्रोफेशनल हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। कलम के धनी कहे जाने वर्ग में भी यह बदलाव परिलक्षित हुआ। ऐसे भी पत्रकार हैं जो प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रवेश करते हैं और देखते ही देखते किसी समाचार पत्र या न्यूज चैनल के मालिक बन बैठते हैं। आखिर कहां से आता है इतना पैसा उनके पास? दूसरी खास बात यह कि इस दौर में कोई समाचार पत्र निकालना या न्यूज चैनल खोलना सामान्य वर्ग के लिए तो कतई सम्भव नहीं है। सिर्फ पूंजीपति ही इस क्षेत्र में रिस्क ले सकते हैं। कारण यह कि इस तकनीकी युग में समाचार पत्र में इस्तेमाल की जाने वाली प्रिंटिंग मशीन और इसके सहायक उपकरण ही करोड़ों रुपये में हासिल हो सकते हैं। अगर न्यूज चैनल खोलना है तो उसके लिए भी सैटेलाइट हासिल करना, बड़े-बड़े कैमरे जुटाना बेहद महंगा है। अगर कोई यह हासिल भी कर ले तो इस व्यावसायिक युग में समाचार पत्र या न्यूज चैनल को कायम रखना बड़ी टेढ़ी खीर है। आज के दौर में जब किसी की जेब से 10 रुपये हासिल करना भी कठिन है, फिर इन समाचार पत्र या चैनल मालिकों को तो अपना खर्च उठाने के लिए हर महीने लाखों रुपये जुटाने होते हैं। इसके लिए मार्केटिंग के तरह-तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। अन्य तरह के कारोबार भी करने पड़ते हैं। सरकारी और मल्टीनेशनल कम्पनियों के विज्ञापन हासिल करने के लिए दिल्ली, सूबों की राजधानियों एवं व्यावसायिक शहरों में अपने प्रतिनिधि बैठाने पड़ते हैं। वैध-अवैध कमीशन का भुगतान करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मीडिया हाउसों के ये दलाल ही असली कर्ता-धर्ता होते हैं। इन्हें ही सम्पादक और ब्यूरो चीफ जैसे पदों से नवाजा जाता है। इन बड़े पदों तक वे ही लोग पहुंच पाते हैं जिनका सरकार और व्यावसायिक कम्पनियों में रसूख हो। कलम तो आज निचले पायदान पर चली गयी। कलमकारों को इनके इशारे पर ही कलम चलानी पड़ती है। जो सच्चे कलमकार हैं, वे जीवन भर कलम घिसते हैं और सेवानिवृत्ति के बाद भी इस जुगाड़ में लगे रहते हैं कि कैसे उनके जीवन यापन का साधन कायम रहे।
अब जो लोग इस व्यवसाय में करोड़ों रुपये लगाते हैं तो क्या उनसे यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे मात्र समाजसेवा करेंगे। ऐसा सोचना ही गलत है। स्वयं को मीडिया हाउस में स्थापित रखने के लिए तरह-तरह के जतन करने वाले अगर व्यावसायिक कम्पनियों की तरह मुनाफा कमाने की सोचते हैं तो क्या अनुचित करते हैं? आज आरोप लगाया जाता है कि मीडिया बिक चुका है। सरकार ने मीडिया खरीद लिया है। एक समय तो मीडिया-राडिया का जुमला सिर चढ़कर बोल रहा था। मीडिया से जुड़े बड़े लोगों से यही सवाल किया जाता था कि आप मीडिया से हैं या राडिया से। मीडिया का मतलब पत्रकारिता से था और राडिया का अर्थ दलाली से था। दरअसल कभी सुर्खियों में रहीं नीरा राडिया वस्तुत: दलाली से सम्बंधित थीं। उनके नाम पर ही राडिया शब्द सामने आया था। मीडिया हाउस कोई भी हो, धनोपार्जन सभी का पहला उद्देश्य है। अब चाहे यह नम्बर एक के रास्ते आये या नम्बर दो के। कुछ मीडिया हाउस कथित सरकारी इमदाद पर चलते हैं तो कुछ को विपक्षी राजनीतिक दल मदद देते हैं और कुछ की फंडिंग विदेशों तक से होती है। साफ है कि मीडिया हाउस उसकी सेवा पहले करेंगे जो फंड उपलब्ध कराते हैं। इनसे निष्पक्षता की उम्मीद करना तो बेमानी ही है।
दैनिक भास्कर या भारत समाचार जैसी मीडिया कम्पनियों पर आयकर के छापे पहली बार पड़े हों, ऐसा भी नहीं है। राजीव गांधी शासन को याद कीजिये जब बोफोर्स घोटाले को लेकर इंडियन एक्सप्रेस समूह पर आयकर और सीबीआई ने छापेमारी की थी। लम्बे समय तक यह विवाद चला और अंतत: नतीजा दोनों पक्षों में समझौते के रूप में सामने आया। इसी तरह एक समय मुलायम सरकार ने भी उत्तर प्रदेश के कुछ समाचार पत्रों के खिलाफ हल्लाबोल अभियान चलाया। कुछ अन्य प्रदेशों में भी स्थानीय समाचार पत्रों पर कार्यवाहियां की गयीं लेकिन सभी का रिजल्ट समझौता ही निकला। सच तो यह है कि सरकार और मीडिया हाउस दोनों अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। इन दोनों पक्षों के बीच से मीडिया और उसका पुराना स्वरूप तो तिरोहित ही हो गया है।
वास्तविक मीडिया के हित के लिए सरकार ने कानून बना तो रखे हैं लेकिन व्यावहारिक रूप से इनका पालन नहीं होता। मसलन पत्रकारों को सुविधाएं देने की सरकार जो घोषणाएं करती है, उसमें भी एक शर्त जुड़ी होती है कि सिर्फ मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए। मान्यता की भी एक सीमा है। 90 प्रतिशत पत्रकार तो मान्यताविहीन ही होते हैं। जो वेतन आयोग गठित किये जाते हैं, उनकी रिपोर्ट लागू नहीं होतीं। वास्तविक मीडिया तो अपने को ठगा सा देखता है। आज जो लोग मीडिया हाउसों पर छापों को लेकर इसे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर हमला बता रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि असल मीडिया तो मीडिया हाउसों के सामने दीन-हीन है, उनके रहमो-करम पर जिंदा है। यही मीडिया और मीडिया हाउस में अंतर है। मीडिया की आलोचना करने वाले वर्ग को इस तथ्य के बारे में अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।