जगदीश जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
लोक सभा तथा राज्यों की विधान सभाओं के चुनावों में प्रत्याशियों के अधिकतम खर्च की सीमा बढ़ा दी गई है। इसके पूर्व सन् 2014 में इस खर्च को बढ़ाया गया था। सन् 2020 में अस्थाई तौर पर इस खर्च को 10 प्रतिशत बढ़ाया गया। इसे तय करने के लिए चुनाव आयोग ने तीन सदस्यीय समिति बनाई थी, जिसने 2014 के बाद हुए कई बदलावों पर विचार किया। समिति ने माना कि सात साल में मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी हुई है, दूसरे, यह भी माना कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या बढ़ी है। ऐसे में चुनाव खर्च सीमा बढ़ाया जाना जरूरी है। अब उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि अधिक आबादी वाले राज्यों में लोक सभा प्रत्याशी चुनाव प्रचार में 90 लाख रुपये तक खर्च कर सकेंगे, इसके पहले यह सीमा 70 लाख रुपये थी। इसी तरह अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, गोवा, लद्दाख जैसे कम आबादी वाले राज्यों में चुनाव प्रचार खर्च की अधिकतम सीमा 75 लाख रुपये होगी। उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, महाराष्ट्र, बंगाल आदि बड़े राज्यों की विधान सभाओं के लिए होने वाले चुनाव में प्रत्याशी 40 लाख रुपये अधिकतम खर्च कर सकेंगे, जबकि छोटे राज्यों में यह सीमा 25 लाख रुपये होगी। इसके पहले यह राशि क्रमश: 25 लाख और 20 लाख रुपये हुआ करती थी। आकड़ों पक्ष देखें तो चुनावी खर्च सीमा में वृद्धि में सिर्फ महंगाई ही समाहित हो पाई है जबकि बढ़े हुए मतदाताओं तक संपर्क का खर्च इसमें शामिल नहीं हो पाया है। समीक्षा अवधि में महंगाई करीब 32 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि मतदाताओं में करीब 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
व्यावहारिक पक्ष देखें तो इस बढ़े चुनावी खर्च के मायने इतने ही हैं कि अब चुनाव आयोग के समक्ष पेश की जानी वाली बैलेंस शीट में कुछ और खर्च को शामिल किया जा सकेगा। जो प्रत्याशी गंभीरता से चुनाव लड़ते हैं उनसे पूछ कर देखें उन्होंने चुनाव प्रचार में कितना रुपया लगाया है। यही जवाब मिलेगा कि कई गुना खर्च करते हैं, तब क्षेत्र में उपस्थिति दर्ज हो पाती है। आयोग की ओर से रेंट पर लिए जाने वाली सामग्री का किराया भी तय किया जाता है, चुनाव खर्च में उससे कम राशि दिखाई नहीं जा सकती। मतदान के दिन मतदान केन्द्रों पर बनने वाले आफिस के लिए कम से कम दो टेबिल और आठ-दस कुर्सियां तो लगानी ही पड़ती हैं। प्रति बूथ पोलिंग एजेंट और बस्ते-आफिस पर बैठने वाले कार्यकर्ताओं के चाय, नाश्ते और भोजन की राशि, एक क्षेत्र में कितने मतदान केन्द्र हैं, उस हिसाब से गणना कर सकते हैं। प्रत्याशी और उसके सहयोग के लिए दौड़ने वाली गाड़ियों का खर्च अलग से। मतदान से मतगणना तक का खर्च एक साथ जोड़ें तो दस-पन्द्रह प्रतिशत तक हो जाएगा। रोजाना चुनाव प्रचार पर दौड़ रही गाड़ियों, उनके ड्राइवरों, ध्वनि विस्तारक यंत्र और गाड़ियों में बैठे कार्यकर्ताओं के खाने-पीने और मेहनताने का खर्च कम नहीं होता। कार्यकर्ता चुनाव प्रचार की जान होते हैं, केंद्रीय कार्यालय पर बैठे कार्यकर्ता, सोशल मीडिया टीम, चुनावी गाड़ियों और जनसभाओं का शेड्यूल करने वाले लोग, यह भी तो खर्च है। चुनावी सभाओं और प्रचार सामग्री पर भी तो खर्च करना होता है। अब उस खर्च की बात न करें जो मतदाताओं की आर्थिक मदद के लिए, मतदाताओं का रुझान अपनी ओर करने वाले खास व्यक्ति या कार्यकर्ताओं की थकान मिटाने के लिए शाम को होने वाला खर्च, इसे खुले दिल से देना होता है। कुल मिला कर देखें तो चुनाव आयोग की बैलेंस शीट में हुआ खर्च तो ऊंट के मुंह में जीरा के समान है, यह बात किसी से छुपी नहीं। सिद्धांत और व्यवहार यही फर्क चुनाव की बाजी पलट देता है।