राकेश दुबे
स्तंभकार
संयक्त राष्ट्र की ‘द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड, २०२२’रिपोर्ट’ की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार 22 करोड़ भारतीय के लिए स्वास्थ्यपरक भोजन उपलब्ध नहीं हो पाता। देश में मुफ्त अनाज योजना के बावजूद भपेट भोजन से लेकर कुपोषण की शिकार बड़ी आबादी चिंता का सबब है।
रिपोर्ट साफ-साफ बताती है कि 2021 में भारत की कुल 22.4 करोड़ आबादी को पूर्ण आहार की आवश्यकता है। हालांकि सरकारी आंकड़ों में हालात पहले से बहुत बेहतर हैं। लेकिन इस रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर कुपोषण के शिकार 76 करोड़ लोगों में 29 प्रतिशत भारतीय हैं। कुपोषण मिटाने की यह रफ्तार भले ही पड़ोसी राष्ट्रों से बेहतर रही हो लेकिन अभी भी देश विकसित देशों से पीछे है।
भारत में बड़ी संख्या में लोग मोटापाग्रस्त है | इसमें छोटे बच्चे भी शामिल हैं। जो गंभीर संकट की ओर इशारा कर रही है। रिपोर्ट महिलाओं के एनीमिया-पीडि़त होने संबंधी विवरण भी देती है। रिपोर्ट के तहत 15 से 49 आयुवर्ग के 3.4 करोड़ लोग ओवरवेट श्रेणी में सम्मिलित हो चुके हैं। जबकि चार वर्ष पूर्व यह संख्या 2.5 करोड़ थी। महिला रक्ताल्पता मामलों की संख्या 2019 में लगभग 17 करोड़ रही, जबकि वहीं 2021 में भारत की कुल 18 करोड़ भारतीय महिलाएं एनीमिक पाई गईं।
वैसे अगर हम ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स-२०२१’ के आंकड़ों को माने तो, भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य उत्पादक देश है। दूध, चावल, मछली, सब्जी तथा गेहूं उत्पादन में अग्रणी राष्ट्र होने तथा वैश्विक स्तर पर सबसे सस्ता पौष्टिक आहार भारत में उपलब्ध होने पर भी कुल जनसंख्या के एक-चौथाई से अधिक अंश का पोषाहार से वंचित रहना, नि:संदेह आश्चर्यजनक है। इसमें जहां व्यवस्थात्मक प्रबंधन की कमियां उजागर होती हैं|
भारतीय संस्कृति के पारम्परिक आहार नियम पर भी विचार जरूरी है। भारतीय सभ्यता में अन्न को देवत्व से जोड़ा गया है। परम्परानुसार भोजन व्यर्थ गंवाना अथवा झूठा छोड़ना सर्वथा निषेध है किंतु परिवर्तित जीवनशैली के आधार पर आयोजित भव्य समारोहों में परोसे गए विविध व्यंजनों का एक बड़ा हिस्सा आस्वादन अतिरेक में कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाता है, जो कि अनेक जरूरतमंद लोगों का क्षुधापूरक बन सकता था।
आज़ादी के अमृत काल में पोषाहार व मुफ्त अनाज आवंटन योजनाओं की विसंगति तथा सभी जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाकर हम इस गंभीर समस्या से निपट सकते हैं।
भारत में रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों का असीमित प्रयोग पोषक तत्वों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने सहित अन्न की प्राकृतिक गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। संतुलित आहार, मात्रा आदि से संबंधित अपर्याप्त जानकारी भी रक्ताल्पता जैसी स्वास्थ्यजनित समस्यायों में असामान्य वृद्धि का बड़ा कारण हैं। आवश्यक शारीरिक सक्रियता का अभाव एवं ‘जंक फूड’ का बहुप्रचलन युवाओं में मोटापे की समस्या बनकर उभर रहा है। ‘रेडी टू ईट’ परंपरा का अनुसरण समय व श्रम भले ही बचाता हो लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव कुपोषण व स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं ही लेकर आते हैं। महानगरीय अतिव्यस्तता जिस जीवनशैली को आधुनिकता का पर्याय मानने लगी है, वही शारीरिक तथा मानसिक रुग्णता का कारण बन रही है। भारत में भोजन बनाना, परोसना, ग्रहण करना व बचे अन्न का सद्प्रयोग परम्परागत संस्कार हैं, इनकी अवहेलना से केवल विकार ही उत्पन्न होंगे और विकारों से आरोग्य व पोषकता की अपेक्षा कैसे व क्यों कर हो सकती है? आवश्यकतानुसार परोसना तथा मिल-बांटकर खाना ही हमारी सांस्कृतिक विलक्षणता है। वही व्यवस्था श्रेष्ठतम आंकी जा सकती है जो न केवल अन्न के मंडीकरण, भंडारण, वितरण आदि के समुचित प्रबन्धन के प्रति निष्ठापूर्वक जिम्मेवार हो बल्कि निर्धनता, बेरोजगारी, महंगाई, अज्ञानता जैसी सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन हेतु भी संकल्पबद्ध हो ताकि देश में प्रत्येक थाली में भरपेट संतुलित भोजन उपलब्ध हो ।यह सिर्फ सरकार का नहीं हम सबका दायित्व है |