Thursday, November 21, 2024
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हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार- गायक के एल सहगल

लेखक : दिलीप कुमार

जब दिल ही टूट गया, हम जी कर क्या करेंगे” ये गीत टूटे हुए आशिकों के म्यूजिक प्ले लिस्ट में या फिर गुनगुनाते हुए सुना जा सकता है. यह गीत 72 साल पहले हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार सहगल साहब ने गया था. आम तौर पर ऐसी महान जिन्दगियों के बारे में आम धारणाएं बदलती रहती हैं. सहगल साहब शुरुआती दौर के सुपरस्टार थे. जब हिन्दी सिनेमा का खुद का कोई ख़ास मुकाम नहीं था, लेकिन सहगल साहब की अपनी शख्सियत जादुई थी. “ग़म दिए मुस्तक़िल कितना नाज़ुक है दिल”, आज भी बड़े चाव से सुना-गाया जाता है. दोनों गीत सहगल साहब को हर दिल में जिन्दा किए हुए हैं. कुन्दनलाल सहगल उर्फ के. एल. सहगल का जन्म- 11 अप्रैल 1904 को हुआ था. सहगल साहब एक बेमिसाल गायक के रूप में विख्यात हैं, एवं आज भी याद किए जाते हैं. देवदास 1936 जैसी फ़िल्मों में अभिनय के कारण प्रशंसक उन्हें एक उम्दा अभिनेता भी करार देते हैं. कुन्दनलाल सहगल हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार हैं. 1930 और 40 के दशक की संगीतमयी फ़िल्मों की ओर दर्शक उनके भावप्रवण अभिनय और दिलकश गायकी के कारण खिंचे चले आते थे. सहगल साहब के दौर में यह भी एक जरूरी शर्त होती थी, कि हीरो भी वही बनेगा, जो गायक होगा. उस दौर में अधिकांश हीरो गायक भी थे.

जब भी हिन्दी सिनेमा का इतिहास लिखा जाएगा तो दादा साहेब फाल्के के बाद, सोहराब मोदी, जगदीश सेठी, मोतीलाल, आदि से पहले पूरा का पूरा अध्याय सहगल साहब के नाम होगा.. केएल सहगल हिन्दी सिनेमा के शुरुआती अग्रदूत हैं. आज सहगल साहब को गुज़रे पचहत्तर साल से भी ज्यादा समय बीत चुका है … सुखद एहसास यह भी है कि आज भी उनकी आवाज़ एवं अदाकारी गुणवत्ता के मानक बने हुए हैं. सहगल साहब भारतीय सिनेमा के शुरुआती गायक और अभिनेता थे. उन्हें आमतौर पर बॉलीवुड का पहला सुपरस्टार माना जाता है. उन्होंने अपने 15 साल के करियर में, 36 फीचर फिल्मों, कई शॉर्ट्स और कई डिस्क में अभिनय किया और एवं गायिकी भी की. सहगल साहब की अनूठी आवाज की गुणवत्ता, जो बैरिटोन और सॉफ्ट टेनर का मिश्रण थी, उनके अनुसरण करने वाले अधिकांश गायकों के लिए वास्तव में सहगल साहब की आवाज़ एक उच्चतम स्तर थी.. जिसके आसपास पहुंचना सभी के लिए एक लकीर थी. यह आज भी बहुत प्रारंभिक और व्यावहारिक रूप से आदिम रिकॉर्डिंग तकनीक के माध्यम से चमकता हुआ स्वर्ण मानक बना हुआ है.

सहगल साहब के आवाज़ की लोकप्रियता का यह आलम था. भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय रहा रेडियो सीलोन कई साल तक हर सुबह सात बज कर 57 मिनट उनका गीत बजाता था. उनकी आवाज़ लोगों की दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन गई थी. भारत के पार्श्व गायन इतिहास में शायद ही कोई बिरला रहा हो जो सहगल साहब की तिलिस्मी आवाज़ के पाश में बंधा न रहा हो, उनकी गायिकी से कोई भी अछूता नहीं था. मन्ना डे, रफी साहब, किशोर कुमार, मुकेश जी, लता मंगेशकर सभी उनकी गायिकी के भक्त थे. लता मंगेशकर तो सहगल साहब की बड़ी भक्त थीं. वह चाहती थीं कि सहगल की कोई निशानी उनके पास हो. वह उनकी स्केल चेंजर हारमोनियम अपने पास रखना चाहती थीं, लेकिन सहगल की बेटी ने उसे अपने पास रखते हुए सहगल की रतन जड़ी अंगूठी लता को दी. लता के पास वह निशानी मरते दम तक साथ रही. कहते हैं कि कम उम्र में लता ने सहगल की एक फ़िल्म देखने के बाद उनसे शादी करने का ख्‍याल ज़ाहिर किया था. तब उनके पिता ने कहा था “लता तुम जब तक बड़ी होगी सहगल साहब बूढे हो जाएंगे”. लता मंगेशकर कभी भी सहगल साहब से मिलने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सकीं, क्योंकि सहगल साहब दुनिया से पहले ही रुखसत कर गए थे, जब लता मंगेशकर गायिका भी नहीं बनी थीं.

मुकेश जी रफी साहब, एवं किशोर दा को सहगल साहब से मिलने का मौका ज़रूर मिला है, नौशाद अली से रफी साहब ने अनुरोध किया था, कि मुझे एक बार सहगल साहब से मिला दीजिए. तब उनको मौका मिला. रफ़ी साहब ने अपनी आवाज में उनको गीत सुनाया, तब सहगल साहब ने रफी साहब की तारीफ की करते हुए कहा “मुझे तुम्हारी गायिकी से ज्यादा तुम्हारा अंदाज़ पसंद आया. तुमने किसी की नकल नहीं की, तुमने अपने अंदाज़ में गाया है, तुम भारत के महान गायक बनोगे”.

इसके विपरीत मुकेश जी को एक सीख भी मिली, मुकेश जी ने भी सहगल साहब को गीत सुनाया, लेकिन सहगल साहब की नकल करते हुए, सहगल साहब ने कहा “मुकेश तुम बहुत महान गायक बनोगे, लेकिन तुम्हें सुधार करना होगा, तुम मेरी नकल मत करो अपनी तरह गाओ”, लेकिन मुकेश जी बड़े गायक बन जाने के बाद भी सहगल साहब की तरह ही गाते थे….. किशोर कुमार को भी सहगल साहब से एक जरूरी सीख मिली थी. किशोर कुमार ने अपने बड़े भाई अशोक कुमार से विनती की और कहा “दादा मैं केएल सहगल का बहुत बड़ा फैन हूं, मुझे एक बार उनसे मिलना है, तब किशोर कुमार अपने भाई के साथ सहगल साहब के पास पहुंचे. किशोर कुमार ने सहगल साहब को गीत सुनाया, “सहगल साहब ने दादामुनि अशोक कुमार से कहा तुम्हारा भाई गाता बहुत अच्छा है, लय, तुक ठीक है, लेकिन थोड़ा असभ्य है, गाना गाते हुए हिलता बहुत है, गायक को अपनी शालीनता कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए”. रफ़ी, मुकेश, किशोर तीनों महान गायकों की शख्सियत ऐसे ही थी, रफी साहब तीनों में महान माने जाते हैं, वहीँ मुकेश जी भी अपने अंदाज़ में गाते हुए महान बने, वहीँ किशोर कुमार आजीवन बेपरवाह रहे.

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सहगल साहब अपने चहेतों के बीच केएल सहगल नाम से जाने जाते थे. सहगल साहब ने किसी उस्ताद से संगीत की शिक्षा नहीं ली थी, लेकिन सबसे पहले उन्होंने संगीत के गुर एक सूफ़ी संत सलमान युसूफ से सीखे थे. सहगल साहब की प्रारंभिक शिक्षा बहुत ही साधारण तरीके से हुई थी. उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी. जीवन यापन के लिए उन्होंने रेलवे में टाईमकीपर की मामूली नौकरी करने के बाद उन्होंने रेमिंगटन नामक टाइपराइटिंग मशीन की कंपनी में सेल्समैन की नौकरी भी की. सहगल साहब एक बार उस्ताद फैयाज ख़ाँ के पास संगीत के गुर हासिल करने की हसरत लिए गए, तो उस्ताद ने उनसे कुछ गाने के लिए कहा. उन्होंने राग दरबारी में खयाल गाया, जिसे सुनकर उस्ताद ने गद्‌गद्‌ भाव से कहा कि बेटे मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिसे सीखकर तुम और बड़े गायक बन सको. तुम अपना रास्ता तलाश करो उज्ज्वल भविष्य तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है.

सहगल साहब बंगाल में रहते हुए बंगाली भाषा सीख चुके थे, बंगाली भाषा में गाने भी गाते थे. एक बार सहगल साहब ने रबीन्द्रनाथ टैगोर से उनके कुछ गीतों को गाने की अनुमति मांगी, रबीन्द्रनाथ टैगोर ने सहगल से बंगाली भाषा में कुछ सुनना चाहा, सहगल साहब ने सुनाया भी था. गाना सुनने के बाद टैगोर बहुत खुश हुए, उन्होंने सहगल को अपने गीत गाने की इजाजत देते हुए कहा “आप विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं, आपको जितना संगीत का गहन ज्ञान है वैसे ही आप संगीत में भी पारंगत हैं. रविन्द्र संगीत गाने का सम्मान पाने वाले पहले गैर बांग्ला गायक और भारतीय सिनेमा के पहले सुपर स्टार सहगल साहब ही थे. ग़ालिब अपने दौर से लेकर अब तक अपनी मृत्यु हो जाने की कई सदी निकल गईं, लेकिन आज भी अमर हैं, उनकी दीवानगी लोगों में अपने अपने तरीके से याद करते हुए भी है, एवं अपनी तिलिस्मी शब्दों की दुनिया रच गए ग़ालिब कभी भी बिसारे नहीं जाएंगे, लेकिन समय – समय पर ग़ालिब और प्रासंगिक होंगे. सहगल साहब भी अपने अंदाज़ में ग़ालिब के साथ जुड़े रहे… कारण शब्दों की मौसीक़ी… सहगल साहब ने ग़ालिब की क़रीब बीस ग़ज़लों को अपनी आवाज़ का सोज़ दिया. ग़ालिब से इसी मुहब्बत के कारण उन्होंने एक बार उनके मज़ार की मरम्मत करवाई थी. यह संस्मरण ग़ालिब से ज्यादा सहगल साहब को याद दिलाता है. यह वो दौर था, जब भारतीय फ़िल्म उद्योग बंबई में नहीं बल्कि कलकत्ता में केंद्रित था. उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि उस जमाने में उनकी शैली में गाना अपने आपमें सफलता की कुंजी मानी जाती थी. मुकेश और किशोर कुमार ने अपने कैरियर के आरंभ में सहगल की शैली में गायन किया भी था. कुंदन के बारे में कहा जाता है कि पीढ़ी दर पीढी इस्तेमाल करने के बाद भी उसकी आभा कम नहीं पडती. सहगल सचमुच संगीत के कुंदन थे.

 अफ़ज़ल अहमद सैयद के शब्दों में कहें , तो जैसे काग़ज़ मरा‍कशियों ने ईजाद किया था, हुरूफ़ फिनिशियों ने, सुर गंधर्वों ने, उसी तरह सिनेमा का संगीत सहगल ने ईजाद किया. दुनिया में कई रहस्य चुनौती देते हैं. चुनौती सहगल साहब भी दे गए हैं. फ़क़ीरों-सा बैराग, साधुओं-सी उदारता, मौनियों-सी आवाज़, हज़ार भाषाओं का इल्म रखने वाली आँखें, रात के पिछले पहर गूंजने वाली सिसकी जैसी ख़ामोशी, और पुराने वक़्तों के रिकॉर्ड की तरह पूरे माहौल में हाहाकार मचाती एक सरसराहट… बता दो एक बार, ये सब क्या है? वह कौन-सी गंगोत्री है, जहां से निकल कर आती है सहगल की आवाज़? कहां से आता है सहगल का दर्द, जो सीने में हूक, आंखों में नमी और कंठ में कांटे दे जाता है. क्यों एक रुलाहट आंखों पर दस्तक देती है और बिना कुछ कहे तकती हुई-सी लौट जाती है. यह सुबह या दुपहरी की नहीं, सांझ के झुटपुटे की आवाज़ है. जिसका असर रात के साथ गहरा होता जाता है. अगर आप दिल से कमज़ोर हैं, आधी रात को सहगल मत सुनिए. उन्हें सुनना भाषा में तमीज़ को जीना है. आंख में आंसू का सम्मान करना है. दु:ख जो दिल के क़गार पर रहता है, उसे बीचो-बीच लाकर महल में जगह देनी है. दु:ख को जियो, तो जीने का शऊर आ जाता है. कुंदनलाल सहगल के सम्मान में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट सहगल की उदारता के कई क़िस्से मिलते हैं. कहते हैं कि न्यू थिएटर्स के ऑफिस से उनकी सैलरी सीधे उनके घर पहुंचाई जाती थी, क्योंकि अगर उनके हाथ में पैसे होते, तो आधा वह शराब में उड़ा देते, बाक़ी ज़रूरतमंदों में बांट देते थे. एक बार उन्होंने पुणे में एक विधवा को हीरे की अंगूठी दे दी थी.सहगल साहब बिना शराब पिए नहीं गाते थे. ‘शाहजहां’ के दौरान नौशाद ने उनसे बिना शराब पिए गवाया, और उसके बाद सहगल की ज़िद पर वही गाना शराब पिलाकर गवाया. बिना पिए वह ज़्यादा अच्छा गा रहे थे। उन्होंने नौशाद से कहा, “आप मेरी ज़िंदगी में पहले क्यों नहीं आए? अब तो बहुत देर हो गई दोस्त… अब तो शराब मैं नहीं पीता अब तो शराब मुझे ही पी चुकी है”. आम तौर पर बेपरवाह लोग मुझे बहुत पसंद आते हैं, जो दिखावे से दूर हों, अगर बेपरवाह हो तो दिखना भी चाहिए. केवल स्थायित्व शख्सियत का लिबास नहीं ओढ़ना चाहिए. सहगल साहब को खाना बनाने का बहुत शौक़ था. मुग़लई मीटडिश वह बहुत चाव से बनाते थे और स्टूडियो ले जाते थे. बेपरवाही का आलम यह था कि आवाज़ की चिंता किए बग़ैर वह अचार, तेल आदि की डिसेश भी ख़ूब खाते थे. सिगरेट के साथ – साथ शराब के भी ज़बर्दस्त शौक़ीन थे. सहगल साहब अगर पूरा जीवन जीते तो आज सबसे ज्यादा सबसे पहले याद किए जाते, कहते हैं सहगल साहब जैसे लोग जो विलक्षण होते हैं, वो असामयिक इस दुनिया से चले जाते हैं, और दुनिया में अमर कहानी बनकर याद आते हैं. अपनी प्रतिभा से अनन्तकाल तक तो चमकते ही हैं, साथ ही अपनी जीवन यात्रा की खट्टी – मीठी यादों एवं अनुभवों से पीढ़ियों को सीख देते हैं, कि शराब अत्यंत पियोगे तो यक़ीनन एक दिन शराब भी आपको पी लेगी. अपनी दिलकश आवाज़ से सिने प्रेमियों के दिल पर राज करने वाले के.एल.सहगल 18 जनवरी, 1947 को केवल 43 वर्ष की उम्र में इस संसार को अलविदा कह गए. हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार एवं गायिकी के आधुनिक तानसेन सहगल साहब को मेरा सलाम…….

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