Sunday, June 8, 2025
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यादों का झरोखा : प्यार की अनूठी दास्तान फिल्म ‘लम्हे’

इंसान सब कुछ भूल सकता है पर उसकी जवानी और पहला प्यार कभी दिल से दूर नहीं होते हैं। हम भी ‘टीन एज’ और जवानी की दहलीज के बीच झूल रहे थे। हर उस कहानी का हीरो खुद को समझते जिसमें प्यार की दास्तान होती। ऐसे में 18 साल के क्लीन सेव लड़के कुँवर वीरेन्द्र प्रताप सिंह सिंह को देखकर लगा कि मानों वो ‘हम’ ही हैं। हम ही लंदन से भारत आकर पल्लवी से मिलते हैं और पहली ही नज़र में प्यार करने लगते हैं। फिर राजस्थान की पारंपरिक पोशाक पहनकर उससे प्यार का इजहार करने चल देते हैं। जीहाँ, लम्हे फिल्म को आए हुए 28 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी वो फिल्म दिल के इतने करीब है जैसे आज ही थियेटर में रिलीज हुई हो। फिल्म को देखकर प्यार से भरे अलमस्त दिन याद आ जाते हैं।

जब लम्हे फिल्म रिलीज हुई तो दिवाली के आसपास का समय था। गुलाबी ठंड शुरू हो चुकी थी। उन दिनों हमारा वास्ता प्यार से नहीं पड़ा था। उस गुरुवार को एक साथ दो बड़ी फिल्में रिलीज हुई थी जिसमे एक फिल्म भारतीय सिनेमा को अजय देवगन जैसा स्टार देने जा रही थी तो दूसरी यश राज प्रॉडक्शन की फिल्म थी। हमने फिल्मी पर्दे पर प्यार के देवता माने जाने वाले यश चोपड़ा की लम्हे फिल्म देखने का फैसला किया। इसी फिल्म के नायक और नायिका थे कुँवर वीरेन्द्र प्रताप सिंह और पल्लवी… यानि अनिल कपूर और श्रीदेवी। ये जोड़ी पर्दे पर पहले ही सुपरहिट थी। मिस्टर इंडिया फिल्म में दोनों का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोला था। ऐसे में लम्हे फिल्म देखने की उत्सुकता बनी हुई थी।

फिल्म की कहानी सीधी साधी है लेकिन प्यार के रिश्तों में उलझी हुई। फिल्म शुरू होते ही नायक वीरेन्द्र प्रताप सिंह (अनिल कपूर) अपनी दाई माँ (वहीदा रहमान) के पास राजस्थान आता है। वहाँ वो पल्लवी (श्रीदेवी) से मिलता है। पल्लवी उम्र में उससे बड़ी है फिर भी उससे प्यार करने लगता है। वो उससे प्यार का इजहार करने का फैसला करता है लेकिन तभी नायिका (मनोहर सिंह) के पिता का देहांत हो जाता है। यहाँ पर फिल्म में नायिका के अपने प्रेमी की इंट्री होती है। पिता की मृत्यु से दुखी पल्लवी जैसे ही वीरेंद्र के सामने अपने प्रेमी सिद्धार्थ से गले लिपटकर रोती है… ऐसा लगता है कि अनिल कपूर का नहीं बल्कि हमारा दिल चकनाचूर हो गया हो… वो लंदन चला जाता है। कुछ साल बाद एक कार हादसे में पल्लवी और सिद्धार्थ मर जाते हैं। लेकिन उनकी बेटी पूजा बच जाती है जिसे वीरेंद्र की दाई माँ ही पालती है। वीरेंद्र हर साल भारत तो आता है लेकिन पल्लवी का श्राद्ध करने। वो पल्लवी की बेटी पूजा का चेहरा नहीं देखना चाहता है क्योंकि पूजा का जन्मदिन और उसकी माँ पल्लवी की बरसी एक ही दिन होती है।

18 साल बाद वीरेंद्र पूजा को देखता है तो हैरान रह जाता है। वो बिल्कुल अपनी माँ और उसके प्यार जैसी दिखती है। जाने- अनजाने में वीरेंद्र एकबार अपने उस दौर में पहुँच जाता है, जब उसने पल्लवी से प्यार किया था। वो पूजा से दूरी बनाने की कोशिश करता है लेकिन प्यार में ये मुमकिन नहीं था… “बस यही वो लम्हा था जब हमने पहली बार प्यार का अहसास किया, लगा कि ये कहानी अपनी भी हो सकती है।“ दिल ने ऊपर वाले से प्रार्थना की पूजा को वीरेंद्र से प्यार हो जाए और वीरेंद्र को उसका खोया प्यार मिल जाए। हम ये भूल गए कि पूजा पल्लवी की बेटी है। उम्र में वीरेंद्र की बेटी की तरह… फिल्म की नायिका भी भूल गई कि वीरेंद्र ने उसकी परवरिश की लेकिन वीरेंद्र को याद था कि वो पल्लवी नहीं है। इसीलिए वो उसके करीब नहीं जाना चाहता था। लेकिन पिक्चर अभी बाकी थी… कुछ समय बाद दाई माँ पूजा को लंदन घुमाने लाती है। वहाँ वो वीरेन्द्र से प्यार कर बैठती है। इस बार वीरेंद्र के इंकार करने पर पूजा का दिल टूट जाता है और साथ ही हमारा भी, वो पूजा से शादी करने को इंकार कर देता और कहता है कि वो उससे नहीं उसकी माँ से प्यार करता था। वीरेंद्र उसको भूलकर पूजा से कहीं और शादी करने को कहता है। पूजा शर्त रखती है कि कुँवर जी शादी कर लें तो वो भी कर लेगी… यह कहकर वो भारत आ जाती है लेकिन प्यार है जो दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं होने देता है। वीरेंद्र को अहसास होता है कि पूजा एक अलग अस्तित्व है और इस बार उसे पल्लवी की छाया से नहीं बल्कि पूजा से ही प्यार हुआ है। बस फिर दोनों आपस में मिल जाते हैं और प्यार अपने अंजाम तक पहुँच जाता है। लम्हे को देखने के बाद कई लोगों ने फिल्म को समय से आगे की कहानी बताकर खारिज कर दिया। कुछ ने संस्कारों की दुहाई दी लेकिन ये कहानी जिसने भी देखी, उसके दिल में बस गई… आखिर हो भी क्यों न… कहानी डॉ राही मासूम रजा ने हनी ईरानी के साथ मिलकर जो लिखी थी। उन्होने ही यश चोपड़ा के बड़े भाई का कालजयी धारावाहिक महाभारत लिखा था जो आज भी घर- घर में लोकप्रिय है। तब भी हिंदू धर्म के कुछ स्वयंभू संरक्षकों की ओर से महाभारत लिखने पर टीका- टिप्पणी की गई थी। अगर अभिनय की बात करें तो फिल्म देखकर सिनेमा के महानायक दिलीप कुमार और अभिताभ बच्चन ने खुद अनिल कपूर की तारीफ की। श्रीदेवी हमेशा की तरह लाजवाब रहीं जबकि वहीदा रहमान, अनुपम खेर और मनोहर सिंह ने अपने अभिनय से खुद को दर्शकों से जोड़ने का काम किया। फ़िल्म का संगीत शिवकुमार शर्मा और हरिप्रसाद चौरसिया (शिव-हरि) ने दिया था जो आज भी कानों में शहद घोलता है। आनंद बख्शी के बोल भी शानदार हैं। यश चोपड़ा ने अपने निर्देशन से फिल्म के हर फ्रेम में मोहब्बत भर दी थी। उन्होने लंदन और राजस्थान की जो खूबसूरती दिखाई वो आज भी शीतल हवा सरीखी लगती है। ये फिल्म आज भी हमें पहले प्यार का अहसास दिलाती है जो उस ‘लम्हे’ से हो गया था।

संसद का मानसून सत्र : 89 घंटे के काम की बरबादी, 140 करोड़ रुपए का नुकसान

सत्ता पक्ष और विपक्ष के अड़ियल रवैये के चलते संसद के मानसून सत्र में न के बराबर काम हुआ है। पेगासस जासूसी से लेकर किसानों के मुद्दे पर चर्चा की मांग को लेकर विपक्ष ने सदन को अभी तक चलने नहीं दिया है जबकि सरकार नियमानुसार संसद के कार्य को संचालित करना चाहती है। ऐसे में जो सदन 107 घंटे के काम को निपटा सकता था उसमें 89 घंटे की बर्बादी हुई और करीब 140 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। ऐसे में सदन तय समय से पहले ही समाप्त किया जा सकता है।  

मानसून सत्र की शुरुआत 19 जुलाई से हुई थी। सरकार को उम्मीद थी कि इस बार के सत्र में अहम मुद्दों पर चर्चा के साथ-साथ कई बिल भी पास हो जाएंगे, लेकिन विपक्ष के हंगामे के चलते संसद का कामकाज लगभग ठप पड़ा है. अब तक दोनों सदनों में कुल मिलाकर सिर्फ 18 घंटे का कामकाज़ हुआ है, जबकि इस दौरान संसद की कार्यवाही करीब 107 घंटे चल सकती थी. लिहाज़ा एक अनुमान के मुताबिक देश के खज़ाने को 133 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ है। लोकसभा में मौजूदा सत्र के दौरान सिर्फ 7 घंटे का कामकाज हुआ है, जबकि यहां 19 जुलाई से लेकर अब तक करीब 54 घंटे तक का काम हो सकता था. उधर ऊपरी सदन यानी राज्यसभा में भी अब तक महज 11 घंटे का काम हुआ है. जबकि यहां भी करीब 53 घंटे की कार्यवाही हो सकती थी. यानी हिसाब लगाया जाय तो दोनों सदनों में कुल मिलाकर अब तक कुल 89 घंटे की बर्बादी हुई है।

विवादों का महाकुंभ टोक्यो ओलंपिक

ओलंपिक और विवादों का अक्सर चोली दामन का साथ रहा है। कभी खेलों की मेजबानी को लेकर दो देश आपस में भिड़ गए तो कभी सियासी कारणों से टीम और खिलाड़ियों का बहिष्कार किया गया। टोक्यो ओलंपिक भी विवादों से अछूता नहीं है। यहाँ तक कि जापान वासियों ने ही करोना को लेकर अपने ही देश के आयोजकों को कटघरे में खड़ा कर दिया है। जापान वासियों ने ओलंपिक खेलों को तत्काल रोकने की भी मांग है।

भारत की खिलाड़ी मैरी कॉम ने खेल के दौरान अंपायरिंग को लेकर निशाना साधा है तो कई अफ्रीकी देशों ने इज़राइल के साथ खेलने से ही इंकार कर दिया है। खासतौर पर ईरान-इजरायल के रिश्तों की तल्खी खेलों के महाकुंभ में भी नजर आ रही है। बीते दिनों इससे जुड़ी कई घटनाएं सामने आईं, जब इजरायल की मुखालफत करने वाले मिडिल ईस्ट और उत्तर अफ्रीकी देशों के खिलाड़ियों ने इजरायल के खिलाड़ी के खिलाफ खेलने से ही इनकार कर दिया. भले ही उन्हें इसके लिए सजा ही क्यों ने भुगतनी पड़ी।

इसकी शुरुआत बीते शनिवार को हुई। जब टोक्यो ओलंपिक में हिस्सा ले रहे अल्जीरिया के एक जूडो खिलाड़ी फ़ेतही नूरीन को सस्पेंड कर दिया गया. दरअसल, अल्जीरियाई खिलाड़ी ने इजरायल के खिलाड़ी तोहार बुटबुल से लड़ने से मना कर दिया था. इसके बाद उन्हें और उनके कोच को सस्पेंड कर दिया गया और टोक्यो से लौटने का आदेश सुना दिया गया. नूरीन को 73 किलो भार वर्ग में इजरायली खिलाड़ी के खिलाफ उतरना था. लेकिन उन्होंने फिलिस्तीन के समर्थन में ऐसा करने से इनकार कर दिया।

अल्जीरियाई मीडिया में उन्हें ये कहते बताया गया कि हमने ओलंपिक के लिए बहुत तैयारी की. मगर फिलस्तीनियों का मुद्दा इससे बड़ा है. इससे पहले नूरीन 2019 में जापान में वर्ल्ड चैंपियनशिप में खेलने पहुंचे थे. मगर वहां भी पहला राउंड जीतने के बाद भी उन्होंने इजराइली खिलाड़ी से लड़ने से इनकार कर दिया था और प्रतियोगिता छोड़ दी थी।

सूडान ने भी इजरायली खिलाड़ी का बहिष्कार किया

सूडान के एक जूडो खिलाड़ी ने भी यही रुख अपनाया और इजरायली खिलाड़ी से लड़ने से इनकार कर दिया और ओलंपिक से खुद ही बाहर हो गया। मोहम्मद अब्दुलरसूल  को भी इजराइल के तोहार बुटबुल का ही सामना करना था. मगर उन्होंने भी इस मुकाबले में उतरने से इनकार कर दिया. इसके बाद अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने सूडान के जूडो खिलाड़ी को बैन कर वापस भेज दिया. सूडान के अब्दुलरसूल का ओलंपिक मैच छोड़ने का कारण भी राजनीतिक और मजहबी बताया जा रहा है।

उत्तर और दक्षिण कोरिया का भी विवाद

ईरान और इजरायल की तरह ही उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच भी सालों पुराना विवाद है. इसका असर ओलंपिक औऱ दूसरे खेल आयोजनों पर भी पड़ता है। हालांकि, टोक्यो गेम्स में ऐसा नहीं हुआ. क्योंकि उत्तर कोरिया कोरोना महामारी के कारण इन खेलों में हिस्सा ही नहीं ले रहा. पहले कई मौकों पर इन दोनों देशों के बीच खराब रिश्तों की कीमत खेल को चुकानी पड़ी है।

मृतप्राय पूर्वी काली नदी को फिर कर दिया जीवित

अगर इच्छा शक्ति हो और इरादों में मजबूती तो म्रतप्राय में जीवन फूंका जा सकता है। नदी पुत्र और नीर फाउंडेशन ने इस कहावत को अपनी मेहनत से सही साबित कर दिया है। कुछ वर्षों पहले पूर्वी काली नदी अपने उद्गम स्थल पर ही म्रतप्राय यानि सूख चुकी थी। इस सुखी नदी को जीवित करने का बीड़ा आज से दो साल पहले उठाया गया था जिसका परिणाम अब जीवंत नदी के रूप में सामने है।  

नदी पुत्र रमन कान्त बताते हैं कि कार्य कठिन था पर असंभव कतई नहीं।  नदी उद्गम की लगभग 200 बीघा (15 हेक्टेयर) कृषि भूमि हमारे प्रयासों के बाद किसानों द्वारा छोड़ी गई और हमने नदी का काम शुरू किया। बक़ौल नदी पुत्र आज मैं और नीर फाउंडेशन की पूरी टीम इस बात से बहुत खुश है कि नदी के उद्गम स्थल के जलाशय हमेशा से भरे पड़े हैं। उन्होने कहा कि  जल्द ही निराशा के बादल छंट जाएंगे और नदी फिर से अपनी गति से बहने लगेगी।

नदी पुत्र ने इस मौके पर नदी को जीवंत करने के प्रयास में योगदान देने वाले  डॉ संजीव कुमार बालियान (केंद्रीय राज्य मंत्री, भारत सरकार), डॉ अनिल जोशी, (संस्थापक HESCO), श्री संजय कुमार (सहारनपुर के पूर्व संभागीय आयुक्त), श्री वीरपाल निर्वाल (जिला पंचायत मुजफ्फरनार के अध्यक्ष), श्री आलोक यादव, (सीडीओ मुजफ्फरनगर, श्री आशुतोष सारस्वत (मेरठ का सिंचाई विभाग), एसडीएम खतौली, प्रधान अंतवाड़ा, श्री मुकेश कुमार (सामाजिक कार्यकर्ता), श्री नवीन कुहाड़, श्री मातरम नगर, इंद्रजीत सिंह, और श्री शुभम कौशिक (सामाजिक कार्यकर्ता) का आभार जताया।

काली नदी का इतिहास

“काली नदी ” नाम की दो नदियाँ हैं। पूर्वी काली नदी मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर, अलीगढ़, एटा तथा फर्रुखाबाद जिलों में होकर बहती है। इसका उद्गम मुजफ्फरनगर जिले में है जहाँ यह ‘नागन’ के नाम से विख्यात है। मुजफ्फरनगर तथा मेरठ जिलों में इसका मार्ग अनिश्चित रहता है। परंतु बुलंदशहर पहुँचकर यह निश्चित घाटी में बहती है तथा वर्ष भर इसमें जल रहता है। यहाँ इसे काली नदी कहते हैं जो ‘कालिंदी’ का पारसी लेखकों द्वारा प्रयुक्त अपभ्रंश रूप है। यहाँ पर इसकी दिशा दक्षिण के बजाय दक्षिण-पूर्व हो जाती है। इसी ओर चलती हुई काली नदी कन्नौज से कुछ पहले ही गंगा में मिल जाती है। बुलंदशहर से एटा तक काली नदी में वर्षा तथा नहर से इतना अधिक जल प्राप्त होता है कि पहले यह भाग बाढ़ग्रस्त हो जाता था। अब सिंचाई विभाग ने इस समस्या का उचित उपाय कर दिया है। एटा जिले में निचली गंगा नहर इस नदी के ऊपर से नदरई ऐक्वेडक्ट द्वारा बहती है। काली नदी की कुल लंबाई ४६० किमी है।

पश्चिमी काली नदी उत्तर प्रदेश के सहारनुपर जिले में शिवालिक से २५ किमी दक्षिण से निकलकर दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिण की ओर सहारनपुर तथा मुजफ्फरनगर जिलों में बहती है। मेरठ जिले की उत्तरी सीमा पर यह हिंडन नदी में समा जाती हैं।

पुण्यतिथि : न फनकार तुझसा, तेरे बाद आया, मुहम्मद रफी तू बहुत याद आया

महान गायक मोहम्मद रफी के गीत आज भी लोगों के जुबान पर हैं। इस अमर गायक ने 41 साल पहले शुक्रवार 31 जुलाई 1980 को अंतिम सांस ली थी। रफी संगीत के प्रति इतने समर्पित थे कि अपने जीवन के आखिरी दिन भी वो गाने को रिकार्ड करने में व्यस्त थे। दयालु इतने कि एक रुपए लेकर भी गाना गाने को तैयार रहते थे। मोहम्मद रफी ने कई भारतीय भाषाओं में कुल 7,405 गाने गाए थे. इनमें 4,334 गाने हिन्दी में गाए थे।

हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर में सिर्फ मुकेश और तलत  मेहमूद ही लोगों के बीच प्रसिद्ध थे। उस वक्त रफी साहब को कोई नहीं जानता था। हालांकि जब नौशाद ने फिल्म बैजू बावरा के लिए रफी साहब को मौका दिया तो उन्होंने कहा था कि, ‘इस फिल्म के साथ ही तुम सबकी जुबां पर छा जाओगे…’इस बात में कोई शक नहीं की उनकी बात एकदम सच निकली।

मोहम्मद रफी ने अपने साथ ही किशोर कुमार की फिल्मों के लिए भी गीत गाए जिनमें ‘बड़े सरकार’, ‘रागिनी’ और कई फिल्में शामिल है। उन्होंने किशोर कुमार के लिए करीब 11 गाने गाए। रफी साहब से जुड़ा एक किस्सा था जो बहुत मशहूर हुआ था। फिल्म ‘नील कमल’ का गाना ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ गाते वक्त रफी साहब की आंखों में आंसू आ जाते थे। इसकी वजह ये थी कि इस गाने के ठीक एक दिन पहले उनकी बेटी की सगाई हुई थी और इसलिए वो बहुत भावुक थे। इस गीत के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

मोहम्मद रफी का जन्म पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव में  24 दिसंबर 1924 को हुआ था। हाजी अली मोहम्मद के परिवार में जन्मे मोहम्मद रफी छह भाई बहनों में दूसरे नंबर पर थे। उन्हें घर में फीको कहा जाता था। गली में फकीर को गाते सुनकर रफी ने गाना शुरू किया था। 1935 में रफी के पिता लाहौर चले गए और वहां भट्टी गेट के नूर मोहल्ले में हजामत बनाने का काम शुरू किया।

रफी के निधन से कुछ दिन पहले ही कोलकाता से कुछ लोग उनसे मिलने पहुंचे थे। वो चाहते थे कि रफी काली पूजा के लिए गाना गाएं। जिस दिन रिकॉर्डिंग थी उस दिन रफी के सीने में बहुत दर्द हो रहा था लेकिन उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया। हालांकि रफी बंगाली गाना नहीं गाना चाहते थे लेकिन फिर भी वो रिकॉर्डिंग में व्यस्त रहे। वो दिन उनकी जिंदगी का आखिरी दिन था। हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया था।

जलवायु समस्या के समाधान को सेंटर बनाएगा आईआईटी कानपुर

  • ऊर्जा नीति और जलवायु समाधान के लिए पूर्व छात्र के साथ केसवन केंद्र अनुबंध

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर (आई आई टी)जलवायु परिवर्तन की समस्याओं के व्यावहारिक समाधान के साथ नीति निर्माताओं की सहायता के लिए ‘चंद्रकांता केसवन सेंटर फॉर एनर्जी पॉलिसी एंड क्लाइमेट सॉल्यूशंस’ की स्थापना की है।

पेरिस जलवायु समझौते के एक हस्ताक्षरकर्ता के रूप में भारत को उत्सर्जन को कम करने और स्थायी रूप से बढ़ने के लिए अनुकूलन और प्रौद्योगिकियों को लागू करने की आवश्यकता होगी। केंद्र का उद्देश्य भारत और दुनिया को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने के लिए प्रौद्योगिकी और नीतिगत समाधानों के विकास का नेतृत्व करना होगा। इस केंद्र को स्थापित करने के लिए एक समझौते पर 15 जुलाई, 2021 को IIT कानपुर और IIT कानपुर से 1976 की कक्षा के पूर्व छात्र सुधाकर केसवन के बीच हस्ताक्षर किए गए थे।

केंद्र का नाम उनकी मां डॉ. चंद्रकांता केसवन की याद में रखा गया है, जो विज्ञान में भारतीय महिलाओं के लिए एक आदर्श थीं। उन्होंने 1942 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ध्वनिक भौतिकी में पीएचडी प्राप्त की, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में फुलब्राइट पोस्ट-डॉक्टरेट विद्वान थीं और ऑल इंडिया रेडियो, भारत के राष्ट्रीय प्रसारक में एक अग्रणी ध्वनिक इंजीनियर और प्रशासक के रूप में काम किया। उनकी जीवनी इस रिलीज़ के साथ संलग्न है। सुधाकर और अलका केसवन(पुत्र/पुत्रवधू) ने केंद्र की विभिन्न गतिविधियों को समर्थन देने के लिए 2.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर देने का वादा किया है।

केमिकल इंजीनियरिंग में बी.टेक डिग्री के साथ स्नातक करने के बाद सुधाकर केसवन ने आईआईएम अहमदाबाद से पीजीडीएम और एमआईटी में प्रौद्योगिकी और नीति कार्यक्रम से एमएस पूरा किया। उन्होंने 20 से अधिक वर्षों तक आईसीएफ इंटरनेशनल (www.icf.com) के अध्यक्ष और सीईओ के रूप में कार्य किया। 7000 से अधिक कर्मचारियों के साथ आईसीएफ चार व्यापक क्षेत्रों ऊर्जा और पर्यावरण, स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यक्रमों, आपदा प्रबंधन, और डिजिटल परिवर्तन और प्रौद्योगिकी सेवाओं में विशेषज्ञता वाली दुनिया की सबसे बड़ी विशेषता परामर्श फर्मों में से एक है। वह संयुक्त राज्य अमेरिका में कई गैर-लाभकारी और निगमों के बोर्डों में कार्य करता है।

केंद्र आई आई टी कानपुर के भीतर एक स्वायत्त संगठन होगा। इसे स्थायी ऊर्जा इंजीनियरिंग विभाग में शामिल किया जाएगा और इसके साथ मिलकर काम करेगा। केंद्र शैक्षिक दुनिया के बाहर बड़े पैमाने पर देश में प्रौद्योगिकी और विज्ञान आधारित समाधानों को लागू करने के उद्देश्य से नीति, संचार, शिक्षा और आउटरीच प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करेगा। केंद्र इन मुद्दों पर चर्चा और समाधान के लिए दुनिया भर के प्रख्यात शिक्षाविदों, प्रौद्योगिकीविदों, शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं को एक साथ लाने का एक मंच बन जाएगा।

केंद्र के शुभारंभ पर, श्री केशवन ने कहा, “मैं आईआईटी कानपुर का बहुत बड़ा ऋणी हूं। आईआईटी कानपुर में मैंने जो पांच साल बिताए, वे हर तरह से एक असाधारण अनुभव थे। शैक्षिक अनुभव समृद्ध था, संकाय(फैकल्टी) असाधारण थे और मेरे सहपाठियों के साथ दोस्ती के बंधन आज भी उतने ही मजबूत हैं जितने तब थे। मैं जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रभावशाली पहल करने में संस्थान के प्रयासों का हिस्सा बनकर सम्मानित महसूस कर रहा हूं। मेरा मानना है कि चंद्रकांता केसवन सेंटर फॉर एनर्जी पॉलिसी एंड क्लाइमेट सॉल्यूशंस नीति, संचार, शिक्षा और आउटरीच प्रयासों में एक नया आयाम जोड़ेगा ताकि प्रौद्योगिकी और विज्ञान आधारित समाधान समाज में प्रभावी ढंग से लागू किए जा सकें। मेरा मानना है कि ऊर्जा प्रौद्योगिकी, अपनाने की रणनीतियों के साथ-साथ नीति और जलवायु मुद्दों पर डीकार्बोनाइजेशन से संबंधित मामलों पर समाधान और सलाह मांगने वालों के लिए केंद्र पसंदीदा स्थान होगा। मुझे इस बात की भी बहुत खुशी है कि सस्टेनेबल एनर्जी इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख प्रोफेसर आशीष गर्ग पहले केंद्र समन्वयक के रूप में काम करने के लिए सहमत हुए हैं।

आईआईटी कानपुर के निदेशक प्रोफेसर अभय करंदीकर ने कहा, “स्थायी ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते महत्व के दौर में, यह केंद्र भारत और दुनिया को ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन में चुनौतियों से निपटने में मदद करने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी और नीतिगत समाधानों को बढ़ावा देगा और विकसित करेगा। सतत विकास के लिए आईआईटी कानपुर की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने के लिए मैंने केंद्र से अगले पांच वर्षों के भीतर आईआईटी कानपुर को कार्बन न्यूट्रल बनने के लिए एक योजना विकसित करने के लिए कहा है। केंद्र का व्यापक उद्देश्य निम्न कार्बन समाधान विकसित करना, एक उपयुक्त नीतिगत ढांचे के निर्माण के लिए ज्ञान प्रदान करना और एक स्थायी जीवन प्राप्त करने की दिशा में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों को कम करने में मदद करने के लिए विभिन्न हितधारकों से जुड़ना है। केंद्र नीति निर्माताओं और प्रौद्योगिकीविदों के लिए संसाधन केंद्र के रूप में भी काम करेगा।

चंद्रकांता केशवन (1918-2004) के बारे में

चंद्रकांता केसवन (विवाहपूर्व चंद्रकांता नारायण), का जन्म 1918 में हुआ था। वह लड़कियों की पहली पीढ़ी में से एक थीं, जो घर पर निजी तौर पर शिक्षित होने के बजाय स्कूल जाती थीं। उन्होंने दिल्ली के शाहजहाँनाबाद में जामा मस्जिद के बगल में स्थित इंद्रप्रस्थ गर्ल्स स्कूल में पढ़ाई की।

उन्होंने पंद्रह साल की उम्र में स्कूल की पढ़ाई पूरी की और फिर सिविल लाइंस के बगल में शहर के बाहरी किनारे पर कश्मीरी गेट में हिंदू कॉलेज में पढ़ाई शुरू की। यह 1933 की बात है, हिंदू कॉलेज, दिल्ली का वह कॉलेज था, जिसने महिलाओं को बी.एससी.डिग्री में प्रवेश की अनुमति दी थी, क्योंकि विज्ञान को पुरषों के लिए संरक्षण के रूप में देखा जाता था। उस वक़्त उनकी कक्षा में सिर्फ एक और लड़की थी और उनके व्याख्याता(फैकल्टी) उनकी उपस्थिति से इतने शर्मिंदा होते थे कि उन्होंने उनकी ओर देखने या उनके प्रश्नों को लेने से इनकार कर दिया था।

अपनी स्नातक की डिग्री पूरी करने के बाद, वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भौतिकी में मास्टर डिग्री करने के लिए वाराणसी चली गईं, जिसकी स्थापना उनके जन्म से दो साल पहले 1916 में हुई थी। वहां से वो 1938 में भौतिकी में डॉक्टरेट के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय चली गईं। विश्वविद्यालय ने देश में सबसे प्रतिष्ठित भौतिकी विभाग की मेजबानी की, जिसमें संकाय(फैकल्टी) समूह में डॉ मेघनाद साहा और डॉ के.एस. कृष्णन शामिल थे । उनके शोध का क्षेत्र ध्वनिक भौतिकी था। उनके शोध प्रबंध के लिए उनके मौखिक परीक्षा परीक्षकों में से एक, नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी.वी. रमन थे । 

अपनी पीएचडी पूरी करने के बाद, उन्होंने लाहौर के एक महिला कॉलेज में लेक्चरर के रूप में साक्षात्कार दिया और नौकरी प्राप्त की, जहाँ उन्होंने दो साल तक पढ़ाया। 1952 में उन्हें कैम्ब्रिज में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, एमए में डॉक्टरेट के बाद के काम के लिए उन्हें फुलब्राइट फेलोशिप से सम्मानित किया गया। ऑल इंडिया रेडियो में अपने काम पर लौटने से पहले उसने एक साल अमेरिका में काम किया और यात्रायें की। उन्होंने तीन दशकों से अधिक समय तक दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर विमेन के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में कार्य किया।

टोक्यो ओलंपिक : मैरी कॉम की निराशाजनक विदाई के बाद लवलीना ने भारत का पदक किया पक्का

मैरी कॉम की अपने करियर के आखिरी ओलंपिक में निराशाजनक विदाई हुई। हालांकि इस निराशा को उनकी ही जूनियर बाक्सर लवलीना बोरगोहेन ने आशा से भर दिया है। उनको जीत के साथ यह सुनिश्चित कर दिया है कि भारत को टोकयो ओलंपिक में दूसरा पदक भी मिलेगा। लवलीना बोरगोहेन मैरी कॉम और विजेंदर सिंह के बाद मुक्केबाजी में ओलंपिक पदक जीतने वाली तीसरी भारतीय बन गई हैं। वह सिर्फ 23 साल की हैं, लेकिन ताइवान की पूर्व विश्व चैंपियन चेन के खिलाफ उनका कंपटीशन कमाल का था। लवलीना ने ताइवान की पूर्व विश्व चैंपियन चेन निएन-चिन को हराकर महिला वेल्टरवेट सेमीफाइनल में प्रवेश किया।

ओलंपिक 2020 के वूमेंस वेल्टर वर्ग में भारत की लवलीना बोर्गोहेन ने आखिरकार देश के लिए एक और पदक पक्का कर दिया है। उन्होंने चाइनीज ताइपे चेन निएन-चिन को क्वार्टरफाइनल में मात देकर सेमीफाइनल में जगह बना ली है ।इसके साथ ही लवलीना ने भारत के पदक की ओर कदम बढ़ा दिया। बॉक्सिंग में क्वार्टर फाइनल जीतने का मतलब है कि कम से कम कांस्य पदक पक्का हो जाता है। उधर मैरी कॉम की विदाई ओलंपिक से हो गई है। ये उनका आखिरी ओलंपिक था, वे कोलंबिया की इंग्रिट वालेंसिया के खिलाफ राउंड ऑफ 32 में हार गईं। यह मुकाबला टक्कर का था। हारने के एक दिन बाद, भारत की मुक्केबाज एमसी मैरी कॉम इस बारे में स्पष्टीकरण मांग रही हैं कि उन्हें क्वार्टर फाइनल मुकाबले से एक मिनट पहले रिंग ड्रेस बदलने के लिए क्यों कहा गया।

पाक पीएम ने तालिबान को कहा आम नागरिक, अमेरिकी पत्रिका ने बताया भारतीय फोटो जर्नलिस्ट का हत्यारा

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भले ही तालिबान को आम नागरिक बता रहे हों लेकिन तालिबान का वीभत्स चेहरा सामने आ रहा है। अमेरिकी मैगजीन ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है है फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की निर्मम हत्या की गई थी। वॉशिंगटन एग्जामिनर नाम की मैगजीन में पब्लिश एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय फोटोग्राफर की मौत क्रॉस फायरिंग में नहीं हुई, बल्कि तालिबान के आतंकियों ने उनकी हत्या की थी। इससे पहले यह जानकारी सामने आई थी कि पुलित्जर अवॉर्ड विजेता दानिश की 16 जुलाई को तालिबान और अफगान सेना की क्रॉस फायरिंग में मौत हो गई थी। वे रॉयटर्स की ओर से इस संघर्ष को कवर कर रहे थे।

मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया था कि दानिश पाकिस्तान से सटे इलाके में अफगान बलों के साथ थे। तभी उन पर तालिबान के आतंकवादियों ने घात लगाकर हमला कर दिया था। मैगजीन के मुताबिक, सिद्दीकी की मौत के हालात अब साफ हैं। वह सिर्फ फायरिंग में नहीं मारे गए थे। तालिबान ने उनकी बेरहमी से हत्या की थी।

हमले के दौरान सेना की यूनिट से अलग हो गए थे दानिश

रिपोर्ट के मुताबिक, अफगान अधिकारियों ने बताया था कि दानिश अफगान नेशनल आर्मी की एक टीम के साथ स्पिन बोल्डक एरिया में गए थे। यहां तालिबान के साथ अफगान सेना का जोरदार संघर्ष चल रहा है। इसी दौरान तालिबान आतंकियों ने हमला कर टीम को दो हिस्सों में बांट दिया। दानिश, अफगान कमांडर और तीन अफगान सैनिक बाकी यूनिट से अलग हो गए। इस हमले के दौरान दानिश को छर्रे लगे थे। इसलिए वह और उनकी टीम एक स्थानीय मस्जिद में चले गए। वहां उनका इलाज किया गया। हालांकि, जैसे ही यह खबर फैली कि एक पत्रकार मस्जिद में है, तालिबानी आतंकी वहां पहुंच गए। जांच से पता चला है कि तालिबान ने दानिश की मौजूदगी के कारण ही मस्जिद पर हमला किया था।

विशेष : परमाणु युद्ध का खतरा पैदा करता चीन

आनन्द अग्निहोत्री

हमें इस बात की खुशफहमी हो सकती है कि सीमा पर विवाद की स्थिति में हम अब चीन को खदेड़ देते हैं। हमारे देश का नेतृत्व इतना प्रभावशाली हो गया है कि उसके सामने चीन को झुकना पड़ता है लेकिन एक कॉमर्शियल सैटेलाइट से भेजी गयी तस्वीरों से जो खुलासा हुआ है, वह भारत के लिए तो चौंकाने वाला है ही, पूरी दुनिया के लिए बड़ा खतरा बनता नजर आ रहा है। यह खतरा है चीन जो अंतर महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल से परमाणु हथियार दागने के लिए अपने दो रेगिस्तानों में अंडरग्राउंड ठिकाने बना रहा है। तस्वीरें बयां करती हैं कि दोनों ही रेगिस्तानों में गहरे गड्ढे खोदे जा रहे हैं। वस्तुत: रेगिस्तान में गड्ढे खोदना किसी रचनात्मक प्रोजेक्ट का हिस्सा तो हो नहीं सकता। निश्चित रूप से ये गड्ढे किसी खौफनाक इरादे को लेकर खोदे जा रहे हैं। बताते हैं कि इन गड्ढों में आईसीबीएम तैनात की जा रही हैं जिनसे परमाणु हथियार दागे जा सकें। रबड़ से ढके इन गड्ढों को साइलो कहते हैं और जहां ये गड्ढे बनाये जा रहे हैं, उन्हें साइलोज ग्राउंड।

सवाल यह है कि जब जमीन से मिसाइलें दागी जा सकती हैं तो चीन को साइलो बनाने की जरूरत क्यों महसूस हुई। वह इस तरह की खतरनाक तैयारियां क्यों कर रहा है। कभी दुनिया की दो महाशक्तियों  अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच परमाणु हथियार बनाने की होड़ चल रही थी। दोनों देशों ने इसके भयावह परिणामों को समझा और 1 जुलाई 1968 को परमाणु अप्रसार संधि की जिसके तहत सीमित संख्या में ही परमाणु हथियार रखने थे। दुनिया में यह होड़ न बढ़े, इसके लिए अन्य देशों को भी इसमें शामिल करना शुरू किया गया। अब तक 190 से ज्यादा देश इस संधि पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। इनमें चीन भी शामिल है। इसके बाद अमेरिका और रूस के बीच वर्ष 2010 में न्यू स्टार्ट संधि हुई जो दोनों देशों के परमाणु हथियारों पर लगाम लगाने के लिए है। हाल ही में इसकी अवधि पांच वर्ष के लिए और बढ़ा दी गयी है। जाहिर है दोनों महाशक्तियां परमाणु हथियारों की संख्या सीमित ही रखना चाहती हैं। वहीं चीन न केवल परमाणु हथियार बढ़ा रहा है अपितु इनके इस्तेमाल के नये-नये तरीके भी ईजाद कर रहा है। साइलो उसकी नयी ईजाद है। वस्तुत: चीन का मानना है कि जमीन पर तैनात मिसाइलें दुनिया की निगाह में होती हैं और किसी भी जंग के समय इन्हें तबाह किया जा सकता है। लेकिन अंडरग्राउंड मिसाइलों को नष्ट करना इतना आसान नहीं होगा।

इसी सोच के तहत उसने दो साइलोज ग्राउंड तैयार किये हैं। एक ग्राउंड है चीन के उत्तर पश्चिमी प्रांत यूमेन के पास रेगिस्तान जो सैकड़ों किलोमीटर लम्बा-चौड़ा है। यहां अब तक तकरीबन 110 साइलो तैयार किये जा चुके हैं। दूसरा ग्राउंड है यूमेन से 500 किलोमीटर दूर हामी का रेगिस्तान। इस मैदान में भी 100 के करीब साइलोज तैयार किये जा चुके हैं। यहां जो अंतर्महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल तैनात की जा रही हैं, उनकी मारक क्षमता 5,500 किलोमीटर से ज्यादा की है। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो इनकी रेंज में समूचा भारत तो है ही, दुनिया का काफी हिस्सा इनकी मारक क्षमता में आ जाता है। यानि चीन की यह करतूत पूरी दुनिया के लिए खतरा बनकर उभरने वाली है।

हाल ही में तलाशा गया यह साइलो फील्ड चीन के झिंजियांग क्षेत्र के पूर्वी हिस्से में है। यह इलाका हामी शहर में चीन के कुख्यात रीएजुकेशन शिविरों से ज्यादा दूर नहीं है। पिछले हफ्ते द फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट ने ‘प्लैनेट लैब्स सैटेलाइट्स’ की तस्वीरों के जरिए इसकी पहचान की। फेडरेशन ने ये तस्वीरें न्यूयॉर्क टाइम्स से भी शेयर की हैं। यह हामी शहर से 60 किमी दक्षिण-पश्चिम में उइगर मुसलमानों के लिए बनाए गए सरकारी रीएजुकेशन सेंटर के करीब है। इन सेंटर्स में उइगर मुसलमानों को कट्टरता से बाहर निकालने के नाम पर कैद में रखा जाता है। अगर अमेरिकी विशेषज्ञों की मानें तो चीन ने इन साइलोज पर पर्दा डालने की कोई कोशिश तक नहीं की है। सम्भवत: उसका स्वयं का इरादा दुनिया में इनके प्रदर्शन का है ताकि पूरी दुनिया जान सके कि चीन कितना ताकतवर है। यह प्रदर्शन कर आखिर चीन क्या संदेश देना चाहता है। अभी तक अमेरिका और रूस को ही सुपर पावर के रूप में स्वीकार किया जाता है। आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में चीन स्वयं को किसी से कम नहीं समझता लेकिन अभी यह स्वीकार्य नहीं है। उसका यह कदम सम्भवत: इसी लक्ष्य को लेकर है कि अमेरिका और रूस भी इस बात को मान सकें कि चीन किसी से कम नहीं है और बाकी देश भी उसके आगे नतमस्तक हों।

इसके परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं, चीन का इससे कोई लेना-देना नहीं। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग संविधान में संशोधन कराकर स्वयंभू आजीवन राष्ट्रपति बन बैठे हैं। उनके कदमों पर उनके देश में कोई सवालिया निशान नहीं लगा सकता। उनका एकमात्र सर्वोपरि इरादा सुपर पावर बनने का है। उनकी इस कोशिश का परिणाम क्या होगा, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। यह ठीक है कि अमेरिका और रूस परमाणु हथियारों के मामले में स्वयं के साथ शेष दुनिया को भी संयमित करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अगर चीन इस तरह की बेजां हरकत करता है तो वे मूकदर्शक की तरह तो नहीं देखते रहेंगे। खासकर रूस जिसकी सीमाएं चीन से सटी हुई हैं, वह कुछ न कुछ तो जरूर जवाबी तैयारी करेगा। नतीजा क्या होगा, एक बार फिर परमाणु हथियार तैयार करने की होड़ शुरू होना। चीन ने जो मिसाइलें तैनात की हैं, वह सिर्फ प्रदर्शन के लिए नहीं हैं। जरूरत पड़ने पर वह इनका इस्तेमाल करेगा और इसके लिए जरूरत होगी परमाणु हथियारों की जो वह तेजी के साथ तैयार करेगा। अगर चीन परमाणु हथियार बनाने की मनमानी करेगा तो अन्य देश भी शक्ति संतुलन के लिए इस होड़ में शामिल होंगे ही। इन हालात में परमाणु अप्रसार संधि और न्यू स्टार्ट संधि के कोई मायने नहीं रह जायेंगे। दुनिया में एक बार फिर परमाणु हथियार निर्माण की होड़ शुरू हो जायेगी और महाविध्वंस का खतरा सामने आ जायेगा। चीन की जो नीतियां हैं, उनमें सबसे प्रमुख है विस्तारवाद। वह अपने देश का विस्तार करने के लिए हर हिकमत का इस्तेमाल करता आ रहा है। भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में उसकी गतिविधियां इसका प्रमाण हैं। हिन्द महासागर के साथ वह प्रशांत महासागर में भी स्वयं को स्थापित करना चाहता है। इसके लिए वह तरह-तरह की चालें चल रहा है। चीन की इन गतिविधियों को अमेरिका और रूस खामोश देखते रहें, ऐसा तो मुमकिन नहीं। अगर वे सक्रिय हुए तो नये सिरे से परमाणु युद्ध खतरा पैदा हो जायेगा। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए अमेरिकी अणु बम हमले का असर कितना भयानक था, सभी जानते हैं। अब जो परमाणु युद्ध होगा उसके नतीजे कल्पना से परे होंगे।

कविता : प्रेम का नाजुक ख्याल

कवि : जी पी वर्मा

प्रेम का नाज़ुक-
ख़याल!
बेबाकी से-
सप्त स्वरों की-
झंकार सा –
नीलाम्बर मे-
झिलमिल-
तारा किरणों की-
अटूट पाँति सा लहराए!
धरा से नभ-
नभ से ब्रह्मांड तक-
हर तरफ गहराए!!
मेरे, तुम्हारे –
हम सबके लिए –
जीवन वंशी-
नफरत नहीं-
प्रेम गीत गाए-
इंद्रधनुषी छटा बिखराये-
तो कितना अच्छा हो!!!