मनीष शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार
याद कीजिये वो दिन अभी ज्यादा दूर नहीं गए हैं जब कांग्रेस के युवराज कहे जाने वाले राहुल गांधी के एक तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया खड़े होते थे तो दूसरी ओर जितिन प्रसाद होते थे। आपस में चुहलबाजी भी होती थी और आँखों ही आँखों भी होता था। पर समय का चक्का कुछ ऐसा घूमा कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से बारी बारी से सारे करीबी साथ छोडते जा रहे हैं। अगर आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो 2016 से लेकर अब तक देश भर में 170 से अधिक कांग्रेसी विधायक पार्टी का दामन छोड़ चुके हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटाने की ताल ठोंक रहे राहुल गांधी के लिए 2024 के चुनावी महा संग्राम की राह और मुश्किल होती दिख रही है।
अगले साल 2022 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने का सिलसिला कोई अनोखी बात नहीं है लेकिन पिछली तीन पीढ़ियों की कांग्रेसी विरासत संभालने वाले जितिन प्रसाद का भाजपा में जाना राहुल गांधी के राजनैतिक भविष्य के जरूर खतरे की घंटी है। जब कांग्रेस सत्ता में थी तो राहुल गांधी ने अपने दोस्त जितिन प्रसाद को क्या नहीं दिया। सांसद से लेकर केंद्रीय मंत्री का सफर तय करवाया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का तेजी से उभरता हुआ युवा चेहरा बनवाया। इसके बदले जितिन ने संकट के दौर में चल रही पार्टी का दमन छोड़ दिया। इसका कारण भी खुद जितिन प्रसाद ने ही बताया है। देखा जाए तो जितिन प्रसाद का अभी 30-35 साल का राजनीतिक करियर बाकी है। हालांकि उन्होने भाजपा ज्वाइन करते हुए कहा कि अब उनको कांग्रेस में अपना भविष्य नहीं नजर आ रहा था। साफ बात है कि पिछले दो वर्षों से स्थायी अध्यक्ष को तलाश रही कांग्रेस अपने युवा नेताओं को न तो दिशा दे पा रही है और न ही नेतृत्व का भरोसा दे पाई। टीम राहुल में शामिल ज्योतिरादित्य हों या फिर जितिन प्रसाद, उनकी महत्वाकांक्षा को उम्मीद के पंख लगाने में पार्टी फेल रही। 2015 में आसाम के बड़े कांग्रेसी नेता हेमंत विसवा सरमा ने महज 46 साल की उम्र पार्टी छोड़ दी क्योंकि कांग्रेस भरोसा नहीं दे पाई कि तरुण गोगोई के मुख्यमंत्री रहते हुए उनकी महत्वाकांक्षा को पूरा कर पाएगी। भाजपा ने न सिर्फ उनको भरोसा दिया बल्कि उनकी महत्वाकांक्षा को पूरा करते हुए आसाम का मुख्यमंत्री भी बनाया। सरमा ने भी अपनी क्षमता को प्रदर्शित करते हुए भाजपा की राज्य की सत्ता में वापसी कारवाई। यही हाल मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ किया। नतीजा राहुल गांधी के सखा ज्योतिरादित्य ने भी 2020 में कांग्रेस छोड़ दी और भाजपा की सत्ता में वापसी के लिए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज वो भाजपा से राज्यसभा सदस्य है। राजस्थान में यही बर्ताव सचिन पाइलेट के साथ हो रहा है। वो लगातार अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को चुनौती दे रहे हैं। हालांकि उनकी बात सुनने में हाई कमान अब तक असमर्थ रहा है। ऐसे में देर सबेर अगर वो भी पार्टी विरोधी कदम उठाएँ तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सिर्फ इन तीन युवा नेताओं की बात क्यों की जाए वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने भी कांग्रेस का साथ छोडकर भाजपा का दामन थाम लिया। उत्तर प्रदेश की दिग्गज कांग्रेसी नेता रीता बहुगुणा जोशी हों या फिर हरियाणा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरेंद्र चौधरी हों, नारायण राणे, जगदंबिका पाल, विजय बहुगुणा, अलपेश ठाकुर जैसे दिग्गज कांग्रेसियों ने खुद को पार्टी से अलग करने में अपनी भलाई समझी। इसका कारण था समय रहते कांग्रेस ने अपने भीतरी हालातों की अनदेखी की और यथा स्थिति बनाए रखना ज्यादा उचित समझा। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हार के कारणों को उजागर करने वाली एके एन्टोनी समिति की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दी गई। जब जी-23 समूह ने पार्टी आलाकमान को पत्र लिखा तो उसे विरोध की संज्ञा दी जाने लगी। अब वो सिद्धांतों वाली राजनीति का युग तो है नहीं कि निस्वार्थ भाव से पार्टी की सेवा होती रहे। राजनीति में करियर की चाह रखने वाले अपने लिए पद और प्रतिष्ठा खुद हासिल करने के लिए पार्टी छोडने में भी गुरेज नहीं करते हैं। राजनीति के इस दौर में दो वर्षों तक स्थायी अध्यक्ष न चुन पाना कांग्रेस नेतृत्व की विफलता रही। तो भाजपा ने कांग्रेस से आने वाले नेताओं को न सिर्फ मोदी के नेतृत्व का भरोसा दिया बल्कि पार्टी और सत्ता में समायोजित भी किया। ऐसे में अगर टीम राहुल के सदस्यों ने ही कांग्रेस से किनारा कर लिया तो उसमें बहुत कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। अब अगर कांग्रेस को इस दौर से निकालकर 2024 के चुनाव में मोदी सरकार को चुनौती देनी है तो न सिर्फ ए के एन्टोनी की रिपोर्ट बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय में आई उमा शंकर दीक्षित कमेटी की रिपोर्ट पर भी विचार करना होगा जिसमें आज से लगभग 35 साल पहले बताया गया था कि पार्टी दलालों और चाटुकारों से घिर चुकी है। इन रिपोर्टों पर मंथन करने के साथ ही 2024 के चुनाव से पहले अगले साल होने जा रहे उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधान सभा चुनाव के लिए भरोसेमंद और स्थायी नेतृत्व देना होगा। इसके साथ पार्टी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की भूमिका तय करके दोनों की टीमों को समाहित करना होगा। तभी कांग्रेस का भला हो पाएगा वरना कांग्रेस ही डूबती नैया से सवार यूं ही उतरते जाएंगे।