Monday, September 16, 2024
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विवाह की आयु 21 वर्ष : बेटियों के हक में फैसले

अरविंद जयतिलक

यह उचित है कि केंद्र सरकार ने लड़कियों के विवाह की न्यूनतम कानूनी आयु को 18 साल से बढ़ाकर पुरुषों के बराबर 21 साल करने के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है। अब सरकार इस प्रस्ताव को अमलीजामा पहनाने के लिए बाल विवाह (रोकथाम) कानून 2006 को संशोधित करने संबंधी विधेयक को संसद के मौजूदा सत्र में पेश कर सकती है। उल्लेखनीय है कि सरकार ने यह फैसला पूर्व सांसद जया जेटली की अगुवाई वाले टास्क फोर्स की सिफारिश पर की है जिसे तैयार करने में सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी विविध पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया गया है। देखें तो बदलते दौर में लड़के और लड़कियों के विवाह की आयु में तीन साल के अंतर को बनाए रखना कहीं से भी जायज और तर्कपूर्ण नही था। आयु का यह अंतर न सिर्फ लैंगिक समानता को मुंह चिंढ़ाने वाला था बल्कि लड़कियों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा था। यह किसी से छिपा नहीं है कि 18 वर्ष की उम्र पार करते ही अधिकांश लड़कियों को विवाह हो जाता है जिस कारण उनकी शिक्षा बुरी तरह प्रभावित होती है। इसी तरह कम उम्र में विवाह के कारण लड़कियों को स्वास्थ्य संबंधी कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कम उम्र में गर्भाधान के कारण प्रसव के समय जान का जोखिम के साथ मातृ मृत्यु दर में इजाफा होता है। गत वर्ष पहले सरकारी संस्था नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि शहरों में 20 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों में हर सातवें गर्भधारण का अंत गर्भपात के रुप में होता है। 20 साल से कम उम्र की शहरी युवतियों में गर्भपात का रुझान राष्ट्रीय औसत के मुकाबले काफी अधिक है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भपात का फीसद 2 तथा शहरी क्षेत्रों में 3 है। 20 साल से कम उम्र की शहरी युवतियों में गर्भपात 14 फीसद तक है जबकि गांवों में 20 साल से कम आयुवर्ग में गर्भपात का प्रतिशत मात्र 0.7 है। अगर दूसरे आयु वर्ग की महिलाओं पर नजर दौड़ाएं तो गर्भपात का फीसद इतना अधिक नहीं है। मसलन 30 से 34 वर्ष उम्र की शहरी महिलाओं में गर्भपात का फीसद सिर्फ 4.6 है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 2.9 है। इसी तरह 35 से 39 वर्ष उम्र की शहरी महिलाओं में गर्भपात का फीसद 2.0 जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 5.4 है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि शहरों में तो कम लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी असुरक्षित गर्भपात कराए जा रहे हैं जिसकी कीमत युवतियों को जान देकर चुकानी पड़ रही है। 21 वर्ष से कम उम्र के कारण शिशु मृत्यु दर और अस्वस्थता दर में भी वृद्धि हो रही है। इसके अलावा घरेलू हिंसा, लिंग आधारित हिंसा, बच्चों के अवैध व्यापार, लड़कियों की बिक्री में वृद्धि, बच्चों द्वारा पढ़ाई छोड़ने की आंकड़ों में वृद्धि, बाल मजदूरी और कामकाजी बच्चों का शोषण तथा लड़कियों पर समय से पहले जिम्मदारी संभालने का दबाव भी बढ़ रहा है। चिकित्सकों की मानें तो 21 वर्ष से कम उम्र में विवाह के कारण शिशु को जन्म देते वक्त दुनिया भर में होने वाली कुल मौतों में 17 फीसद मौतें अकेले भारत में होती है। कम उम्र में विवाह से प्रसव के दौरान इन महिलाओं में 30 फीसद रक्तस्राव, 19 फीसद एनीमिया, 16 फीसद संक्रमण, और 10 फीसद अन्य जटिल रोगों की संभावना बढ़ जाती है। यहीं नहीं वे गंभीर बीमारियों की चपेट में भी आ जाती हैं। सेव द चिल्ड्रेन संस्था की मानें तो भारत मां बनने के लिहाज से दुनिया के सबसे खराब देशों में शुमार है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत में प्रत्येक वर्ष गर्भधारण संबंधी जटिलताओं के कारण और प्रसव के दौरान तकरीबन 5 लाख से अधिक महिलाएं दम तोड़ती हैं जिसका एक प्रमुख वजह कम उम्र में विवाह है। बहरहाल अब लड़कियों की विवाह की कानूनी आयु 21 वर्ष होने से उनकी शिक्षा एवं स्वास्थ्य में बाधा नहीं आएगी तथा लैंगिक विषमता की चौड़ी होती खाई भी पाटी जा सकेगी। वैसे भी विचार करें तो भारतीय संविधान में शिक्षा, सेवा, राजनीति इत्यादि सभी क्षेत्रों में पुरुषों व महिलाओं को बराबर के अधिकार दिए गए हैं। भारतीय संविधान में लैंगिक असमानता को मिटाने यानी समानता को बल प्रदान करने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर महिलाओं से भेदभाव नहीं किया जा सकता। दो राय नहीं कि इन संवैधानिक प्रावधानों और गत वर्षों में हुए सरकारी प्रयासों के परिणामस्वरुप भारत में लैंगिक विभेद में कमी आयी है। उसके सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देश के विभिन्न राज्यो की पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया है। इस पहल से पंचायतों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है। हाल ही में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में संपन्न हुए पंचायत चुनाव में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं पंच परमेश्वर चुनी गयी हैं। 53.7 फीसद पंचायतों में सत्ता अब महिलाओं के हाथों में है। राज्य में ग्राम प्रधान के 58,176 पदों पर चुनाव हुए जिसमें 31,212 पदों पर महिलाओं ने जीत हासिल की हैं। लेकिन एक कड़ुवा सच यह भी है कि जीवन के बहुतेरे क्षेत्र अब भी ऐसे हैं जहां बेटियों की हिस्सेदारी नाममात्र की है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों, व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में अभी भी बेटियों की मौजूदगी कम है। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे (एआईएसएचई) की रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों और व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में बेटियों का नामांकन शैक्षणिक पाठ्क्रमों की तुलना में कम है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी सर्वे रिपोर्ट 2019-20 के मुताबिक छात्राओं की मौजूदगी राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में सबसे कम 24.7 फीसद, सरकारी डीम्ड विश्वविद्यालयों में 33.4 फीसद और राज्य एवं निजी विश्वविद्यालयों में 34.7 फीसद है। वहीं राज्य विधान अधिनियम के तहत आने वाले संस्थानों में छात्राओं की भागीदारी 61.2 फीसद, राज्य की सरकारी विश्वविद्यालयों में 50.1 फीसद और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 48.1 फीसद रही है। गौर करें तो यह आंकड़ा छात्रों के मुकाबले कम है जो एक किस्म से लैंगिक भेदभाव की दीवार को मजबूत करता है। आर्थिक उपक्रमों में भागीदारी की बात करें तो देश के सिर्फ 13.8 प्रतिशत कंपनी बोर्ड में महिला प्रतिनिधित्व है। इसी तरह केवल 14 प्रतिशत महिलाएं नेतृत्वकर्ता की भूमिका में हैं। श्रम के क्षेत्र में नजर दौड़ाएं तो यहां भी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का प्रतिनिधित्व दयनीय है। प्रशासनिक नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़े बताते हैं कि आईएएस में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 20 फीसद से कम है जबकि बैंकों में 22 प्रतिशत के आसपास है। इसी तरह संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी कम है। लोकसभा में कुल महिला सदस्यों की संख्या 79 है जो कुल सदस्यों के 15 फीसद के आसपास है। इसी तरह राज्यसभा में महिलाओं की संख्या 25 है यानी 10 फीसद है। अच्छी बात है कि पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए विस्तार के बाद अब मंत्रिमंडल में कुल महिला मंत्रियों की संख्या 11 हो गयी है। लेकिन विचार करें तो यह अभी भी पुरुषों के मुकाबले कम है। डब्ल्यूईएफ (वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम) ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के अनुसार भारत राजनीतिक सशक्तिकरण के मामले में 18 वें स्थान पर है। आर्थिक भागीदारी और अवसर में 149 वें, शिक्षा प्राप्ति में 112 वें, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता में 150 वें तथा समग्र सूचकांक में 108 वें स्थान पर है। मंत्रालयिक पदों पर 30 फीसद महिलाओं के साथ भारत की रैंकिंग 69 वीं है और संसद में महिलाओं के मामले में 17 फीसद के साथ 122 वीं है। भारत के 28 राज्यों में से वर्तमान में केवल पश्चिम बंगाल में एक महिला मुख्यमंत्री हैं। देश का एक भी राज्य ऐसा नहीं है जहां महिला मंत्रियों की संख्या एक तिहाई हो। 65 फीसद राज्यों के मंत्रिमंडल में 10 फीसद से कम महिला प्रतिनिधित्व है। लेकिन अच्छी बात यह है कि मौजूदा सरकार बेटियों के हक में लगातार निर्णय ले रही है जो कि स्वागतयोग्य है।

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