पड़ताल: संवैधानिक प्रावधान की विवशता में पद पर रहते हुए अब तक तीन प्रधानमंत्री दे चुके हैं इस्तीफा
आनन्द अग्निहोत्री
लखनऊ। इजरायली पेगासस स्पाय सॉफ्टवेयर का मामला सुर्खियों में है। संसद और इसके बाहर लगातार यह मामला उठाया जा रहा है। कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने लोकसभा में ‘पेगासस प्रोजेक्ट’ रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए स्थगन प्रस्ताव नोटिस भेजा है। कांग्रेस के ही सांसद मणिकम टैगोर ने भी सरकार की तरफ से पेगासस स्पायवेयर के कथित उपयोग पर बहस के लिए लोकसभा में स्थगन प्रस्ताव नोटिस दिया है। वहीं, डीएमके सांसद तिरुचि सिवा ने भी राज्यसभा में कार्यस्थगन प्रस्ताव का नोटिस दिया है। भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी तक अपनी सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। सवाल यह है कि इतने सारे नोटिस क्या मोदी सरकार पर कोई दबाव बना पायेंगे। ‘द वायर’ ने पेगासस स्पायवेयर की रिपोर्ट जारी की थी। आखिर उसकी मंशा क्या थी। क्या वह इस फोन टैपिंग कांड को अमेरिका में 47 साल पहले हुए वाटरगेट कांड जैसा बनाना चाहता है। क्या वह अपने इरादे में कामयाब हो सकेगा। स्मरण रहे वाटरगेट कांड के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा था। रिचर्ड निक्सन अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जो पद पर रहने के दौरान इस्तीफा देने को विवश हुए थे। पेगासस प्रकरण भारत का वाटरगेट कांड बन सके, इसकी सम्भावना तो दूर-दूर तक नजर नहीं आती। हां, इतना जरूर है कि मोदी सरकार के दामन पर दाग जरूर लग गया है जिसे मिटाने में उसे वक्त लगेगा।
जितने मुंह उतनी बातें की कहावत भारत जैसे देश में ही देखने को मिलती है। प्रामाणिकता का इससे कोई लेना-देना नहीं होता। पहले कहा गया था कि भारत में 300 लोगों की जासूसी कराई गयी। लेकिन द वायर ने सोमवार को जो रिपोर्ट जारी की है उसमें दावा किया गया है कि पेगासस स्पायवेयर के जरिए सर्विलांस के लिए कुल 50,000 फोन नंबरों का डेटा बेस तैयार किया गया था। इस डेटाबेस के बारे में सबसे पहले जानकारी फ्रांस के नॉन प्रॉफिट फॉरबिडन स्टोरीज को मिली थी। उसने ही भारत समेत 10 देशों के मीडिया संस्थानों के कंसोर्टियम को यह जानकारी साझा की थी। इस लिस्ट में शामिल नंबरों का इस्तेमाल करने वाले 67 डिवाइसेज का एमनेस्टी इंटरनेशनल की ओर से विश्लेषण किया गया है। इनमें से 37 के पेगासस की ओर से हैक किए जाने की बात कही गई है। इन 37 नंबरों में से 10 भारत के बताए जा रहे हैं।
कहने को तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी कहते हैं कि सरकार ने उनका फोन टेप कराया था। लेकिन किसलिए, इसका उनके पास कोई जवाब नहीं है। बीएसएफ के पूर्व डीजी केके शर्मा, प्रवर्तन निदेशालय के सीनियर अधिकारी राजेश्वर सिंह और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के पूर्व सहयोगी एके जैन का नाम भी पेगासस की जासूसी लिस्ट में शामिल बताया जा रहा है। इन लोगों के फोन नंबरों को भी जासूसी की संभावित लिस्ट में शामिल किया गया था। इनके अलावा रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के एक पूर्व अफसर और पीएमओ के एक अधिकारी का नाम भी इसमें शामिल था। यही नहीं, रिपोर्ट के मुताबिक सेना के दो कर्नलों को भी जासूसी की इस लिस्ट में शामिल किया गया था। सवाल यह है कि मोदी सरकार इन लोगों की क्यों जासूसी कराना चाहती थी। क्या इन लोगों से सरकार को कोई खतरा था। स्मरण रहे कि इजरायली कम्पनी पेगासस स्पाय सॉफ्टवेयर किसी भी देश की सरकार को ही देती है। अगर यह सॉफ्टवेयर भारत में इस्तेमाल किया जा रहा था तो निश्चित रूप से मोदी सरकार शक के दायरे में आती है।
फोन टेपिंग कांड भारत के लिए नया विषय नहीं है। विभिन्न सरकारों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं। तब लैंडलाइन फोन टेप होते थे, अब एंड्रायड फोन टेप करने का मामला सामने आया है। यहां तो राष्ट्रपति भवन के फोन टेप किये जाने का मामला तक सामने आ चुका है लेकिन किसी भी मामले में कभी कुछ नहीं हुआ। दरअसल अमेरिका और भारत में संवैधानिक स्थितियां भिन्न हैं। अमेरिका में महाभियोग लाकर राष्ट्रपति को अपदस्थ किया जा सकता है लेकिन भारत में प्रधानमंत्री को हटाना मुश्किल है। तीन प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं जिन्हें पद पर रहने के दौरान इस्तीफा देना पड़ा है। मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुमत के अभाव में सरकार गिरने पर इस्तीफा दिया। इंदिरा गांधी के चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अवैध करार दिया था लेकिन उन्होंने इस्तीफा देने के बजाय देश में आपातकाल लगा दिया। यह अलग बात है कि उन्हें इसका खामियाजा चुनाव में हार के रूप में भुगतना पड़ा।
फिलहाल मोदी सरकार के सामने ऐसे कोई हालात नहीं जिसे पेगासस कांड पर घेरा जा सके। विपक्ष ने बहुत दबाव बनाया तो ज्यादा से ज्यादा जांच समिति बन सकती है। यहां की जो कार्यप्रणाली है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इस समिति की रिपोर्ट जब तक आयेगी, मोदी सरकार का कार्यकाल पूरा हो चुकेगा। न्यायिक प्रणाली के बारे में भी सभी जानते हैं। विपक्ष अगर कोर्ट की शरण ले भी तो इतनी जल्दी फैसला आने से रहा। इन हालात में द वायर जैसी एजेंसी भारत में तो वाटरगेट जैसे हालात पैदा करने से रही।
आखिर क्या था वाटरगेट जासूसी कांड ?
करीब 47 साल पहले अमेरिका में यह कांड सामने आया था। साल था 1969। 20 जनवरी को रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिचर्ड निक्सन अमेरिका के राष्ट्रपति बने। शुरुआत के दो-ढाई साल तक सबकुछ ठीक था। आखिरी साल फिर से राष्ट्रपति चुनाव का था। उन्हें पता करना था कि उनकी प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेटिक पार्टी की तैयारियां क्या हैं? इसके लिए उन्होंने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया। कुछ लोगों को डेमोक्रेटिक पार्टी के नेशनल कमेटी के ऑफिस यानि कि वॉटरगेट हॉटेल कॉम्प्लेक्स की जासूसी का काम सौंप दिया। जासूसों ने उस कॉम्प्लेक्स में रिकॉर्डिंग डिवाइस लगा दी ताकि उनकी बातचीत सुनी जा सके। सब ठीक चल रहा था कि अचानक रिकॉर्डिंग डिवाइस ने काम करना बंद कर दिया.
फिर 17 जून, 1972 की रात को पांच लोगों ने फिर से उस बिल्डिंग में घुसने की कोशिश की ताकि रिकॉर्डिंग डिवाइस ठीक की जा सके। अभी वो तारों के साथ छेड़खानी कर ही रहे थे कि पुलिस पहुंच गई और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अगले दिन अमेरिकी अखबार वॉशिंगटन पोस्ट में इसकी खबर छपी। खबर की तफ्तीश करने वाले दो पत्रकार थे…बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन। जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ता जा रहा था, एक-एक करके सत्ताधारी रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं के नाम सामने आ रहे थे लेकिन निक्सन तक आंच नहीं पहुंच रही थी। मामला सीनेट में पहुंच गया, जहां इसकी सुनवाई होनी थी। मई, 1973 में केस सीनेट में शुरु हुआ। मामले की जांच के लिए हॉवर्ड के लॉ प्रोफेसर अर्चिबाल्ड कॉक्स को वकील के तौर पर नियुक्त किया गया। जब निक्सन को लगा कि वो खुद फंस जाएंगे तो उन्होंने अपने करीबियों को इस्तीफा देने के लिए मज़बूर किया। अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव हुए तो निक्सन ने खुद को पाक साफ बताया। लोगों ने भरोसा भी कर लिया और निक्सन दोबारा राष्ट्रपति बन गए। लेकिन लंबे समय तक बने नहीं रह पाए क्योंकि उन्होंने वाटरगेट कांड की जांच के लिए जिए नए वकील लिओन जोर्सकी को नियुक्त किया था, उन्होंने सारे रिकॉर्डेड टेप को रिलीज़ करने का नोटिस भेज दिया और फिर निक्सन फंस गए। 30 अक्टूबर, 1973 को निक्सन के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया। कोर्ट के काम में दखल देने, राष्ट्रपति की शक्तियों का दुरुपयोग करने और हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के सामने गवाही देने न आने के आरोप उनपर तय किए गए। 6 फरवरी, 1974 से महाभियोग पर सुनवाई शुरू हो गई। अब उनके सामने कोई रास्ता नहीं था. 8 अगस्त, 1973 को वो टीवी पर आए। अपनी बात रखी और फिर इस्तीफा दे दिया। अमेरिका के इतिहास में ये अब तक का पहला मामला था, जब किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने पद पर रहने के दौरान ही इस्तीफा दिया था।