आनन्द अग्निहोत्री
जिसका डर था, वह धीरे-धीरे सामने नजर आने लगा है। लखनऊ में हुई किसान महा पंचायत में सरकार पर दबाव बनाने के लिए जिस तरह का व्यूह खड़ा करने की चेतावनी दी गयी, उसे भेदना सरकार के लिए काफी मुश्किल है। बात सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की ही नहीं है। किसानों की मांगें और भी हैं। तुर्रा यह कि वे यह ऐलान कर रहे हैं कि सरकार ने उनकी मांगें पूरी न कीं तो चुनाव में सरकार को सबक सिखाया जायेगा। किसानों के इस तरह के तेवर सरकार के लिए मुश्किल पेशबंदी तो है ही, सियासू सूरमाओं के लिए भी अवसर है। विपक्षी राजनीतिक दल और अन्य तमाम वर्ग इस तरह की चेतावनी आये दिन दिया करते हैं। किसान ऐसा कर रहे हैं तो इसमें हैरत किस बात की। हां, एक बात विचारणीय अवश्य है, वह यह कि कहीं किसान आंदोलन सियासी सूरमाओं के शिकंजे में न आ जाये। आंदोलन की शुरुआत से ही जिस तरह विपक्षी राजनीतिक दल किसानों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे हैं, इस परिप्रेक्ष्य में इस तरह की आशंका बेमानी नहीं मानी जा सकती।
मोदी सरकार का तीनों कृषि कानूनों के समर्थन में हद से ज्यादा अड़े रहना और अचानक गुरु परब के दिन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रधानमंत्री की घोषणा इस बात का साफ संकेत देती है कि कहीं न कहीं सरकार उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के अगले साल की शुरुआत में होने जा रहे विधान सभा चुनावों के मद्देनजर किसानों के दबाव में आ गयी है। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता इस बात से नावाकिफ नहीं। इसी कारण वे अपनी मांगें स्वीकार करने के लिए सरकार पर और दबाव बना रहे हैं। अपने सख्त निर्णयों के लिए जानी जाने वाली मोदी सरकार का किसानों के आगे इस तरह झुकना जाहिर करता है कि उसने चुनाव के परिप्रेक्ष्य में समझौता करना कुबूल कर लिया है। देखना यह है कि वह किस हद तक किसान आंदोलन के सामने समझौता कर सकती है। किसानों ने एमएसपी के अलावा महंगाई और बेरोजगारी का सवाल भी खड़ा किया है। एक बार एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जा सकती है लेकिन महंगाई नियंत्रण और बेरोजगारी समाप्ति की कोई गारंटी दे पाना तो मुश्किल ही होगा। इन्हीं मुद्दों पर विपक्ष किसानों का समर्थन कर सरकार के लिए राजनीतिक मुश्किल खड़ी कर सकता है। अगर सीएए की वापसी की मांग भी उठने लगे तो कोई ताज्जुब नहीं।
एक बात साफ है कि आंदोलनकारी किसानों की कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है। उनका एक संयुक्त मंच है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनकी राजनीतिक पकड़ नहीं है। संयुक्त मोर्चा के सभी घटक अपने-अपने क्षेत्र में अच्छा रसूख रखते हैं। उदाहरण के लिए हम राकेश टिकैत को ही लेते हैं। राकेश टिकैत भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका खासा प्रभाव है। वह अपने क्षेत्र में चुनावों को प्रभावित करने की हैसियत में हैं। इसी तरह अन्य घटक भी अपने-अपने क्षेत्र में चुनावों को प्रभावित कर सकते हैं। अगर सरकार ने उनकी मांगें स्वीकार नहीं कीं तो निश्चित रूप से वे ऐसा कर भी सकते हैं। इस स्थिति में सरकार के लिए बड़ा संकट खड़ा हो जायेगा। इसे याद रखना चाहिए कि पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में राकेश टिकैत एवं अन्य किसान नेता कोलकाता गये थे। वहां वे प्रभाव डाल भी पाये या नहीं, यह दीगर बात है। लेकिन अपने-अपने क्षेत्र में तो ये सक्षम हैं ही।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला ‘मास्टर स्ट्रोक’ माना जा रहा है। कम से कम विपक्षी दलों के हाथ से तो यह मुद्दा खिसक गया लगता है। उनके पास किसानों की आड़ में चुनाव में यह मुद्दा बड़ा हथियार था। लेकिन किसानों ने अपने आंदोलन और मांगों का दायरा जिस तरह बढ़ाया है, उसमें इस बात की पूरी संभावना है कि विपक्षी दल किसी न किसी रूप में दखलंदाजी करें और किसानों को सरकार के खिलाफ उकसायें। यूं तो किसान स्वयं समझदार हैं। वह आसानी से किसी के बहकावे में नहीं आने वाला, लेकिन चुनावी मोड़ पर जिस तरह आंदोलन आ खड़ा हुआ है, उसमें इस तरह की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। बेहतर तो यही होगा कि किसान किसी राजनीतिक दल का हथियार न बनें अन्यथा भविष्य में भी उनका सियासी इस्तेमाल किया जा सकता है।