Tuesday, June 3, 2025
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राम जन्मभूमि आंदोलन के नायक कल्याण सिंह के निधन पर शोक की लहर

राम जन्म भूमि आंदोलन के नायक कल्याण सिंह यानि बाबू जी का 89 साल की उम्र में निधन हो गया। भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान और हिमांचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल के निधन पर लोग शोक में डूब गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लखनऊ आकर अंतिम दर्शन किए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कल्याण सिंह के आवास पर ही मौजूद रहे। उनका अंतिम संस्कार नरोरा में सोमवार को होगा।

भाजपा के राजनीति के पटल पर तेजी से छा जाने के पीछे कल्याण सिंह भी अहम चेहरा थे। 1980 में भाजपा के जन्म के ठीक दस साल बाद देशभर की राजनीति का माहौल बदलने लगा। ये वही साल था जब 1989-90 में मंडल-कमंडल वाली सियासत शुरू हुई और भाजपा को अपने सियासी बालपन में ही रोड़े अटकने का अहसास हुआ. इस अहसास और संकट के मोचक बनकर निकले कल्याण सिंह. जब आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों को कैटिगरी में बांटा जाने लगा और पिछड़ा वर्ग की ताकत सियासत में पहचान बनाने लगा तो भाजपा ने कल्याण दांव चला. उस वक्त तक भाजपा बनिया और ब्राह्मण पार्टी वाली पहचान रखती थी. इस छवि को बदलने के लिए भाजपा ने पिछड़ों का चेहरा कल्याण सिंह को बनाया और तब गुड गवर्नेंस के जरिए मंडल वाली सियासत पर कमंडल का पानी फेर दिया था। वो कल्याण ही थे जिन्होंने भाजपा को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया कि पार्टी ने 1991 में अपने दम पर यूपी में सरकार बना ली. इसके बाद कल्याण सिंह यूपी में भाजपा के पहले सीएम बने, और फिर राम मंदिर आंदोलन के सबसे बड़े चेहरों में एक बनकर उभरे. मुख्यमंत्री बनने के ठीक बाद कल्याण सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ अयोध्या का दौरा किया और राम मंदिर का निर्माण करने की शपथ ली थी. इसी के चलते 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी ढांचा गिराए गया. उस वक्त कल्याण सिंह ही यूपी के सीएम थे. हालांकि सीबीआई की चार्जशीट के अनुसार, उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलाने की अनुमति नहीं दी थी.

जवान भारत को बूढ़ा होने से रोकेगा केंद्र का मास्टर प्लान

  • सरकार ने तैयार किया जनसंख्या नियंत्रण का मास्टर प्लान

भारत भले ही आज दुनियाँ के जवान देशों की लाइन में खड़ा हो लेकिन महज छह साल बाद हमारी गिनती सबसे बूढ़े देश के रूप में होने लगेगी। हम 2027 के आस-पास चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले देश हो जाएंगे। यह संभावना संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के विभाग के ‘‘पॉपुलेशन डिविजन’’ ने जताई है। भारत की जनसंख्या में 2050 तक 27.3 करोड़ की वृद्धि हो सकती है। इस हिसाब से 2050 तक हमारी कुल आबादी 164 करोड़ होने का अनुमान है। निश्चित रूप से ये आंकड़ें चौंकाने वाले हैं।

अगर देखा जाए तो हम जनसंख्या के उस ज्वालामुखी पाए बैठे हैं जो कभी भी फट सकता है। इसकी चिंता यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर आसाम के मुख्यमंत्री हेमंत विश्वसरमा जता चुके हैं। यूपी और आसाम में नई जनसंख्या नीति को लागू करने की कवायद शुरू की गई है। हालांकि जब तक राष्ट्रीय स्तर प्रत्येक राज्य से जनसंख्या नियंत्रण की पहल नहीं होती है। उस समय तक जनसंख्या विस्फोट को रोकना संभव नहीं है। अगर जाति, धर्म और प्रांत के नाम पर जनसंख्या नियंत्रण का विरोध शुरू हुआ तो आने वाले समय में स्थिति भयावह होगी। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2050 तक वैश्विक जनसंख्या में जो वृद्धि होगी उनसे में से आधी वृद्धि भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, इथियोपिया, तंजानिया, इंडोनेशिया, मिस्र और अमेरिका में होने की अनुमान है। संयुक्त राष्ट्र विभाग के डायरेक्टर जॉन विल्मोथ ने हाल ही में कहा कि ताजा अध्ययन में पाया गया कि अगले 30 साल में भारत की जनसंख्या में 27.3 करोड़ की वृद्धि हो सकती है। ऐसे में केंद्र सरकार के स्तर पर जनसंख्या नियंत्रण का मास्टर प्लान अभी से तैयार कर लिया गया है।

भाजपा खासतौर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों में आरंभ से ही रहा है। राष्ट्र की उन्नति और सीमित प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिए जनसंख्या का नियंत्रित होना जरूरी है। हालांकि इसके लिए आपातकाल (इन्दिरा गांधी सरकार) की तरह जबरिया नसबंदी पूरी तरह से गलत है। केंद्र सरकार का मानना है कि संतुलित कानून और सामाजिक जागरूकता से ही देश की आबादी को नियंत्रित किया जा सकता है। इस दिशा में कदम उठा भी लिए गए हैं। 19 जुलाई से मानसून सत्र में जनसंख्या नियंत्रण पर गंभीर मंथन होगा। संसद में पहुंचे बुद्धिजीवी पूरी तरह से तैयार हैं।

यूपी सरकार के जनसंख्या नियंत्रण बिल को लेकर चर्चाओं के बीच इस बार संसद के मॉनसून सेशन में भी जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवाज बुलंद होगी। बीजेपी के कई राज्यसभा सांसद जनसंख्या नियंत्रण कानून के लिए प्राइवेट मेंबर बिल पेश करने वाले हैं। 6 अगस्त को इसी तरह के एक बिल पर राज्यसभा में चर्चा होनी है। भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा पहले ही राज्यसभा में जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्राइवेट मेंबर बिल पेश कर चुके हैं। जब तक कोई राज्यसभा का सदस्य रहता है तब तक उनका पेश किया हुआ बिल भी लाइव रहता है, जब तक कि उसे चर्चा और वोटिंग से खारिज न कर दिया जाए। कब किस बिल पर चर्चा होगी यह बैलेट से तय होता है।

राकेश सिन्हा के अनुसार जनसंख्या नियंत्रण बिल में दो से ज्यादा बच्चे होने पर स्थानीय चुनाव सहित, विधानसभा और संसद का चुनाव लड़ने, साथ ही विधानपरिषद या राज्यसभा का मेंबर बनने पर रोक हो। सरकारी कर्मचारियों से एफिडेविट भरवाया जाए कि उनके दो से ज्यादा बच्चे नहीं होंगे। साथ ही इस बिल में कहा गया है कि दो से ज्यादा बच्चे होने पर बैंक में जमा राशि में इंटरेस्ट रेट भी कम मिलेगा और लोन में मिलने वाली सब्सिडी भी कम मिलेगी। इसी प्रकार भाजपा के एक और राज्यसभा सांसद हरनाथ सिंह यादव भी प्राइवेट मेंबर बिल लाने की तैयारी में हैं। उन्होंने बताया कि दो बच्चों से ज्यादा होने पर किसी भी तरह की सरकारी सुविधा नहीं दी जानी चाहिए। साथ ही कोई भी चुनाव लड़ने पर पाबंदी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर बिल पेश करने के लिए बैलेट में मेरा नंबर नहीं आया तो मैं जीरो आवर में भी यह मसला उठाऊंगा। इससे पहले भी मैं जनसंख्या नियंत्रण कानून की जरूरत का मसला चार बार उठा चुका हूं।

यूपी में योगी का मास्टर प्लान

उत्तर प्रदेश की आबादी इस समय 23 करोड़ हो चुकी है। यहाँ जन्म दर राष्ट्रीय औसत से 2.2% अधिक है। प्रदेश में आखिरी बार जनसंख्या नीति साल 2000 में आई थी। जिसमें जन्म दर 2.7% थी। अगर यही हालत प्रदेश में बने रहे तो यहाँ पर संसाधनों का उपयोग बहुत मुश्किल हो जाएगा। प्रदेश की योगी सरकार ने नई जनसंख्या नीति के जरिये 2026 तक 2.1% लाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। 2021-2030 के लिए प्रस्तावित नीति के माध्यम से परिवार नियोजन कार्यक्रम के अंतर्गत जारी गर्भ निरोधक उपायों की सुलभता को बढ़ाया जाना और सुरक्षित गर्भपात की समुचित व्यवस्था देने की कोशिश होगी। यूपी विधि आयोग चेयरमैन आदित्यनाथ मित्तल के अनुसार बिल पास होने के एक साल बाद कानून लागू होगा। कानून से प्रोत्साहन ज्यादा, हतोत्साहन नहीं होगा। सभी जाति-धर्म को देखते हुए मसौदे पर काम होगा। विशेष जाति को टारगेट नहीं किया जाएगा। नसबंदी स्वैच्छिक, जबरदस्ती नहीं की जाएगी। दो बच्चे वालों को ही सरकारी नौकरी का प्रस्ताव होगा। गरीबी रेखा से नीचे वालों को एक बच्चे का प्रोत्साहन होगा. नियम का पालन नहीं, तो सरकारी लाभ नहीं मिलेगा।

विराट की कप्तानी में चमक बिखेरने को तैयार अश्विन

दुनियाँ के सर्वश्रेष्ठ स्पिनरों में शुमार रविचंद्रन अश्विन इंग्लैंड के खिलाफ तीसरे टेस्ट मैच में अपनी चमक बिखेर सकते हैं। मौजूदा समय के सबसे बेहतरीन स्पिन गेंदबाज फिलहाल विराट की टीम से बाहर हैं। ये वही असश्विन हैं जो भारतीय टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की टीम का अहम सदस्य होते थे लेकिन कोहली की कप्तानी में अंदर बाहर होते रहते हैं।

फिलहाल टेस्ट क्रिकेट में दुनिया का कोई भी गेंदबाज अश्विन के आस-पास भी नहीं है लेकिन वन दे क्रिकेट में अश्विन आखिरी बार 2017 में मैच खेले थे। धोनी की कप्तानी वन डे और टेस्ट में उनका असाधारण प्रदर्शन था। हालांकि विराट कोहली की कप्तानी में एक ब्रेक लगा दिया। अश्विन ने धोनी की कप्तानी में हर एक फॉर्मेट में शानदार खेल दिखाया था। अश्विन ने माही की अगुआई में कुल 78 वनडे मैचों में 105 और 42 टी-20 मैचों में 49 विकेट झटके थे। लेकिन कोहली की कप्तानी में तीन साल से ज्यादा समय से वनडे में एंट्री नहीं मिली है। उम्मीद की जा रही है कि तीसरे टेस्ट में उनको प्लेईंग 11 में जगह दी जा सकती है।

रक्षाबंधन के बाद यूपी कैबिनेट को मिलेंगे छह नए चेहरे

उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा योगी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार सुनिश्चित हो गया है।  रक्षाबंधन के बाद होने वाले योगी सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार हो सकता है। उम्मीद की जा रही है कि भाजपा सहयोगी दल के साथ पिछड़े वर्ग और ब्राह्मण नेताओं को कैबिनेट में जगह देकर कई निशाने  साधने वाली है। इसके अलावा दलित, गुर्जर और जाट विधायक को मंत्री बनाया जा सकता है।

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के आवास पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, सीएम योगी आदित्यनाथ, प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह और संगठन महामंत्री सुनील बंसल ने मंत्रिमंडल विस्तार पर चर्चा की। केंद्रीय नेतृत्व रक्षाबंधन के बाद किसी भी दिन मंत्रिमंडल विस्तार को हरी झंडी दे दी है।

यूपी कैबिनेट विस्तार में केंद्र की तरह ओबीसी चेहरों को तरजीह देने की योजना है। चुनाव से पहले ओबीसी वोटरों को लुभाने के लिए योगी कैबिनेट में कुर्मी, निषाद के अलावा राजभर समुदाय के प्रतिनिधित्व को मंत्री पद देने के कयास लगाए जा रहे हैं। पिछले दिनों केंद्र सरकार के कैबिनेट विस्तार में रेकॉर्ड 27 ओबीसी नेताओं को शामिल किया गया था। तब इसे यूपी चुनाव को देखते हुए केंद्र का दांव माना गया था। यूपी में पिछड़ों की आबादी कुल जनसंख्या की तकरीबन आधी बताई जाती है। सूत्रों के अनुसार जेपी नड्डा और अमित शाह के साथ हुई बैठक में योगी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार और एमएलसी बनाए जाने के लिए चार नामों पर सहमति बन गई है। विस्तार में पांच से छह मंत्री बनाए जा सकते हैं। जिसमें 2022 का चुनाव देखते हुए बीजेपी नेताओं के साथ-साथ सहयोगी दलों को भी कैबिनेट में जगह देकर सियासी समीकरण साधने की कवायद में है। बीजेपी के केंद्रीय और उत्तर प्रदेश के शीर्ष नेताओं के बीच हुई बैठक में निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद  का नाम फाइनल माना जा रहा है। वहीं, सूबे में ब्राह्मण समुदाय की नाराजगी को देखते हुए बीजेपी जितिन प्रसाद और लक्ष्मीकांत वाजपेयी को भी मंत्री बना सकती है। कैबिनेट में दलित समुदाय से आने वाले विद्यासागर सोनकर को भी मंत्री बीजेपी बना सकती है।

अफगानिस्तान के युवा फुटबालर की दर्दनाक दास्तां : अमेरिकी वायुसेना से जहाज से गिरकर हुई एक सपने की मौत

काबुल पर तालिबान ने कब्जे के बाद कुछ ऐसी तस्वीरें आईं, जिनको देखकर पूरी दुनियाँ कांप गई। एयरपोर्ट पर हजारों लोग एक लोग अमेरिकी वायुसेना के जहाज के साथ-साथ रनवे पर भाग रहे थे। कुछ लोग इस पर लटकने की कोशिश भी कर रहे थे। इसके बाद आसमान से गिरते हुए आदमी और दर्दनाक मौत का मंजर किसने नहीं देखा होगा और आँख से आँसू निकले होंगे। अब अफगानिस्तान के शारीरिक शिक्षा और खेल महानिदेशालय ने एक फेसबुक पोस्ट के जरिए इसी हादसे में एक युवा फुटबालर की मौत की पुष्टि की है।

19 साल के फुटबालर जकी अनवारी भी अमेरिकी वायुसेना के जहाज से गिरकर मारे गए। जकी ने सोचा नहीं था कि उसके साथ ऐसा होगा। वह फुटबॉल की दुनिया में नाम कमाना चाहता था। उसके टी-शर्ट पर 10 नंबर लिखा हुआ था। वही जो दुनिया के बड़े फुटबॉलर्स की शर्ट पर होता है। माराडोना की टी-शर्ट पर यह नंबर था और लियोनल मेसी बार्सिलोना में इसी नंबर के साथ खेलते रहे हैं। शायद मेसी का फैन रहा होगा जकी। हो सकता है उसकी आंखों ने कभी मेसी के साथ खेलने का ख्वाब देखा हो। अपने देश का झंडा दुनिया के मंच पर लहराना चाहता था। लेकिन सब खत्म हो गया। बंदूक के दम पर हासिल किए राज ने हजारों लोगों की तरह उसके सपनों को भी तोड़ दिया।

अनवारी के सपने अधूरे रह गए। 19 साल का वह लड़का बड़ा खिलाड़ी बन सकता था। उसके चेहरे को देखिए एक मासूमियत नजर आती है। एक जज्बा नजर आता है। कुछ करने की चाह नजर आती है। पर कट्टरपंथ को ख्वाब नहीं सुहाते। शायद इसी वजह से वह अफगानिस्तान से निकलना चाहता होगा। डर और खौफ का आलम यह कि जहाज के अंदर नहीं जा पाया तो बाहर लटकने को मजबूर हो गया। जानता तो होगा कि यह खतरनाक है। पर शायद उसे उस मुल्क में रहना ज्यादा खतरनाक लग रहा होगा। तभी तो उसने यह जोखिम मोल लिया।

मुन्नवर राणा के प्यार पर लोगों में गुस्सा : तो एक काम कीजिए, आप भी तालिबान चले जाईए

शायर मुनव्‍वर राना मौजूदा सरकार का विरोध में कुछ इस कदर आमादा हैं कि उनका तालिबान प्रेम बार- बाआर उमड़ कर निकल रहा है। वो तालिबान के पक्ष में बार-बार विवादित बयान दे रहे हैं। जिससे उनके प्रशंसक भी भड़क गए हैं। गुरुवार को उन्‍होंने फिर नया विवाद खड़ा कर दिया जिससे हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाया। मुनव्‍वर राना ने महर्षि वाल्‍मीकि की तुलना तालिबान से कर डाली। यही नहीं, एक टीवी चैनल में बातचीत के दौरान वह हिंदू धर्म पर सवाल खड़े करते दिखे। इसके बाद दिल्‍ली महिला आयोग की पूर्व चेयरपर्सन बरखा शुक्‍ला सिंह ने ट्वीट करते हुए कहा, ‘मुनव्‍वर राना आप भी एक काम कीजिए। आप भी तालिबान ही चले जाइए। आपके लिए सबसे महफूज जगह तालिबान है।’

तालिबान पर चर्चा के दौरान मुनव्‍वर राना ने कहा, ‘तालिबान आतंकी हैं पर उतने ही आतंकी हैं जितने रामायण लिखने वाले वाल्‍मीकी।’ उनसे पूछा गया था कि तालिबानी आतंकी हैं या नहीं? बेहद ‘सड़कछाप’ भाषा का इस्‍तेमाल करते हुए मुनव्‍वर राना बोले, ‘अगर वाल्‍मीकी रामायण ‘लिख देता है’ तो वह देवता ‘हो जाता है’, उससे पहले वह डाकू होता है। इसको क्‍या कीजिएगा। आदमी का किरदार, उसका कैरेक्‍टर बदलता रहता है। ‘

जब टीवी चैनल के एंकर ने इस पर आपत्ति जताई कि कम से कम भगवान वाल्‍मीकि के साथ वह तालिबान की तुलना न करें तो मुनव्‍वर राना बोले, ‘आपके मजहब (हिंदू धर्म) में तो किसी को भी भगवान कह दिया जाता है। लेकिन, वो एक लेखक थे। ये ठीक है कि उन्‍होंने एक बड़ा काम किया। उन्‍होंने रामायण लिखी। हालांकि, यहां मुकाबला करने की बात नहीं है।’

उधर मुनव्‍वर के बयान से लोगों को काफी ठेस पहुंची है। सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ लोगों का गुस्‍सा फूट पड़ा। दिल्‍ली महिला आयोग की पूर्व चेयरपर्सन बरखा शुक्‍ला सिंह ने ट्वीट करते हुए कहा, ‘मुनव्‍वर राना आप भी एक काम कीजिए। आप भी तालिबान ही चले जाइए। आपके लिए सबसे महफूज जगह तालिबान है।’

अपनी आजादी के दिन गुलामी की जंजीरों में जकड़ गया अफगानिस्तान

19 अगस्त यानि अफगानिस्तान का स्वतन्त्रता दिवस। आज से ठीक एक साल पहले 2020 में ही अफगानिस्तान  में अपनी आजादी के 100 वर्ष साल पूरे किए थे। उस समय भारत समेत पूरी दुनियाँ ने बधाई दी थी। काबुल में जश्न का माहौल था। लोग खुशी मना रहे थे लेकिन आज यहाँ सन्नाटा पसरा है। अमेरिकी सेना की वापसी के बाद तालिबान फिर से अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। ऐसे में अफगानी आज गुलामी की नई जंजीरों में फंस गए हैं।

तालिबान ने देश पर कब्जा कर लिया है। ऐसे में देश में अफरा तफरी के हालात है। लोगों की हत्या की जा रही है और फिर से इस्लामिक कानून लागू किया गया है। हजारों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं और स्कूल, थियेटर, सरकारी दफ्‍तर, कॉलेज सभी बंद है। महिलाओं के घर से निकलने पर पाबंदी है। लोग अपने जानमाल की रक्षा में लगे हुए हैं। लोग अपने जान-माल की रक्षा में लगे हुए हैं। ऐसे में लगता है कि इस बार अफगानिस्तान में स्वतंत्रता दिवस बस औपचारिक भर ही रह जाएगा। आइये नजर डालते हैं अफगानिस्तान के इतिहास पर।

अफगानिस्तान कभी भारत का हिस्सा हुआ करता था परंतु अब एक स्वतंत्र देश है। 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया था। हालांकि इसके खिलाफ लड़ाई चलती रही। बाद में यह दिल्ली के मुस्लिम शासकों के कब्जे में रहा। यहां पर गौरी, गजनी, चंगेज, हलाकू आदि कई लुटेरों का शासन भी रहा है।

26 मई 1739 को दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह अकबर ने ईरान के नादिर शाह से संधि कर अफगानिस्तान उसे सौंप दिया था। 17वीं सदी तक ‘अफगानिस्तान’ नाम का कोई राष्ट्र नहीं था। अफगानिस्तान नाम का विशेष-प्रचलन अहमद शाह दुर्रानी के शासनकाल (1747-1772) में ही हुआ। हालांकि दुर्रानी वंश ने 1826 तक राज किया था, परंतु तब यह ब्रिटिश इंडिया के अंतर्गत था। सही मायने में दुर्रानी ने ही इस राष्ट्र को स्थापित किया था।

फिर यह क्षेत्र ब्रिटिश इंडिया के अंतर्गत आ गया। 1834 में एक प्रकिया के तहत 26 मई 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट अर्थात राजनीतिक देश को दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया गया। इससे अफगानिस्तान अर्थात पठान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अलग हो गए। 18 अगस्त 1919 को अफगानिस्तान को ब्रिटिश शासन से आजादी मिली।

1926 से 1972 तक अफानिस्तान एक आधुनिक देश बना। तब यहां पर वामपंथ की सरकार थी। मोहम्मद जहीर शाह ने नया अफगानिस्तान बनाया। यहां लोकतंत्र था और लोग आनंदपूर्वज अपना जीवन यापन करते थे। परंतु सोवियत संघ के दौर अर्थात शीतयुद्ध के दौर में अमेरिका और रशिया की सेना के दखल से अफगानिस्तान में गृहयुद्ध शुरु हुआ था और अंतत: इस्लामिक कट्टरपंथी मुजाहिद्दीनों को अमेरिका के सहयोग से सत्ता हासिल हो गई और रशिया के सहयोगी प्रगतिशील अफगानों को देश छोड़कर जाना पड़ा। 1971 से 1988 तक मुजाहिद्दीनों ने सरकार चलाई और फिर उनका सामना तालिबान से हुआ। 1990 में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का उदय तब हुआ जबकि रशिया की सेना अफगानिस्तान से वापस जा रही थी। तालिबान ने 1998 तक उसने संपूर्ण अफगानिस्तान पर कब्जा कर मुजाहिद्दीनों के मुखिया बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटा दिया।

11 सितंबर 2001 में न्यूयॉर्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया का ध्यान तालिबान पर गया। हमले के मुख्‍य षड़यंत्रकारी अलकायदा के ओसामा बिन लादेन को शरण देने के आरोप में तालिबान पर अमेरिका क्रोधित हुआ और उसने 7 अक्टूबर 2001 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और सिर्फ एक सप्ताह में ही तालिबान की सत्ता को उखाड़ फेंका।

21वीं सदी : कहानी- किरदारों से सराबोर फिल्में

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अगर हम 20वीं सदी के आखिरी तीन दशकों पर नजर डालें तो हिन्दी सिनेमा में फार्मूला फिल्मों और नायकों के स्टारडम का दबदबा रहा। इस दौर में फ़िल्मकार बड़े स्टार को साइने करके रोमांस, कॉमेडी, एक्शन, कुछ भावनात्मक दृश्य और गाने डालकर एक फिल्म तैयार कर लेते थे जो हिन्दी सिनेमा का आजमाया हिट फार्मूला था। बहुसंख्यक दर्शक भी सिनेमा हाल में अपने सुपर स्टार को ही देखने जाता था। लेकिन 21 सदी के इन बीस वर्षों में जैसे- जैसे नए दौर का सिनेमा जवान हुआ, कहानी और पात्रों का दयारा बढ़ता चला गया। आज कहा जा सकता है कि जितना कथ्य (कहानी) मजबूत होगा, उतना ही दृश्य (फिल्म) बेहतर और मनोरंजक होगा। पिछले बीस वर्षों में जिस रफ्तार से तकनीकी बदली और संचार के साधनों में इजाफा हुआ है, दर्शकों की रुचि और मनोरंजन का सागर गहराता चला गया है। आज 15 सेकेंड की शार्ट फिल्म से लेकर तीन घंटे तक की कहानियाँ और किरदार उपलब्ध हैं। इंसान और जानवर से लेकर कीट- पतंग, एलियन और परा वैज्ञानिक शक्ति को केंद्र और मुख्य पात्र बनाकर कहानियाँ लिखी जा रही हैं। प्राचीन इतिहास से लेकर अल्ट्रा माडर्न रिलेशनशिप और नजरिए को किरदार में पिरोया जा रहा है। दर्शक हर तरह की कहानी और किरदार देखने के तैयार है। डब, रीमेक, सिक्वल, बायोग्राफी सभी फिल्मों को दर्शक हाथों हाथ ले रहे हैं। बस कहानी कहने का तरीका और पात्रों का प्रस्तुतीकरण नया होना चाहिए।

नई सदी के इन बीस वर्षों में कहानी और किरदारों के प्रस्तुतीकरण के तरीकों को हम क्रमबद्ध रूप से समझ सकते हैं। वर्ष 2000 से लेकर 2020 तक प्रत्येक पाँच वर्षों में हिन्दी सिनेमा ने नई सीढ़ी चढ़ी और नई पीढ़ी का सिनेमा प्रस्तुत किया। जिसमें कहानी से लेकर तकनीकी का व्यापक दायरा और दर्शकों की पसंद में हो रहे क्रमिक बदलाव स्पष्ट नजर आए। नई सदी के पहले चरण की बात करें तो 21 जनवरी 2000 को बड़े पर्दे पर रिलीज हुई फिल्म “कहो न प्यार है” ने उस समय के सिनेमा में तय सभी फार्मूलों की धज्जियां उड़ा दी। इस फिल्म का नायक बिलकुल नया- नवेला था। जिसकी छवि भी भारतीय सिनेमा के परंपरागत हीरो से अलग थी। बिलकुल हॉलीवुड के नायक सरीखा। इस फिल्म का मुक़ाबला उसी दिन रिलीज हुई उस समय के सबसे बड़े स्टार शाहरुख खान की फिल्म “फिर भी दिल है हिंदुस्तानी” से थी। फिरभी सारे तय प्रतिमानों को पीछे छोडते हुए ह्रीतिक रोशन की फिल्म कहो न प्यार से साल की सबसे बड़ी हिट (पुरस्कार और कमाई के मामले में) साबित हुई। इसका सीधा सा कारण था वालीवुड के अब तक के तय मानकों से अलग कहानी और नए मसालों में लपेटकर किया गया प्रस्तुतीकरण। इसके बाद लगान और दिल चाहता है जैसी  

क्या किसी ने सोचा था कि कभी फार्मूला फिल्मों के शहँशाह रहे अभिताभ बच्चन उम्र के 70वें पड़ाव में आकर असाध्य बीमारी से ग्रसित 12 वर्षीय बच्चे “औरों” की भूमिका निभाएंगे। उनको इस फिल्म में अभिनय के लिए न सिर्फ राष्ट्रीय राष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा बल्कि सदी के महानायक बन जाएंगे। 2001 में आई फिल्म “दिल चाहता है” और “लगान” ने जहां कहानी और किरदारों के प्रस्तुतीकरण में नए प्रयोग किए। जिसके बाद मुख्य धारा के सिनेमा में प्रयोग ने तेजी से रफ्तार पकड़ ली। पुरानी कहानियों के रिमेक से लेकर फिल्म के सिक्वल और गैर पारंपरिक किरदार हिट होने लगे। महिला केन्द्रित फिल्मों का अंबार लग गया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राज कुमार राव जैसे कलाकार बड़े स्टार बन गए और एक गूंगे लड़के के भारतीय क्रिकेट टीम में चुने जाने की कहानी “इकबाल” दर्शकों की नई पसंद बन गई। ये सिलसिला थमा नहीं बल्कि और तेज होता गया। गैंग आफ वासेपुर सीरीज को दुनियाँ भर की 50 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शामिल किया गया।

इसी बीच नई शताब्दी के दूसरे दशक में तकनीकी और संचार माध्यमों के बढ़ते दायरे ने देश के कोने- कोने में छिपी प्रतिभा को नए पंख दिये। जिसने एक से बढ़कर एक कहानी और किरदार गढ़ने शुरू कर दिये। भारत के इस ओवर द टॉप (ओटीटी) वीडियो मार्केट ने वेब सीरीज के जरिये मनोरंजन का दायरा और बढ़ा दिया। पिछले छह- सात सालों में प्रत्येक देशवासी के हाथों में पहुँचे मोबाईल ने नए कलाकारों और लेखकों को पैदा कर दिया।

ब्रिटिश न्यूजपेपर \’द गार्डियन\’ ने 21वीं सदी में दुनियाभर की सौ बेहतरीन फिल्मों की लिस्ट जारी की है। इस लिस्ट में इंडिया से एकमात्र फिल्म \’गैंग्स ऑफ वासेपुर\’ शुमार हुई है। फिल्म को 59वां स्थान हासिल हुआ है। इस लिस्ट में सन् 2000 के बाद रिलीज हुई सौ फिल्में शामिल हैं। \’गैंग्स ऑफ वासेपुर\’ की पूरी कास्ट एंड क्रू इस लिस्ट में उनकी फिल्म के स्थान पाने से खासी खुश है।

1) कैसे चुनी यह लिस्ट

‘द गार्डियन’ के समीक्षक मंडल में शामिल पीटर ब्रेडशॉ, कैथ क्लार्क, एंड्रयू पल्वर, और कैथरीन शॉर्ड ने लिस्ट तैयार की। उन्होंने इस सदी की फिल्मों का गहन विश्लेषण किया और विशेषज्ञों से चर्चा भी की।

से 20 साल पहले के समय पर नजर डाले तो सिनेमा फॉर्मूलों में जकड़ कर झटपटा रहा था। पांच फाइट सीन, पांच गाने, पांच कॉमेडी

और पांच इमोशन सीन और फिल्म तैयार

आप देखें तो पैरेलल और कमर्शियल फिल्मों की लाइन ब्लर होने लगी है। समानांतर सिनेमा वर्षों पहले भी बनता था, लेकिन मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में इन फिल्मों के कुछ शो दिखाए जाते थे। इंदौर या भोपाल जैसे छोटे शहरों में फिल्म सोसायटी इनके शो आयोजित करती थी।

सितारे भी कंटेंट वाली फिल्म करने लगे हैं। उन्हें भी पता चला गया है कि यदि वे कुछ नया नहीं देंगे तो दर्शक उनकी फिल्म भी देखने को नहीं आएंगे। आमिर खान दंगल, थ्री इडियट्स, पीके जैसी फिल्में करते हैं। सलमान खान बजरंगी भाईजान या सुल्तान करते हैं। अक्षय कुमार टॉयलेट एक प्रेम कथा और पैडमैन जैसी फिल्में करते हैं। आज से बीस साल पहले इन फिल्मों की पटकथा यदि इन स्टार्स तक लेकर कोई पहुंचता तो वे उसे तुरंत दरवाजा दिखा देते।

नई सदी की फिल्मों के प्रस्तुतिकरण में भी बहुत बदलाव देखने को मिला। कहानी कहने का तरीका बदल गया है। जब हम अनुराग कश्यप की देव डी, अनुराग बसु की बर्फी, नीरज पांडे की स्पेशल 26, श्रीराम राघवन की अंधाधुन देखते हैं तो पाते हैं कि अपनी तकनीकी कौशल के बूते पर वे कहानी को बहुत ही अलग तरीके से पेश करते हैं। रंगों का संयोजन, सिनेमाटोग्राफी, संपादन, साउंड डिजाइनिंग का तरीका बहुत बदल गया है। हालांकि अभी भी तकनीक पर कंटेंट भारी है और यह हमेशा रहना भी चाहिए क्योंकि कांटेंट के बिना फिल्म की आत्मा ही मर जाती है।

हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा की दूरियां भी कम हुई हैं। आज प्रभाष जैसे दक्षिण भारतीय सितारे की फिल्म बाहुबली के रूप में अखिल भारतीय सफलता पाती है। केजीएफ चेप्टर 1 या सई नरसिम्हा रेड्डी की रिलीज हिंदी फिल्मों की तरह होती है। इसमें मल्टीप्लेक्स का भी अहम योगदान है। मल्टीप्लेक्स के कई स्क्रीन होने के कारण दूसरी भाषाओं की उल्लेखनीय फिल्मों का प्रदर्शन भी अब हिंदी भाषी क्षेत्रों में होने लगा है और इस वजह से अच्छी  फिल्मों की तलाश में भटक रहे दर्शकों की कुछ हद तक प्यास बुझ जाती है।

दर्शक अब इम्पर्फेक्ट किरदारों को ज्यादा पसंद करने लगे हैं। खुलापन बढ़ा है। विकी डोनर, मद्रास कैफ, आई एम, इंग्लिन विंग्लिश, पान सिंह तोमर, गैंग ऑफ वासेपुर, अलीगढ़, बर्फी, लंच बॉक्स, क्वीन, हैदर, पीकू, पिंक, मसान, एनएच 10, उड़ान, नील बटे सन्नाटा, न्यूटन, मुक्ति भवन, आंखों देखी जैसी बेहतरीन फिल्में हमें देखने को मिली। इनके विषय इतने अनोखे थे जिन पर फिल्म बनाने की 20 वर्ष पहले कोई सोच भी नहीं सकता था। विक्की कौशल स्टारर उड़ी भारतीय सेना द्वारा उरी में हुए आतंकी हमले के प्रतिशोध के तौर पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है जिसमें 19 हथियारबंद सेना के जवान मारे गए थे। इस फिल्म के लिए कौशल को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसे आलोचकों और दर्शकों की सराहना मिली और यह एक व्यावसायिक हिट बन गई।

सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में पिछले साल के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता, आयुष्मान खुराना ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 पर आधारित एक और महाकाव्य फिल्म वितरित की। उनकी फिल्म ने देश के बड़े मुद्दे की ओर लाखों आंखें मूंद लीं कि लोग इस कानून का पालन नहीं करते हैं और कुछ समुदायों को अभी भी समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

पिछले साल बॉलीवुड में जो 300 करोड़ रुपये से ज्यादा का कलेक्शन करने वाली 2 फिल्में थीं, वो दोनों ही बायोपिक्स थीं- पद्मावत और संजू. एक में 8 सदी पहले की पौराणिक कहानी, तो दूसरी में बीते कुछ दशकों की सच्ची घटनाएं. इन्हें लेकर सवाल और बवाल दोनों ही खूब हुए. पद्मावत की रिलीज के पहले करणी सेना और पुराने राजघरानों की तरफ से ऐतराज. फिल्म में हमारी परंपराओं को गलत रौशनी में दिखाया गया. संजू की रिलीज से पहले तो सब ठीक था.

नए सिनेमा के सहज अंदाज के साथ सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्मों का ये सिलसिला और भी दिलचस्प हो जाता है. न्यूटन, शुभ मंगल सावधान, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, अनारकली ऑफ आरा, स्त्री, सीक्रेट सुपरस्टार, बरेली की बर्फी और हाल ही में आई बधाई हो और लुका छुपी जैसी फिल्मों ने बॉलीवुड के तमाम मिथक ध्वस्त किए. स्टार सिस्टम से लेकर फार्मूला फिल्मों की जो धाक थी, वो इन फिल्मों की कामयाबी के साथ ध्वस्त हो चुकी है. ग्लैमर और स्टार पॉवर से अलग आज के सिनेमा का हीरो है उसकी कहानी. कहानी नई हो या पुरानी, इससे फर्क नहीं पड़ता. दर्शकों ने अपना इशारा साफ कर दिया है कि यदि फिल्म सहज है, उसके किरदार और उनकी कहानी दिल को छूती है, तो वो फिल्म देखने जरूर जाएंगे. उनके लिए सितारा कोई मायने नहीं रखता.

यदि अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने वाले मध्य भारत के ठग्स पर भी बनी ठग्स ऑफ हिंदोस्तान जैसी फिल्म उन्हें बनावटी लगती है, तो वो अपने चेहेते सितारों के बावजूद भी उसे नकार सकते हैं. वो शाहरुख खान को भी नकार सकते हैं अगर जीरो जैसी फिल्म में अगर वो कहानी और अदाकारी की नई उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते. वो सिर आंखों पर बिठा सकते हैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी, आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव, कार्तिक आर्यन और पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकारों को, जो अपने-अपने किरदारों में दर्शकों के बीच से उठाए लगते हैं. वो गल्ली बॉय जैसी फिल्म को को गले लगा सकते हैं. अगर फिल्म की कहानी में असल जिंदगी का संघर्ष और सपने सच करने की चुनौतियां अपने जैसी लगे.

नाटक के जरिये दिखाई अटल जी की जीवन यात्रा

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पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न श्री अटल बिहारी बाजपेई की तृतीय पुण्यतिथि पर “मेरी यात्रा अटल यात्रा” नाटक का मंचन किया गया। इस अवसर पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अटल जी को अजातशत्रु बताते हुए कहा कि उनका जीवन राष्ट्र को समर्पित था। उन्होने कहा कि आज अटल जी के सिद्धांतों की तरह मूल्यों कि राजनीति होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री बृजेश पाठक के मार्गदर्शन व सौजन्य से आयोजित एकल नाटक “मेरी यात्रा अटल यात्रा” का लेखन व निर्देशन चंद्रभूषण सिंह बॉलीवुड एक्टर, प्रोड्यूसर व डायरेक्टर ने किया। जो पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद दर्शन पर आधारित नाटक ” प्रचारक” का लेखन व मंचन कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने भारत रत्न डॉक्टर अब्दुल कलाम की बायोग्राफी का नाट्य रूपान्तरण और मंचन भी किया है। चंद्रभूषण बॉलीवुड की चार फिल्मों में अभिनेता के तौर पर काम कर चुके हैं । अटल जी के जीवन पर आधारित नाटक  उनकी जीवन यात्रा पर आधारित है जिसमें उनकी प्रथम कविता से लेकर आखिरी कविता और कई अन्य कविताओं को जोड़ते हुए उनके जीवन को दर्शाने का प्रयास किया गया है। नाटक में अटल जी के किरदार को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 2015 बैच के स्नातक श्री विपिन कुमार ने जीवंत किया । इस नाटक का पहले देश में 6 स्थानों पर मंचन हो चुका है। अटल जी के पसंदीदा शहर ग्वालियर और राजधानी दिल्ली में भी इसका मंचन हो चुका है।   नाटक के मुख्य कलाकार विपिन कुमार का लखनऊ में यह छठा शो है। चंद्रभूषण सिंह का लेखन व निर्देशन परिकल्पना सरहनीय है । नाटक दर्शकों पर अपना प्रभाव छोडने में सफल रहा। इस नाटक में मेकअप धर्मेंद्र का था जबकि प्रकाश व्यवस्था अंकित सती ने की थी।

आजादी के 75 साल : नई लड़ाई में भटकें नहीं

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समीर सूरी

कहा जाता है कि एक बार सभी बुद्धिजीवी एक साथ स्वर्ग पहुँचे पर वहाँ जगह खाली नहीं थी। दुर्भाग्य से

 वहाँ केवल एक के लिए ही जगह उपलब्ध थी। उस एक जगह के नीतिगत आवंटन के लिए भगवान ने अच्छे और बुरे कर्मों का खाता खोल कर बाँचा । अरे ये क्या? इसमे सभी के कर्म समान थे। फिर उन्होंने सभी से एक ही सवाल किया । इस सवाल का सही उत्तर देने वाले को ही स्वर्ग में स्थान मिलना था। सभी को अपनी – अपनी क्षमता पर भरोसा था इसलिए सभी ने शर्त मान ली।

सवाल था “आप एक कार में चार हाथियों को कैसे बिठाएंगे?” सवाल मुश्किल था लेकिन कोई रास्ता नहीं था, इसलिए जवाब तैयार किए गए थे।

ब्यूरोक्रेट “दो आगे और दो पीछे”

यूनियन नेता”पहले बातचीत करेंगे फिर उन्हें सीट देने के बारे में सोचेंगे”

समाजवादी “हर हाथी एक के बाद एक बैठेगा”

उद्योगपति “उसे मेरी कार में बिठाओ, यह बेहतर माइलेज देती है”

सामंतवादी “जब हम यहाँ हैं तो हाथी कार में कैसे बैठ सकता है”

महिला कार्यकर्ता “दो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होनी चाहिए।”

राजनेता “हाथी (धर्म) एक साधारण जानवर है। इसे कार (राजनीति) से दूर रखना चाहिए”

पूंजीवादी “हाथी मादा लाओ और उत्पादन बढ़ाओ”

धार्मिक नेता “यह पश्चिमी सभ्यता (कार) हमारी सभ्यता (हाथी) को नष्ट कर रही है”

कम्युनिस्ट “यह एक पूंजीवादी चाल है”

आम आदमी “मैं टहल कर आता हूँ”

यह सिर्फ एक मज़ाक है। हमें नहीं पता कि भगवान ने क्या निर्णय दिया लेकिन आम आदमी के जवाब में हताशा है। दिन- ब- दिन बढ़ता भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, धार्मिक कट्टरता, राजनेताओं का गिरता स्तर, बढ़ता उपभोक्तावाद सब आम आदमी पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है लेकिन वह हल खोजने में असमर्थ है। आम आदमी जब राजनेता या उद्योगपति बनता है तो खुद को व्यवस्था का हिस्सा मात्र पता है। वह राजनेता, कलाकार, खिलाड़ी, धार्मिक नेता या गैर सरकारी संगठन सभी को बारी – बारी आजमाता है। समाधान के लिए इन सबका मुह ताकता है, परखता है व खुद को इनको समर्पित कर देता है। अंततः उसे यह लगता है कि सभी इस व्यवस्था का हिस्सा हैं। वास्तव में यह व्यवस्था बेहद पतित है और सभी किस बुरी तरह से इसकी जकड़न में हैं। यह व्यवस्था जर्जर और खोखली हो चुकी है। सभी इसे धराशायी होने से बचाने के लिए प्रयास कर कर रहे हैं। समय – समय पर सामाजिक और धार्मिक मान्यताएँ हमें विरोध करने से रोकती हैं। हमारी संस्कृति और मान्यताएँ हमें सहिष्णु होना सिखाती हैं । यह हमारी दिनचर्या में इतनी गहराई से जड़ें जमा चुका है कि हमें इसके बारे में पता भी नहीं है। जो कोई भी कहीं भी और किसी भी रूप में विरोध करता है उसे विद्रोही करार दे दिया जाता है। हमारे सामाजिक जीवन में यथास्थितिवादी मानसिकता इतनी गहरी पैठ बना चुकी है कि ऐसा लगता है इसे बदलने में दशकों लगेंगे। जुगाड़, एडजस्टमेंट, प्रैक्टिकल, मंडवाली हमारी दैनिक शब्दावली में इस्तेमाल होने वाले शब्द बन चुके हैं ।

हमारा समाज खुद यह इजाजत नहीं देता कि हम व्यवस्था में बदलाव करें। अपनी परम्पराओं, मान्यताओं को बिना प्रश्न सूचक मानने को बाध्य करता है। पहले हमारी अपनी व्यवस्था, मान्यताएं और फिर अंग्रेजों की अधीनता ने हमारे विकास को बाधित किया। हमने अधीनता से छुटकारा पाया लेकिन उस मानसिकता से नहीं।

हमारी सामाजिक संस्था हमें प्रगतिशील होने के बजाय पीछे हटने के लिए मजबूर करती है। हमें आगे बढ़ने से डराने के लिए एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है, जैसे युवाओं में बढ़ते पश्चिमीकरण को पेश करना, या पश्चिमी संस्कृति के सामाजिक दिवालियेपन जैसे अत्यधिक तलाक दर या योनिक खुलापन या प्रगति के नाम पर नग्नता को प्रदर्शित करना। वर्तमान दुनिया की भौतिकता (भले ही थोड़े समय के लिए) हमें यह मानने के लिए मजबूर करती है कि हमारा पिछला समाज उन्नत था। हम पश्चिमी लोगों की कमियों को पेश करने में शर्म महसूस नहीं करते हैं लेकिन अगर कोई हमारी अपनी कमियों को प्रस्तुत करता है तो हम आहत होते हैं। हम अपनी सदियों पुरानी शांति और संस्कृति की सभी मर्यादाओं को त्याग कर किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।

हमारे धर्मग्रंथ रामायण का पहला श्लोक संवेदनशीलता का बेहतर उदाहरण है —

मा निषाद प्रतिष्ठऻ त्वमगमः शाश्वती: समा: ।  यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी  काममोहितम्  ॥

हे निषाद ! तुमको अनंतकाल तक (प्रतिष्ठा) शांति न मिले, क्योंकि तुम ने प्रेम, प्रणय-क्रीडा में लीन असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी। निषादका धर्म है पंछियों को पकड़ना लेकिन वह भी नियम और सम्वेदनशीलता से परे नहीं है।

हमारा पहला स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों के खिलाफ था। अंग्रेजों ने अगर गोलियों में मांस नहीं मिलाया होता तो हम अगले पचास वर्षों के लिए अपने पहले स्वतंत्रता संग्राम से वंचित रह जाते। अंग्रेज़ चालक थे उन्होंने यह गलती दोबारा नहीं की । उन्होंने धर्म का इस्तेमाल बखूबी अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए किया । धर्म में हस्तक्षेप ना करके उन्होंने और नब्बे वर्ष तक हमारे देश में शासन किया । अंग्रेज़ो के राज में आम जनता त्राहि त्राहि कर रही थी। किसी कि कोई सुनवाई नहीं थी। लोगों में शासन के प्रति भयंकर आक्रोश था। आज का राजनेता भी उसी रास्ते पर चल रहा है लेकिन हम उसे दोष नहीं देते क्योंकि वह हम में से एक है। वह विदेशी नहीं है। जहाँ तक शासन के तरीकों की तुलना करने की बात है तो आज के राजनेता अंग्रेजों से बहुत आगे हैं। वह जनता की अज्ञानता को मिटाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं। वह केवल अपने लाभ के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए वह हमारे सामाजिक पिछड़ेपन का पूरी तरह से उपयोग करते हैं और हम अपने सामने हो रहे इस नाटक के दर्शक मात्र हैं या इसका हिस्सा बनने के लिए मजबूर हैं। हम वास्तविक मुद्दों से भटक रहे हैं जो हमें घेर रहे हैं।

आइये स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर अज्ञानता और गलत मान्यताओं और बंधन की बेड़ियों को तोड़ने का संकल्प लें । हम संकल्प लें कि हम किसी के बहकावे में आकार अपने वास्तविक उद्देश्य से भटकेंगे नहीं। आइये , एक नया भारत बनाने का संकल्प लें, जहां कतार का अंतिम व्यक्ति भी खुशहाल होगा। युवाओं के पास रोजगार होगा। हमारी धार्मिक मान्यताएँ हमें तोड़ने का नहीं जोड़ने का काम करेंगे । सबको सवास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी । कोई बच्चा शिक्षा से महरूम नहीं होगा। पूंजी का असमान वितरण नहीं होगा। सभी खुशहाल और सम्पन्न होंगे।