Monday, December 15, 2025
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आजादी के समय लौह पुरूष ने कहा था  : “एक हजार साल हमने 80 फीसद हिन्दुस्तान एक किया”

देश की आजादी लगभग तय हो चुकी थी लेकिन इस आजादी की कीमत अंग्रेज देश के कई टुकड़ों की रूप में वसूल करना चाहते थे! अलग- अलग रियासतें अपना राज्य चाहती थीं तो पाकिस्तान की मांग चरम पर पहुँच गई थी! देश में आपसी नफ़रत का महल पनपने लगा था! अंग्रेज चाहते भी यही थे कि आजाद भारत पूरी तरह से खंडित और अशांत हो! ऐसे में देश को एक करने के बीड़ा उठाया महापुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने! आज इसी महापुरुष की जयंती है! भारत के लौहपुरुष के नाम से जाने- जाने वाले सरदार पटेल का आजादी के बाद भारत के एकीकरण में सबसे महत्वपूर्ण योगदान था, इसलिए उन्हें राष्ट्रीय एकता का प्रणेता माना जाता है। उनका जन्मदिन देश भर में राष्ट्रीय एकता दिवस के तौर पर मनाया जाता है। देश के पहले उप प्रधानमंत्री और भारत रत्न सरदार ने खुद माना कि उस समय के हालात में देश का बंटवारा ही एकमात्र रास्ता था!

सरदार वल्लभ भाई पटेल की किताब ‘भारत की एकता का निर्माण’ में उन्होंने विस्तार से लिखा है…

“ हमने हिंदुस्तान के टुकड़े किए जाना कबूल कर लिया। कई लोग कहते हैं कि हमने ऐसा क्यों किया और यह गलती थी। मैं अभी तक नहीं मानता कि हमने कोई गलती की। साथ ही यह मानता हूं कि अगर हमने हिंदुस्तान के टुकड़े मंजूर नहीं किए होते तो आज जो हालत है, उससे भी बहुत बुरी हालत होनेवाली थी। तब हिंदुस्तान के दो टुकड़े नहीं, बल्कि अनेक टुकड़े हो जानेवाले थे। मैं आपको इस बात की गहराई में नहीं ले जाना चाहता हूं, लेकिन यह बात मैं अनुभव के आधार पर बताना चाहता हूं। मेरे सामने वह सारी तस्वीर है कि हम किस तरह एक साल सरकार चला पाए थे और अगर हमने यह चीज कबूल न की होती तो क्या होता? लेकिन वे सारी बातें मैं आपको बताऊंगा तो बहुत वक्त लग जाएगा।

आप इतना भरोसा रखें कि जब मैंने और मेरे भाई पं. नेहरू ने यह कबूल किया कि अच्छा ठीक है, अगर बंटवारा जरूरी है और इसके बिना मुसलमान नहीं मानते, तो हम इसके लिए भी तैयार हैं। जब तक हम परदेशियों को न हटा दें, विदेशी हुकूमत न हटा दें, तब तक रोजाना ऐसी हालत होती जाती थी। हमें साफ तौर से दिखाई दिया कि हिंदुस्तान का भविष्य नहीं रहेगा और परिस्थिति काबू से बाहर चली जाएगी। इसलिए हमने सोचा कि अभी दो टुकड़े करने से काम ठीक हो जाता है तो वैसा ही कर लो।

हमने मान लिया कि ठीक है, अलग घर लेकर अगर अपना भाई शांत हो जाता है और अपना घर संभाल लेता है तो हम अपना घर संभाल लेंगे। लेकिन हमने यह बात इसी उम्मीद से मानी थी कि हम शांति से अपना काम करेंगे। उसमें हमारी गलती हुई। मैं यह नहीं कहता कि टुकड़े करने में हमारी गलती हुई, गलती इसमें हुई कि टुकड़े करने के बाद हमने वह काम किया जो नहीं करना था। आजादी के बाद दुनिया में हमारी इज्जत बढ़ी थी और 15 अगस्त के बाद दुनिया में हमारी एक जगह बन गई थी। हम उससे बहुत नीचे गिर गए।

दूसरे देशों के लोग यह शक करने लगे कि हम लोग हुकूमत करने के लायक भी हैं या नहीं? कई अंग्रेज लोग ऐसे भी थे जो समझते थे कि जब हिंदुस्तान का किनारा छोड़कर जाएंगे तो मुंबई (तब बंबई) के बंदरगाह पर लोग आएंगे और कहेंगे कि तुम इस देश से मत जाओ, यहीं रहो। वे मानते थे कि हम अपना राज नहीं चला सकेंगे। अब वहां तक तो हम नहीं गिरे और हमने एक तरह से तो हिंदुस्तान को ठीक कर लिया।

जब बंगाल अलग हुआ तो बंगाल में गांधी जी बैठे थे, इसलिए उन्होंने वहां की हालत को संभाल लिया। उम्मीद से भी कहीं अच्छी तरह संभाला। उससे दुनिया पर बहुत असर पड़ा। हम पर भी असर पड़ा। मुल्क पर भी असर पड़ा। लेकिन पंजाब में जो हुआ, वह बहुत ही बुरा हुआ। पंजाब और उत्तर पश्चिम के सरहदी प्रांत में जो अत्याचार हुआ, उसे बयान करने में दिल फटा जाता है। पंजाब तो हिंदुस्तान का सिर है। इस तरह जख्मी देश को उठाने के लिए हम सबने बहुत कोशिश की। बाकी हिंदुस्तान को हमने संगठित कर लिया, वह होश में आ गया और सावधान हो गया।

जब तक हिंदुस्तान का पूरी तरह से ह्रदय परिवर्तन न हो जाए और जैसे देश को काम करना चाहे, वह न करे तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा। तब तक गांधी जी को चैन नहीं आएगा, वह बेचैन हैं। उनको दिल्ली में छोड़कर आया हूं तो मुझे भी बहुत दर्द हुआ है। (उन दिनों गांधी जी दिल्ली में अपने जीवन का अंतिम उपवास कर रहे थे।) लेकिन यहां न आता तो भी मुसीबत थी। जो बात दिल से बात निकलनी चाहिए, जल्दी-से वह निकलती भी नहीं, उसमें इतना दर्द भरा है।

हमने हिंदुस्तान को एक तरह से बांध तो लिया। अब हमारी कोशिश हैं कि हिंदुस्तान को उठाओ। इसमें हमें आपका साथ मिल जाए तो लगेगा कि बहुत कुछ नहीं गंवाया है। करीब एक हजार साल के बाद हमारे पास यह मौका आया है कि 80 फीसदी हिंदुस्तान हमने एक कर लिया है। मौके का सही इस्तेमाल करें तो हम दुनिया के दूसरे बड़े-बड़े मुल्कों के साथ बैठ सकते हैं और सारे एशिया की नेतागिरी कर सकते हैं।

15 अगस्त के बाद हमने बहुत काम किया। उस काम से हमारी गिरी हुई प्रतिष्ठा फिर से हमें मिलने लगी क्योंकि दुनिया देख रही थी कि इन लोगों पर क्या बोझ पड़ा है। हिंदुस्तान की मौजूदा सरकार की जगह दूसरी कोई सरकार होती तो क्या करती, यह भी दुनिया जानती थी। बहुत-से मुल्क अब यह सोचने लगे हैं कि जैसा वे हमें समझते थे, हम लोग वैसे बुरे नहीं हैं। हिंदुस्तान की जड़ें बहुत मजबूत होती जा रही हैं और उनको वे हिला नहीं सकेंगे।

4 महीने में दो प्रांतों के टुकड़े किए और कई प्रांतों में जनमत लिया। असम में से एक टुकड़ा निकाल लेने का हौसला भी कर लिया गया। बंगाल और पंजाब के टुकड़े किए। इन्हीं चार महीनों में पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच सारी पुरानी मिल्कियत का भी हमने हिस्सा-बांट कर लिया। अब एक कुटुम्ब में भी दो भाइयों के बीच भी अगर मिल्कियत का हिस्सा करना हो तो वह काम एक दिन में नहीं हो जाता और उसका हिसाब-किताब करना पड़ता है, उसकी जायदाद का माप निकालना पड़ता है, कभी पंचों की भी जरूरत पड़ती है। कभी झगड़ा भी होता है। यह सब निपटाने में वक्त लगता है तो हिंदुस्तान की मिल्कियत का, जमीन-जायदाद का, जितनी हमारी दौलत थी, जितना हमारा कर्ज था, जितनी लोगों की सिक्योरिटीज थीं, सब का हिसाब करना था। इन सब चीजों का हमने फैसला किया और आपस में बांट लिया। इस काम में हमने किसी पंच को नहीं बुलाया ।

पिछले 4 महीनों में हमने न केवल यह सब किया, बल्कि इसके साथ-साथ लाखों आदमी पंजाब में एक तरफ से दूसरी तरफ गए और दूसरी तरफ से इस तरफ ले आए गए। अभी तक यह काम पूरा नहीं हो पाया, लेकिन करीब-करीब पूरा कर लिया है। समय आया है कि इस काम में जो मुसीबत आई थी, आपको उसके बारे में बताऊं। एक लंबा-सा, 60-60 मील का लंबा पैदल चलता जुलूस एक तरफ से दूसरी तरफ के लिए चला, तो दूसरा उस तरफ से इस तरफ के लिए। 10-10 लाख आदमी एक साथ, जिनमें लाखों बच्चे और औरतें थीं, एक तरफ से दूसरी तरफ गए या आए। जो जिंदा थे, वे गाड़ी, बैल, भैंस सभी कुछ लेकर चलते-चलते निकले। साथ में थोड़ी-सी पुलिस या थोड़ी-सी फौज ही होती थी। ऊपर से मूसलाधार बारिश, नीचे भी पानी ही-पानी भरा था। बच्चों और औरतों तक के पास का कपड़ा नहीं, खाने का इंतजाम नहीं।

दो-दो महीनों तक इस तरह से लोग चलते ही रहे। तभी हैजा फैला और सैकड़ों हजारों लोग मरने लगे। इसी हालत में अमृतसर शहर के बीच में से मुसलमानों का जुलूस उधर जाने को हुआ। अमृतसर हिंदुओं और सिखों से भरा हुआ था। सिखों ने इनकार किया कि इधर से ये मुसलमान लोग नहीं जा सकते। वह 60 मील का लंबा जुलूस अब वहीं पड़ा था। इधर इन लोगों ने जिद पकड़ी कि नहीं जाने देंगे। उधर दूसरी तरफ हमारे जुलूसों को भी रोक लिया गया। लोग गुस्से में भरे हुए थे। अपने मकान जले हैं, बीवी-बच्चे कत्ल हो गए हैं, खाने-पीने की भी कोई चीज नहीं बची। आंखें लाल हैं और तलवार लेकर निकल आए कि नहीं जाने देंगे। तब फौज से भी यह काम नहीं होता। फौज आखिर बंदूक चलाकर कितने हिंदुओं को मारे? कितने सिखों को मारे? तब मैं अमृतसर गया। सिख लीडरों को बुलाया और बातचीत की।

मैंने कहा, ‘यह क्या कर रहे हो आप? आप 10 लाख मुसलमानों को इधर रोक लोगे। 10 लाख हिंदू और सिख वहां रुके पड़े हैं। उन अभागों के ऊपर पानी बरस रहा है, नीचे भी सब पानी है। कपड़े भीगे हैं, नींद नहीं है, खाना नहीं है और हैजा शुरू हो गया है। इस तरह जुलूस को रोककर क्या फायदा?’ मैंने अनुरोध किया कि मेरी बात मान लो। अगर हमें लड़ना ही है तो दुनिया के लोग भी देखें कि यह लड़ने वाले बहादुर लोग हैं। आपकी तलवार कमजोरों पर चलेगी तो उससे क्या फायदा होगा? पटियाला महाराज ने भी मेरा साथ दिया। सिख नेता मान गए। अमृतसर में मेरे एक नोटिस पर 1.5 लाख आदमी जमा हो गए। मैंने कहा, ‘आपका काम यह है कि आप सरकार की मदद करें, ताकि हमें पुलिस और फौज का इस्तेमाल न करना पड़े। आप वालंटियर बनकर मुसलमानों को इधर से निकल जाने दें और उधर जो हमारे हिंदू और सिख भाई पड़े हैं, उनको इधर लाने में मदद दें। 50 लाख आदमी हमें वहां से इधर लाने हैं, 40 लाख आपको इधर से वहां भेजने हैं। वहां कई आरएसएस वाले लोग थे। मैंने उन्हें भी समझाया। मुझे खुशी हुई कि बाद में हमारे सिखों और हिंदू भाइयों ने बहुत अच्छी तरह से काम किया।’

(पुस्तक से साभार)

मुहब्बत, गीतों एवं शायरी की दुनिया का ‘साहिर’ एहसास

गीतकार साहिर लुधियानवी पर विशेष  

दिलीप कुमार

लेखक

“मैं पल दो पल का शायर हूँ पल दो पल मेरी कहानी है

पल दो पल मेरी हस्ती है  पल दो पल मेरी जवानी है

मुझसे पहले कितने शायर आए और आकर चले गए

कुछ आहें भर कर लौट गए कुछ नग़मे गाकर चले गए”

साहिर पल दो पल के नहीं मानवीय सभ्यता के शायर थे, जब तक मानवीय सभ्यता है, साहिर भी रहेंगे, क्या पता साहिर ने यह गीत मोहिल लोगों के लिए लिखा हो, लेकिन साहिर तो अनन्त तक रहने वाले शायर थे.

” ये दुनिया मिल भी जाए तो क्या है” जैसा यथार्थ भाव, वहीँ

“चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जाएं हम दोनों” जैसे दर्द के नग्मे लिखने वाले

                         महान गीतकार साहिर लुधियानवी आज अपने सामाजिक सरोकार की आवाज़ दर्द के नगमों एवं बेपरवाह मुहब्बत के लिए जाने जाते हैं. शब्दों की कारगुजारी ऐसी की सुनने – पढ़ने वाले को डुबो कर रख दे.  शब्दों के साथ  भावों का ज्वार उकेरने वाले साहिर अगर याद हैं, तो यह उनकी कलम की ताकत थी, हर परिस्थिति में उनके नग्मे जुबां पर आ ही जाते हैं,  शब्दों का ग़ज़ब का तानाबाना  ये तिलिस्म साहिर का ही हो सकता है, साहिर वाकई शब्दों के साथ भावों के भी बेताज बादशाह थे. जिन्होंने कई पीढ़ियों को अपने साथ जोड़े रखा है.

साहिर को भावों के अथाह सागर में जैसी गहराई के लिए विख्यात उनकी शायरी के लिए तो याद किया ही जाएगा, लेकिन साथ ही उन्हें हिन्दी सिनेमा में गीतों को एक नई पहचान और मुकाम देने के लिए भी हमेशा याद रखा जायेगा. कई पीढ़ियां उनके गीतों शायरी लेखन के लिए शुक्रगुजार हैं, कि अगर साहिर थे, तो कोई बात थी. साहिर कहते थे “कि लिखने वालों के लिए यादें सिर्फ़ यही हैं कि लोग आपको कितना याद करते हैं, वो आपको खुद कमाना पड़ता है, साहिर को यह भी शौक़ नहीं था, वो तो हमेशा कहते कि कभी तो दुनिया भी मेरे नग्मे गाएगी… साहिर ने ठीक ही कहा था, आज भी कई पीढ़ियों के बाद भी दुनिया उनके नग्मे गा रही है.

साहिर से पहले गीतकारों का गाना बजाते समय कभी भी गीतकारों का उल्लेख नहीं होता था. साहिर के कारण ही  रेडियो पर गीतकारों का होने उल्लेख होने लगा. बड़ी दिलचस्प बात है कि साहिर लुधियानवी पहले ऐसे भारतीय गीतकार थे, जिन्हें अपने गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी. उनके प्रयासों के कारण ही संभव हो पाया कि आकाशवाणी, रेडियो, पर बजने वाले गानों के प्रसारण के पहले  गायक तथा संगीतकार के अलावा गीतकारों के नाम का भी उल्लेख किया जाने लगा. इससे पहले तक गानों के प्रसारण वक़्त सिर्फ़ गायक एवं संगीतकार का नाम ही उद्घोष होता था, लेकिन साहिर ने इस लकीर को मिटा दिया. कहते हैं, हर  पेशे में कोई ऐसा एक पैदा होता है, जो सारी रूढ़िवादी सोच को मिटा देता है. गीतकारों को भी प्रत्यक्ष ख्याति मिलने का कारण भी साहिर को बनना पड़ा.

कहते हैं कि इस सांसारिक जीवन में हर व्यक्ति को अपने संघर्ष को जीना पड़ता है, संघर्ष जो आपको सिखा सकता है, वो कोई पाठशाला नहीं सिखा सकती, लुधियाना के एक जागीरदार मुस्लिम परिवार में जन्मे साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी था. कॉलेज की शिक्षा के बाद वे लुधियाना से लाहौर चले गए और उर्दू पत्रिकाओं में काम करने लगे. इससे पहले घर से निकल गए क्योंकि जमा नहीं, सच है अगर साहिर ने खुद अपने हिस्से में धूप – छांव नहीं देखी होती तो  दर्द, मुफलिसी, आदि को कैसे उकेरते, मुहब्बत के तो क्या ही कहने साहिर बेपरवाह मुहब्बत के लिए आज भी याद किए जाते हैं. साहिर जागीरदार होते हुए भी फ़कीर रहे, आजीविका के लिए खूब सारी नौकरियां भी कीं, लेकिन साहिर को तो इसके बरअक्स कुछ करना था. लाहौर में रहते हुए उनके एक बयान  को विवादास्पद मानते हुए  पाकिस्तान सरकार ने उनकी ग़िरफ़्तारी के वारन्ट निकाले तो 1949 में लाहौर छोड़ कर साहिर भारत आ गए, बंबई को अपना ठिकाना बनाया. और जुड़ गए हिन्दी सिनेमा से जहां रच डाले सदियों तक गुनगुनाने वाले नग्मे…..

सन 1949 में फिल्म आजादी की राह पर के लिए उन्होंने पहली बार गीत लिखे, लेकिन प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, से मिली. नौजवान फिल्म में संगीतकार बर्मन दादा थे.

ठंडी हवाएँ, लहरा के आयें रुत है जवां तुमको यहाँ, कैसे बुलाएँ ठंडी हवाएँ…इस गीत को लिखने के बाद साहिर लुधियानवी नाम का जिक्र लिटरेचर की दुनिया से हटकर थोड़ा सिनेमा, संगीत पर होने लगी. इस गीत पर संगीत कार बर्मन दादा ने शास्त्रीय संगीत पद्धति थाट बिलावल के राग बिहाग पर संगीत रचा, जो हिन्दी सिनेमा एवं संगीत में मील का पत्थर साबित हुआ. इस फिल्म के गानों की आपार सफलता के बाद बर्मन दादा एवं साहिर दोनों सफलता की गारंटी, के साथ ही दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए. बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी कभी जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिए गीत लिखे. विद्वान लोग कहते हैं “कि बहुत ज़हीन लोग कम समझ आते हैं क्यों कि उनके अन्दर एक कोने में सिरहन पैदा करने वाली ख़ामोशी होती है, वहीँ एक कोने में असंतुलित कर देने वाला शोर होता है. बर्मन दादा एवं साहिर लुधियानवी दोनों अपनी – अपनी प्रतिभा में पूरा का पूरा अध्याय थे. एक दौर में एस डी बर्मन दादा, साहिर साहब, देव साहब एवं गुरुदत्त साहब आदि के ग्रुप में रहकर काम करते थे, कहते हैं कि बर्मन दादा एवं साहिर की प्रतिभा का फायदा सबसे ज्यादा देव साहब एवं गुरुदत्त साहब को अपने फ़िल्मों में यादगार संगीत के कारण हुआ. दोनों ने यानि देव साहब एवं गुरुदत्त साहब ने दोनों की प्रतिभा को यानि बर्मन दादा एवं साहिर को खूब सराहा, एवं खूब फायदा कमाया .

 गुरुदत्त साहब 1957 में फिल्म ‘प्यासा’ बना रहे थे. इसी दौरान एसडी बर्मन दादा और साहिर लुधियानवी के बीच कुछ अनबन हो गई. इस झगड़े की वजह था गाने का क्रेडिट किसको कितना मिले, उसके गीतकार को या संगीतकार में किसको ज्यादा मिलना चाहिए. बर्मन दादा के जीवन पर किताब लिखने वाली लेखिका सत्या सरन ने लिखा कि, ‘मामला इस हद तक बढ़ा कि साहिर, बर्मन दादा से एक रुपया अधिक फीस चाहते थे, साहिर का तर्क ये था कि बर्मन दादा के संगीत की लोकप्रियता में उनका बराबर का हाथ है. ज्यादा ज़हीन लोग ज्यादा समझौते के लिए नहीं जाने जाते वो कब क्या करेंगे, कोई नहीं जानता, तो बर्मन दादा ने कहा कि एक रू. ज्यादा मांगने का अर्थ है आप ज्यादा काम कर रहे हैं, मैं कुछ भी नहीं…आखिकार एसडी बर्मन दादा ने साहिर की शर्त को मानने से इंकार कर दिया और फिर दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया. बाद में बर्मन दादा की जोड़ी मजरुह सुल्तानपुरी के साथ ज़मी. बर्मन दादा अपनी अंतिम साँस तक मजरुह सुल्तानपुरी के साथ काम करते रहे.

हिन्दी सिनेमा में दो लोग स्वच्छंद आकाश थे, कभी भी ग्रुप का हिस्सा नहीं बने, एक साहिर लुधियानवी दूसरे ग्रेट मुहम्मद रफी साहब….

              लगभग सभी बड़े स्टारों के साथ काम किया, शुरू में देखा जाए तो राजकपूर के साथ, शैलेन्द्र, शंकर – जयकिशन एवं मुकेश की तिकड़ी अंतिम साँस तक जुड़ी रही, इनकी प्राथमिकता, राजकपूर ही थे, बाद में दूसरों के लिए हालांकि सबसे ज्यादा राजकपूर के लिए इन शख्सियतों ने काम किया.

देव साहब की फ़िल्मों में सबसे अच्छा संगीत मिलता है आज तक हिन्दी सिनेमा में देव साहब से अच्छा संगीत किसी के पास नहीं है, हालाँकि राजकपूर की फ़िल्मों में जरूर है, लेकिन देव साहब की फ़िल्मों का तो अद्वितीय है. देव साहब के साथ बर्मन दादा, किशोर कुमार, शुरू शुरू में कुछ वक़्त के लिए साहिर लुधियानवी जुड़े लेकिन अलग हो गए फिर मजरुह सुल्तानपुरी, उसके बाद गोपाल दास नीरज जुड़े. एक दूसरे के साथ सतत काम किया.

दिलीप साहब ने अकूत लोकप्रियता हासिल की, ट्रेजडी किंग बने, लेकिन उनकी लोकप्रिय फ़िल्मों में भी संगीत उतना गहरा नहीं है, कई बार लगता है कि उनकी फ़िल्मों में संगीत के नाम पर रस्म अदायगी है, चूंकि दिलीप साहब ने कभी किसी भी अपना स्टुडियो, आदि नहीं बनाया, हालाकि दिलीप साहब के साथ नौशाद अली हमेशा होते थे, साहिर को भी अपने साथ करने की कोशिश की लेकिन साहिर ग्रुप बनाकर काम नहीं करना चाहते थे, यही बात मुहम्मद रफी साहब कहते थे, दिलीप साहब ने रफी साहब को भी अपना ग्रुप बनाकर शामिल करना चाहा, लेकिन बात नहीं बनी, कुलमिलाकर साहिर लुधियानवी मुहम्मद रफी साहब की भाँति स्वच्छन्द आकाश बने रहे, सभी के साथ काम किया, इसलिए भी, साहिर लुधियानवी सबसे जुदा थे.  हमेशा अपनी यादगार लेखनी एवं बेमिसाल दर्द भरे नगमों के लिए हमेशा यादों में रहेंगे.

हिन्दी सिनेमा की फ़िल्मों के लिए लिखे उनके गानों में पूर्णता उनकी शख्सियत झलकती है. उनके गीतों में संजीदगी कुछ इस कदर समाहित है, है जैसे ये उनके जीवन से जुड़ी हों. उनका नाम जीवन के विषाद, प्रेम में जुनून के बरअक्स बेपरवाह है,सामजिक सरोकार को क्या खूब उकेरा, साहिर को पढ़ने से पता चलता है कि शायर का विषय केवल प्रेम नहीं, सामजिक सरोकार भी होता है. सियासत नुमा हाथी जब मतवाला हो जाए तो  उस विशालकाय हाथी को अपने कलम की ताकत से पकडकर घुटनों के बल बिठाने का हुनर भी साहिर का एक अंदाज़ था. सियासती लोगों के लिए साहिर की लेखनी की दहशत भी विख्यात है. साहिर अपने अंदाज़ के लिए गीतकार और शायरों में शुमार है.

हीर-रांझा, लैला-मजनूं या रोमियो-जूलियट, इन्हें गुजरे हुए जमाने बीत गए. मगर इनकी मोहब्बत आज भी जिंदा है. आज भी इनके इश्क के किस्से लोगों को रोमांचित करते हैं. मुहब्बत के बारे में साहिर का कहना है, “दिलचस्प बात ये भी है कि मंजिल पर पहुंचते-पहुंचते प्रेम अक्सर लड़खड़ा जाता है. साहिर खुद की मुहब्बत के लिए लिखते हैं

” वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन

उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा”.

 साहिर और अमृता का प्यार भी रूहानी था, नमुकम्मल इश्क़ की दास्ताँ आज भी गाई जाती है, उस दौर में बगावती मगर आदर्शो को स्थापित करते साहिर उनके इश्क़ में  चाय का एक झूठा कप, जली हुई सिगरेट के टुकड़े, ढेर सारे अफ़साने, मुड़े हुए खत, साहिर और अमृता के प्रेम की निशानियाँ  आज भी मुकम्मल न हो सके प्रेमियों को हौसला देते हैं.

अमृता प्रीतम के साथ इमरोज़ को देखकर साहिर ने कहा कि

“महफिल से उठकर जाने वालों

तुम लोगों पर क्या इल्जाम

तुम आबाद घरों के वासी

मैं आवारा और बदनाम”.

उनके कुछ यादगार शेर:

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें

वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं

देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से

चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं

तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी

हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़

गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही

तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूँडो

चाहा था तुम्हें इक यही इल्ज़ाम बहुत है

“औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया”

हिन्दी सिनेमा की दुनिया के वे बेहद लोकप्रिय गीतकार साहिर आज भी प्रेमी गलियों में गुनगुनाए जाते हैं. टूट चुके प्रेमी की शराब की बॉटल से ज्यादा उनके नग्मे गुनगुनाते आशिक मिल जाते हैं, किसी न किसी राह पर, निरंकुश हो चुकी सत्ता को चुनौती देते लोगों के लहजे में भी साहिर दिख जाते हैं, साहिर एक सक्रिय व्यक्ति को जीवन के हर मोड़ पर मिलते हैं. य़ह उनका तिलिस्म आज भी कायम है, उनकी रूहानी मुहब्बत आज भी अमर है. किसने कहा साहिर अकेले थे, आज भी हर रंग, हर रस के साथ जी रहे व्यक्ति को साहिर छू कर निकल जाते हैं. 59 साल की उम्र में आज ही दिन 25 अक्टूबर को साहिर लुधियानवी इस फानी दुनिया को रुखसत कर, छोड़ गए बेहिसाब नग्मे गुनगुनाने के लिए… साहिर कहते थे, चले जाने के बाद दुनिया नग्मे गाएगी…….

बूथ पर जाकर मन की बात सुनेंगे भाजपाई

भारतीय जनता पार्टी आगामी निकाय चुनाव में मतदाता सूची में नाम जुड़वाने से छूट गए मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में जुड़वाने के लिए विशेष अभियान चलायेगी। पार्टी मतदाता सूची में छूटे मतदाताओं का नाम जुड़वाने के लिए घर-घर सम्पर्क अभियान भी चलायेगी। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष श्री भूपेन्द्र सिंह चौधरी व प्रदेश महामंत्री (संगठन) श्री धर्मपाल सिंह जी ने शुक्रवार को पार्टी के प्रदेश पदाधिकारियों, क्षेत्रीय अध्यक्षों, जिला अध्यक्षों, जिला प्रभारियों व निकाय चुनाव से जुड़े पार्टी पदाधिकारियों के साथ वर्चुअल माध्यम से बैठक कर आगामी निकाय चुनावों को लेकर की गई तैयारियों और आगामी कार्ययोजना पर चर्चा की। पार्टी 31 अक्टूबर को सरदार बल्लभ भाई पटेल जी की जयंती पर वार्ड स्तर पर कार्यक्रम आयोजित करेंगी। इसके पूर्व 30 अक्टूबर को पार्टी कार्यकर्ता बूथ स्तर पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की “मन की बात“ कार्यक्रम को सामूहिक रूप से सुनेंगे।

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष श्री भूपेन्द्र सिंह चौधरी ने निकाय चुनावों को लेकर पार्टी की योजना रचना पर चर्चा करते हुए कहा कि कार्यकर्ता पूरी ताकत के साथ आगामी नगर निकाय के चुनावों में पार्टी की जीत के संकल्प के साथ चुनाव की तैयारियों में जुट जायंे। उन्होंने कहाकि हमारा संगठनात्मक ढ़ाचा और पार्टी कार्यकर्ताओं का परिश्रम निकाय चुनाव में भी हमें निश्चित रूप से सफलता दिलायेगी। प्रदेश अध्यक्ष ने कहा कि मा0 प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार व मा0 मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ जी के नेतृत्व में राज्य की भाजपा सरकार ने लोक कल्याण के संकल्प के साथ जनहित में अभूतपूर्व कार्य किये है। अब हम सब पार्टी कार्यकर्ताओं का यह दायित्व बनता है कि जनता के बीच जाकर संपर्क व संवाद के माध्यम से निकाय चुनाव में पार्टी को विजय के लिए जनता से समर्थन व आशीर्वाद की अपील करें।

पार्टी के प्रदेश महामंत्री (संगठन) धर्मपाल सिंह ने निकाय चुनावों को लेकर की जा रही तैयारियों पर चर्चा करते हुए कहा कि मतदाता सूची में नाम जुड़वाने से छूटे मतदाताओं का नाम जुड़वाने का कार्य अंतिम चरण में है। ऐसे में हम सब का यह दायित्व बनता है कि जिन मतदाओं का नाम अभी तक मतदाता सूची में दर्ज नही होे सका है, उनके नाम मतदाता सूची में दर्ज करवाने के लिए कार्य करें। प्रदेश महामंत्री (संगठन) ने निकाय चुनावों में पार्टी के मोर्चा-प्रकोष्ठों के कार्यकर्ताओं को योजनापूर्वक सक्रिय करने पर भी बल दिया।

टेस्ला की तर्ज पर ट्विटर कि ड्राइविंग सीट पर मस्क

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एलन मस्क को आने और छा जाने कि आदत है. वो आगे बढ़कर नेतृत्व करना भी जानते हैं ! इसीलिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर का अधिग्रहण करने के बाद उन्होंने कम्पनी के सीईओ पराग अग्रवाल को हटा दिया है! इतना ही नहीं अब टेस्ला के सीईओ की तरह ही मस्क ट्विटर की कमान अपने हाथों में रखेंगे ! उनकी इस सफलता के लिए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप समेत अभिनेत्री कंगना रानावत ने बधाई दी है!  

एलन के टेकओवर के बाद इन दोनों का ट्विटर अकाउंट रिस्टोर होने कि उम्मीद है! हालाँकि कम्पनी ने कहा है कि  ट्विटर की पॉलिसी में कोई बदलाव नहीं किया गया है!   

ट्विटर मालिक बनते ही एलन मस्क ने सीईओ पराग अग्रवाल के साथ पॉलिसी चीफ विजया गाड्डे को भी निकाल दिया. पराग समेत निकाले गए बड़े अधिकारियों को सैन फ्रांसिस्को हेडक्वार्टर से भी निकलवा दिया गया. इन अधिकारियों में सीएफओ नेड सेगल भी शामिल हैं. बता दें, इसी साल 13 अप्रैल को एलन मस्क ने ट्विटर खरीदने की घोषणा की थी. उन्होंने इस प्लेटफॉर्म को 54.2 डॉलर प्रति शेयर के रेट से 44 अरब डॉलर में खरीदा है! 

सिल्वर स्क्रीन के पहले सुपर स्टार ‘दादामुनि’ अशोक कुमार

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दिलीप कुमार

लेखक

हिन्दी सिनेमा का पहला हीरो, यूँ कहें सिल्वर स्क्रीन का पहला सुपरस्टार, हिन्दी सिनेमा में सभी के दादा मुनि ‘कुमुद कुमार गांगुली’ अशोक कुमार का जिक्र आते ही, जेहन में आता है, सिल्वर स्क्रीन का वो दौर जब भारतीय सिनेमा में हीरो जैसा कुछ होता नहीं था. अब तक भारतीय सिनेमा घुटनों के बल भी नहीं चल पा रहा था. अशोक कुमार के पिता कुंजलाल गांगुली वकील थे. वो अशोक कुमार को वकील ही बनता देखना चाहते थे. नियति उनको हिन्दी सिनेमा का दादा मुनि बनाना चाहती थी. अशोक कुमार ने अपनी  शिक्षा एमपी के खंडवा से प्राप्त करने के बाद अपनी स्नातक शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूर्ण की. इस दौरान उनकी मित्रता भारतीय फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी से हो गई. अपने भाई बहनो में सबसे बड़े अशोक कुमार की बचपन से ही फ़िल्मों के निर्माण में रुचि थी. अच्छी फ़िल्मों का निर्माण करना चाहते थे. महात्वाकांक्षी अशोक कुमार अपनी शख्सियत को एक बेह्तरीन फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित करना चाहते थे. अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुए अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी फ़िल्मकार शशधर मुखर्जी से कर दिया. सन 1934 मे न्यू थिएटर मे बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार को उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने बाम्बे टॉकीज में अपने साथ रख लिया.

सिल्वर स्क्रीन में अचानक से एक रौबदार शख़्स आता है,आते ही एक ट्रेंड सेट कर देता है,कि फिल्म में एक हीरो होता है,फिल्म बिना नायक के नहीं बन सकती. अशोक कुमार से पहले भी फ़िल्में बन रहीं थीं,लेकिन हीरो जैसा कोई स्कोप नहीं था.अशोक कुमार भी अभिनेता बनने के लिए नहीं,निर्देशक बनने के उद्देश्य से पिता से बगावत करने के बाद बंबई का रुख किया.’अशोक कुमार’ हीरो बनने का सोचते नहीं क्यों कि कोई उनका आदर्श भी तो नहीं था.हिन्दी सिनेमा में कोई स्थापित नाम ही नहीं था.निर्देशन में तो कह सकते हैं, कि करने के लिए बहुत कुछ था. अभिनेता के तौर पर सिर्फ़ आपको सिल्वर स्क्रीन मिलती थी, तय कुछ नहीं होता था,आप कितना कुछ दिखाते हैं, वो आप की प्रतिभा पर टिका हुआ है. मीडिया पॉलिश करने वाला भी नहीं था, ब्रांडिंग करने वाले भी नहीं थे. दिखाने के लिए सिर्फ प्रतिभा होती थी,केवल और केवल प्रतिभा,आज के दौर में दिखाने के लिए सब कुछ है, नदारद है तो अभिनय,अशोक कुमार ने हिन्दी सिनेमा को चलना सिखाया. अभिनय के बेह्तरीन मानक स्थापित किए. अशोक कुमार अभिनय के लिहाज से सारे प्रारूपों में आलोचना से परे संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर चुके थे. मोतीलाल, सोहराब मोदी, बलराज साहनी, भारत भूषण, नजम उल हसन के दौर में भी अशोक कुमार प्रमुख रूप से सक्रिय रहे. हिन्दी सिनेमा ने चलना ही सीखा था.

बीसवीं सदी के तीसरे दशक में फिल्म ‘जीवन नैया’ का निर्माण हो रहा था. फ़िल्म की स्टार कास्ट मे ‘नजम उल हसन’ ने बीच में ही फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया. तब ज्यादा सहूलियतें नहीं होतीं थीं, मुश्किल से एक दो लोग मिलते थे, ऐक्ट्रिस तो वॊ भी दूर की बात है. च्वाइस नहीं होतीं थीं, कि आपको तय वक़्त पर कोई अभिनेता मिल जाए. एक स्टार कास्ट खड़ा करना भी बड़ी चुनौती थी ! चूंकि फ़िल्मों में अच्छे घरों के लोग काम नहीं करते, वहीँ महिलाएं तो बिल्कुल चरित्रहीन ही होती हैं,जो फ़िल्मों में काम करते हैं, हालांकि निर्माता, निर्देशक के लिए आपार सम्भावनाएं हैं,यह दृष्टिकोण अशोक कुमार का था. इस नकारात्मक प्रभाव से ग्रस्त अशोक कुमार कैसे हीरो बन सकते थे. कहते हैं कि नियति आपको वहाँ ले जाती है, जहां के लिए आप निर्धारित होते हैं. नजम उल हसन के मना कर देने के बाद बांबे टॉकीज ऑनर हिमांशु राय की नज़र अशोक कुमार पर पड़ी. हिमांशु राय ने अशोक कुमार से फ़िल्म में बतौर अभिनेता काम करने की का ऑफर दिया. अशोक कुमार ने हिमांशु राय के सामने भी चरित्र हनन की बात एवं अपना दृष्टिकोण रखा, लेकिन हिमांशु राय ने मना लिया. फिल्म ‘जीवन नैया’ में अशोक कुमार के रूप में हिन्दी सिनेमा को नया एवं पहला हीरो मिला. इससे पहले हीरो जैसा कुछ होता नहीं था.

बांबे टॉकीज के बैनर तले प्रदर्शित फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ में अशोक कुमार देविका रानी के हीरो बने. इस फ़िल्म में जीवन नैया के बाद देविका रानी& अशोक कुमार की सिल्वर स्क्रीन पर जोड़ी बनी,जो हिट साबित हुई. ‘देविका रानी’ ने कहा हीरो के लिए आपका नाम मुफ़ीद नहीं है, कुमुद कुमार गांगुली में वो वजन नहीं है, अंततः कुमुद कुमार गांगुली से अशोक कुमार बन गए. ‘अछूत कन्या’ फ़िल्म मे अशोक कुमार ने  ब्राह्मण युवक का किरदार निभाया. जिन्हें एक अछूत लड़की देविका रानी से प्यार हो जाता है. सामाजिक कुरीति की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म काफी पसंद की गई. फिल्म की सफलता के बाद अशोक कुमार बतौर हीरो हिन्दी सिनेमा में स्थापित हो गए.  देविका रानी के साथ अशोक कुमार की जोड़ी खूब पसंद की गई. देविका रानी एवं अशोक कुमार ने कई फ़िल्मों में एक साथ काम किया. इज्जत, सावित्री, निर्मला जैसी फ़िल्में हिट हुईं. इन फ़िल्मों को दर्शको का बेशुमार प्यार मिला. कामयाबी का पूरा श्रेय अशोक कुमार को नहीं मिला. फ़िल्मों की बेशुमार सफलता अभिनेत्री देविका रानी को मिला.

अशोक कुमार को 1943 मे बांबे टाकीज की ही एक अन्य फ़िल्म ‘किस्मत’ में काम करने का मौका मिला. इस फ़िल्म में अशोक कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री के अभिनेता की पांरपरिक लकीर को क्रॉस करते हुए अपना एक कद अपनी एक अलग पहिचान बनाई. ‘किस्मत’फ़िल्म मे उन्होंने पहली बार एंटी हीरो की भूमिका करते हुए अपनी इस अदाकारी के जरिए भी वह दर्शको का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल रहे. किस्मत ने बॉक्स आफिस के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए कोलकाता के चित्रा सिनेमा हॉल में लगभग चार वर्ष तक लगातार रिकॉर्ड चलती रही.

सन 1940 में बॉम्बे टाकीज के मालिक हिमांशु राय जो देविका रानी के पति थे, अचानक उनका देहांत हो जाने के बाद 1943 में अशोक कुमार बॉम्बे टाकीज को छोड़ फ़िल्मिस्तान स्टूडियो से जुड़ गए. 1947 मे देविका रानी ने बाम्बे टॉकीज छोड़ दिया. देविका रानी के बाद अशोक कुमार ने बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले मशाल जिद्दी और मजबूर आदि फ़िल्में बनाई. इसी दौरान बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले उन्होंने 1949 में प्रदर्शित सुपरहिट फ़िल्म महल का निर्माण किया. उस फ़िल्म की सफलता ने अभिनेत्री मधुबाला के साथ-साथ पार्श्वगायिका लता मंगेश्कर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया था. इस दौर में देवानंद, दिलीप कुमार संघर्ष कर रहे थे,तब अशोक कुमार ने देव साहब को जिद्दी फिल्म में काम दिया. वहीं ज्वार – भाटा फिल्म में भी दिलीप कुमार को अशोक कुमार की सिफारिश से काम मिला. अशोक कुमार ने अपने शुरुआती दौर में ऐसे कई लोगों के कॅरियर को संभालते हुए सहयोग की भावना दर्शाते हुए संवेदनशील इन्सान के तौर पर प्रसिद्ध हो गए.

आजादी से पहले एक अभिनय त्रिमूर्ति आई, देवानंद, दिलीप कुमार, राज कपूर, तीनों के कंधे पर पूरा सिनेमा टिक गया. अशोक कुमार थोड़ा उम्र के लिहाज से पक चुके थे, पूर्णतया स्थापित हो चुके थे. अशोक कुमार ने घुटनों के बल चलने वाले भारतीय सिनेमा को चलना सिखाया. इस विरासत को संभालना नामुमकिन सा लग रहा था,फिर त्रिमूर्ति देव – राज – दिलीप ने हिन्दी सिनेमा को दौड़ना सिखाया अपितु वैश्विक सिनेमा के साथ कदमताल करते हुए पूरी दुनिया में ख्याति प्राप्त करते हुए हिन्दी सिनेमा को स्थापित कर दिया. अशोक कुमार अब भी उतने ही प्रभावी थे, अशोक कुमार इन सब के होते हुए भी समान रूप से सक्रिय रहे, अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे. अंततः सत्तर का दशक आया कि, तीनों स्टार की चमक थोड़ा फीकी पड़ी, अशोक कुमार वहीँ खड़े हुए थे. अंततः तीनों सुपरस्टार आलोचना-समालोचना झेलते थे, अशोक कुमार प्रासंगिक रहे. तीसरी पीढ़ी के स्टार राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त, धर्मेंद्र, आने के बाद फीके पड़ गए थे, चौथी पीढ़ी विनोद खन्ना, अमिताभ बच्चन, जितेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा आदि भी फीके होने लगे, पांचवी पीढ़ी मिथुन, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर जैकी शॉफ आदि आए ये भी फीके पड़ गए. अशोक कुमार अब अपनी पचास साल से अधिक की अपनी सिनेमाई यात्रा को एक युग का आकार देते हुए, अपने एक – एक संवाद डायलॉग को सिलेबस का आकार दे चुके थे. अशोक कुमार की सिनेमाई यात्रा हिन्दी सिनेमा के लिए नायाब तोहफ़ा थी. आने वाले समय में अशोक कुमार अभिनय के भीष्म पितामह बन चुके थे. अशोक कुमार कभी भी अप्रभावी नहीं रहे, अपने हंसमुख स्वभाव, सरल, मिलनसार, सहयोग की भावना होने के कारण सभी के लिए प्रेरणा एवं चहेते बने रहे. अस्सी का दशक ढलान पर था, कोई भी आलोचना से परे नहीं था, आलोचना से भी परे केवल दो अभिनेता ही रहे, जो संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर चुके थे. अशोक कुमार एवं ग्रेट संजीव कुमार, भारतीय सिनेमा में अशोक कुमार & संजीव कुमार की अभिनय के लिहाज से किसी ने कभी कोई आलोचना नहीं की दोनों हमेशा अभिनय के लिहाज संस्थान बने रहे, आज भी अभिनय की कैटेगरी में कह सकते हैं, अशोक कुमार & संजीव कुमार दोनों अभिनय का पूरा युग हैं, अभिनय सीख रहे बच्चों के लिए सबसे पहले दोनों का नाम लिया जाएगा. इनके समानांतर न कोई था, न कोई है,न कोई रहेगा यह  एक यूनिवर्सल ट्रूथ है.

दादा मुनि की नायाब फ़िल्मों में अगर देखा जाए तो उनकी प्रत्येक फिल्म अभिनय के लिहाज से पूरा सिलेबस है, वहीँ अशोक कुमार जिस फिल्म में होते तो फिर दूसरा पात्र दिखता ही नहीं है. नज़र केवल टिकेगी तो अशोक कुमार के ऊपर, दादा मुनि ने 1930 से 1960 तक बतौर लीड ऐक्टर फ़िल्मों में सक्रिय रहे, अशोक कुमार एक अद्वितीय नैसर्गिक अभिनेता थे. उनकी प्रमुख फ़िल्मों में हावड़ाब्रिज, कानून, ज्वेलर थीफ, गुमराह, अछूत कन्या, किस्मत, महल, बेवफा, संग्राम, परिणीता, चलती का नाम गाड़ी, ममता, गहना चोर, बंदिनी, अशीर्वाद, मिली, आदि प्रत्येक अभिनेता की छवि एक प्रमुख फिल्म के कारण किसी के अवचेतन मन में अंकित हो जाती है. मेरे जेहन में दादा मुनि की छवि ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अशीर्वाद’के किरदार जोगी ठाकुर के रूप में अंकित हैं.अशीर्वाद फिल्म में अशोक कुमार खूब रुलाते हैं, वहीँ सामजिक समानता की सीख भी देते हैं, उदारवाद का संदेश देती फिल्म, सामजिक गैरबराबरी पर चोट करती हुई मानक सिद्ध होती है. उनका इस फिल्म में अभिनय पूरे हिन्दी सिनेमा में शिखर माना जाता है. इस फिल्म को दादा मुनि की सिग्नेचर फिल्म कह सकते हैं. अशीर्वाद फिल्म दादा मुनि के प्रतिभा कौशल के लिए उनका पूरा दस्तावेज है.

देव साहब अपने सबसे पसन्दीदा हीरो ‘दादा मुनि अशोक कुमार’ को याद करते हुए अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ में लिखते हैं, मैं अपने मनपसंद नायक अशोक कुमार को अपनी महात्वाकांक्षी फिल्म ‘ज्वेल थीफ’ में लेना चाहता था, मेरी दिली इच्छा थी, कि ग्रेट दादा मुनि मेरे साथ स्क्रीन साझा करें. आप सभी  को याद होगा, कि उन्होंने ही मुझे ज़िद्दी फ़िल्म में ब्रेक दिया था. ज्वेल थीफ में उनका रोल बहुत ही नकारात्मक था, लेकिन अत्यधिक महत्वपूर्ण था. मुझे लगा शायद वह रोल के लिए मानेंगे नहीं, क्योंकि वो ऐसे रोल करते नहीं थे, हालांकि उनके लिए कोई रोल करना बड़ी बात नहीं थी. तो हुआ यूं कि मैंने फिल्म के निर्देशक छोटे भाई विजय आनन्द (गोल्डी) को यह काम सौंपा कि तुम दादा मुनि को मनाओ. गोल्डी इस काम में माहिर था. उसने अशोक कुमार को मना लिया. इस प्रकार दादा मुनि इस फ़िल्म से जुड़ गए और हम तीनों ने मिलकर एक रहस्यमयी फ़िल्म का निर्माण कर डाला. ज्वेल थीफ फ़िल्म के आख़िरी दिन की शूटिंग पर जरनल सगट सिंह ने अपना मिलिटरी बेंड मँगवाया और वह हमारे साथ जश्न में शामिल हुए. साथ में सिक्किम के राजा चोगयाल तथा उनकी रानी भी शामिल हुई, और वो ख़ुश थे कि जल्दी ही सारा संसार उन के देश की सुन्दरता को देखेगा,उसे पसंद करेगा. बाद में जरनल सगट सिंह ने 1971 की लड़ाई में पूर्वी पाकिस्तान में अपने छाताबाज सैनिकों के साथ उतरने वाले पहले भारतीय थे.उन्होंने बंगला देश को आज़ाद करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.ज्वेल थीफ एक बहुत बड़ी हिट साबित हुई. मैं दार्जिलिंग से दिल्ली ओडियन सिनेमाघर प्रीमियम के लिए पहुँचा. भीड़ इतनी ज़्यादा थी, कि जैसे ही मैं कार से उतरा लोगों ने मुझे उठा लिया, हारों से मुझे लाद दिया. कोई मुझे छू कर देख रहा तो कोई मुझसे हाथ मिलने की कोशिश कर रहा था. अचानक ही एक हाथ ने मेरी हिप पाकेट को टटोला. मैंने अपने पर्स को चेक किया तो पाया की वो गायब था. मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी उस समय जोश इतना ज़्यादा था, कि 15 हज़ार की छोटी सी रक़म के लिए उस जोश में ख़लल नहीं डालना चाहता था. इस तरह का प्यार और मशहूरियत पैसे से नहीं ख़रीदी जा सकती थी. मैंने उस जेबकतरे को मेरे नोटों से भरे पर्स के साथ जाने दिया. लेकिन इस फिल्म की सफलता में सबसे ज्यादा योगदान दादा मुनि का रहा, उन्होंने इस विलेन के रोल को निभाते हुए फिल्म को जीवंत कर दिया. देव साहब ने अशोक कुमार के लिए विस्तृत लिखा है.

अशोक कुमार के साथ उनके परम मित्र प्रसिद्ध लेखक ‘मंटो’ का जिक्र न करें तो सब अधूरा रह जाएगा. दादा मुनि अशोक कुमार अपने समय के प्रसिद्ध लेखक ‘सहादत हसन मंटो’के जानी दोस्त थे. मंटो के लिए कह सकते हैं, कि उर्दू साहित्य में ग़ालिब हुए, तो अल्लामा इकबाल हुए, तो मंटो हुए. मंटो शुरुआती दौर में समाज के विवादित मुद्दों पर लिखते हुए खूब आलोचना झेलते थे.मंटो कहते थे, कि लेखक वो है जो समाज के लिए लिखे, लेखक समाज का आईना होता है. अशोक फ़िल्मों में लिखना मुझसे नहीं होगा. आख़िरकार अशोक कुमार ने उनका रुख फ़िल्मों की तरफ मोड़ दिया.

मंटो ने अपनी पुस्तक में लिखा है, कि अशोक और मैं दोनों घनिष्ट मित्र थे, एक – दूसरे से खूब मजाकिया भिड़ंत भी होती रहती थी, एक बार अशोक कहता है, यार तुम मेरा नाम मत किया करो, क्यों कि मैं तुमसे बड़ा हूं, मंटो ने कहा बड़ा तो मैं हूँ, दोनों में हिसाब – किताब हुआ, आख़िरकार अशोक कुमार दो महीने कुछ दिन बड़े निकले, तो अशोक कुमार ने कहा तुम मुझे बड़ा भाई संबोधित करो, मंटो अशोक कुमार को ‘दादा मुनि’ कहकर संबोधित करने लगे, दादा मुनि का बंगाली में अर्थ होता है बड़ा भाई, अशोक कुमार उनको मंटो कहने लगे, मंटो कहते की तब मुझे बहुत गुस्सा आता था, हालांकि अशोक कुमार का प्यार था. मंटो बहुत ही आधुनिक सोच के व्यक्ति थे, एक बार अशोक कुमार को अपने घर ले गए, अपनी पत्नी को आवाज देते हैं, देखो दादा मुनि आया है, इससे हाथ मिलाओ, उनकी पत्नी अशोक कुमार दोनों आवाक रह गए.’मंटो’  कहानीकार थे, जो अपने लेखन, कहानियों ने समाज की बक्खियां ऊधेड़ते रहे. समाज की कुरीतियों से लेकर इश्क से लेकर देश के बंटवारे तक मंटो ने खूब लिखा, और क्या खूब लिखा.मंटो पहली बार कैमरे के पीछे से कैमरे के सामने आए थे यानी उन्होंने जब एक्टिंग डेब्यू किया था.

सन 1946 में फिल्मिस्तान स्टूडियो की फिल्म ‘आठ दिन’ की शूटिंग चल रही थी. फिल्म के डायरेक्टर दत्ता राम पई थे. फिल्म की कहानी  मंटो ने लिखी थी. इस फिल्म में अशोक कुमार मुख्य भूमिका में थे,लेकिन निर्देशन की पूरी कमान अशोक कुमार ने संभाली हुई थी. इस फिल्म में चार छोटे-छोटे रोल भी थे. इनमें से तीन रोल की बात करें तो उन्हें निभा रहे थे- राजा मेहंदी अली खान, उपेंद्रनाथ अश्क और मोहसिन अब्दुल्लाह. चौथा रोल कर रहे एस. मुखर्जी का रोल  सिरफिरे फ्लाइट अटेंडेंट का था. उनका कॉस्ट्यूम भी तैयार था, लेकिन उस समय एस. मुखर्जी ने इस रोल को करने से इनकार कर दिया .अशोक कुमार ने उन्हें मनाने की काफी कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने. इस बीच एक दिन सेट पर मंटो फिल्म के कुछ सीन लिख रहे थे. उसी दौरान अशोक कुमार उनके पास जा पहुंचे,हाथ पकडा कहा यार मेरे साथ चलो.

अशोक कुमार ने मंटो का हाथ पकड़ा और उन्हें सीधा सेट पर ले गए. उनसे कहा कि अब कृपा राम का रोल तुम कर दो . अब एक दम से यह बात सुनकर मंटो आवाक रह गए,फिर  मना कर दिया. मंटो इनकार कर रहे थे, इसी बीच राजा मेहंदी अली खान उनके पास गए और बोले- अरे मैं और अश्क भी तो रोल कर रहे हैं, आपको क्या परेशानी हो रही है. खान साहब के समझाने के बाद मंटो नहीं माने, अशोक ने कहा तुम रोल कर रहे हो, अशोक कुमार के लिए मंटो कुछ भी नैतिक कर सकते थे. आख़िरकार मंटो अपने मित्र दादा मुनि के लिए रायटर से ऐक्टर बन गए.

मंटो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए, वहाँ भी वे भारत को भूल नहीं सके अपनी पुस्तक में मुंबई, हिन्दी सिनेमा में अपने समय को याद करते हुए अशोक कुमार को खूब याद करते हुए खूब जिक्र करते थे. वहीँ अशोक कुमार भी ‘मंटो’ को अपना जान से प्यारा दोस्त मानते थे. मंटो तो दुनिया को अलविदा भी कर चुके थे उसके सालों बाद बाद किसी ने इंटरव्यू करते हुए अशोक कुमार से किसी ने पूछा कि आप अपने जिगरी दोस्त मंटो को कैसे याद करते हैं? चूंकि अब तक मंटो भारत पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया में उर्दू – हिन्दी के सर्वकालिक महान लेखक बन चुके थे, मरने के बाद वो अमरत्व को प्राप्त कर चुके थे. वहीँ अशोक कुमार कहते हैं कौन मंटो पहिचानने से मना कर देते हैं!!! थोड़ा रुकते हुए कहते हैं, ओह्ह वो बहुत शराब पीते थे, और अश्लील कहानियां लिखते थे!!!!यह नकारात्मक बात आजतक कोई स्वीकार कर नहीं सका, वहीं आज भी हमारे जैसे लोगों को यह बात कचोटती रहती है, वहीँ अशोक कुमार जैसा संवेदनशील इन्सान मंटो जैसे निराकार शख्सियत के लिए इन शब्दों का चयन उनके लिए भी प्रश्नचिन्ह खड़े करता है.इससे अच्छा तो भूल ही जाते स्वर्गवासी मंटो पर  फब्तियाँ तो न कसते. आज भी यह प्रश्न अनसुलझा है. अच्छा होता कि अपने देहांत से पहले मंटो के लिए कुछ सकारत्मक बोलकर जाते, तो हम मंटो उपासकों के लिए अच्छा होता.

अशोक कुमार की जिंदगी में एक ट्रेजडी हुई, जिसने उनको तोड़कर रख दिया. अशोक कुमार के जन्मदिन के मौके पर उनके पुत्र सम प्रिय भाई किशोर दा 13 अक्टूबर 1987 को हार्ट अटैक के कारण दुनिया छोड़ गए. अशोक कुमार ने फिर कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया. इस दिन को हमेशा मनहूस मानते हुए अपने भाई किशोर दा को याद करते हुए मनाते थे. सभी के चहेते अशोक कुमार दस दिसंबर 2001 को नब्बे साल की आयु में ऐक्टिव रहते हुए, दुनिया छोड़ गए. आज भी अशोक कुमार होते तो फ़िल्मों में सक्रिय होते और अपनी अभिनय से लोगों का मनोरंजन कर रहे होते. अशोक कुमार हमेशा हीरो ही रहे. हीरो ही रहेंगे. अशोक कुमार…

विश्व छात्र दिवस : डॉ कलाम ने विद्यार्थियों को जागती आँखों से सपने देखने की दी प्रेरणा

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“ सपने वो नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, सपने वो हैं जो हमें सोने नहीं देते।“ भारत रत्न डॉ. अब्दुल पाकिर जैनुलअब्दीन कलाम के ये वाक्य हमें हर दिन प्रेरणा देते हैं! आज भारत के मिसाइलमैन और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की जयंती और विश्व छात्र दिवस है। कलाम साहब ने ही कहा था कि “ महान सपने देखने वालों के महान सपने हमेशा पूरे होते हैं। उन्होंने हमेशा विद्यार्थियों को प्रेरित किया. इसी कारण 15 अक्टूबर 2010 को संयुक्त राष्ट्र ने हर वर्ष 15 अक्तूबर को डॉ कलाम के जन्मदिवस को विश्व छात्र दिवस के रूप में मानने की घोषणा की। डॉ. कलाम का पूरा जीवन इस बात का प्रतीक है कि यदि ठान लिया जाए तो कोई भी राह कठिन नहीं होती और कोई भी लक्ष्य अभेद्य नहीं होता। कलाम भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को नई ऊंचाईयों पर ले गए। उन्होनें रक्षा के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट योगदान दिया है इसीलिए आज पूरा देश उन्हें मिसाइल मैन के नाम से जानता है!

कलाम जी का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 को धनुषकोडी गांव, रामेश्वरम, तमिलनाडु में मछुआरे परिवार में हुआ था, वे तमिल मुसलमान थे. इनका पूरा नाम डॉक्टर अवुल पाकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम है. इनके पिता का नाम जैनुलाब्दीन था. वे एक मध्यम वर्गीय परिवार के थे. इनके पिता अपनी नाव मछुआरों को देकर घर चलाते थे. बालक कलाम को भी अपनी शिक्षा के लिए बहुत संघर्ष करना पढ़ा था. वे घर घर अख़बार बाटते और उन पैसों से अपने स्कूल की फीस भरते थे. अब्दुल कलामजी ने अपने पिता से अनुशासन, ईमानदारी एवं उदार स्वभाव में रहना सिखा था. इनकी माता जी ईश्वर में असीम श्रद्धा रखने वाली थी. कलाम जी के 3 बड़े भाई व् 1 बड़ी बहन थी. वे उन सभी के बहुत करीब रिश्ता रखते थे!

अब्दुल कलाम जी की आरंभिक शिक्षा रामेश्वरम एलेमेंट्री स्कूल से हुई थी. 1950 में कलाम जी ने बी एस सी की परीक्षा st. Joseph’s college से पूरी की. इसके बाद 1954-57 में मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (MIT) से एरोनिटिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया. बचपन में उनका सपना फाइटर पायलेट बनने का था, लेकिन समय के साथ ये सपना बदल गया!  

1958 में कलाम जी D.T.D. and P. में तकनिकी केंद्र में वरिष्ट वैज्ञानिक के रूप कार्य करने लगे. यहाँ रहते हुए ही इन्होंने prototype hover craft के लिए तैयार वैज्ञानिक टीम का नेतृत्व किया. करियर की शुरुवात में ही अब्दुल कलामजी ने इंडियन आर्मी के लिए एक स्माल हेलीकाप्टर डिजाईन किया. 1962 में अब्दुल कलामजी रक्षा अनुसन्धान को छोड़ भारत के अन्तरिक्ष अनुसन्धान में कार्य करने लगे. 1962 से 82 के बीच वे इस अनुसन्धान से जुड़े कई पदों पर कार्यरत रहे. 1969 में कलाम जी ISRO में भारत के पहले SLV-3 (Rohini) के समय प्रोजेक्ट हेड बने!

डॉ कलाम के नेतृत्व में 1980 में रोहिणी  को सफलतापूर्वक पृथ्वी के निकट स्थापित कर दिया गया. इनके इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए 1981 में भारत सरकार द्वारा इनको भारत के राष्ट्रीय पुरस्कारों में से एक पदम् भूषण से सम्मानित किया गया. अब्दुल कलाम जी हमेशा अपनी सफलता का श्रेय अपनी माता को देते थे. उनका कहना था उनकी माता ने ही उन्हें अच्छे-बुरे को समझने की शिक्षा दी. वे कहते थे “पढाई के प्रति मेरे रुझान को देखते हुए मेरी माँ ने मेरे लिये छोटा सा लैम्प खरीदा था, जिससे मैं रात को 11 बजे तक पढ सकता था. माँ ने अगर साथ न दिया होता, तो मैं यहां तक न पहुचता।”

1982 में वे फिर से रक्षा अनुसन्धान एवं विकास संगठन के director बन गए. इनके नेतृत्व में Integrated guided missile development program को सफलतापूर्वक शुरू किया गया. अग्नि, प्रथ्वी व् आकाश के प्रक्षेपण में कलाम जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सन 1992 में APJ अब्दुल कलामजी रक्षा मंत्री के विज्ञान सलाहकार तथा सुरक्षा शोध और विकास विभाग के सचिव बन गए. वे इस पद में 1999 तक कार्यरत रहे. भारत सरकार के मुख्य वैज्ञानिकों की लिस्ट में इनका नाम शामिल है. सन 1997 में APJ अब्दुल कलामजी को विज्ञान एवं भारतीय रक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए भारत के सबसे बड़े सम्मान “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया! सन 2002 में कलाम जी को भारतीय जनता पार्टी समर्थित एन॰डी॰ए॰ घटक दलों ने राष्ट्रपति के चुनाव के समय अपना उम्मीदवार बनाया था, जिसका सबने समर्थन किया और 18 जुलाई 2002 को एपीजे अब्दुल कलामजी ने राष्ट्रपति पद की शपत ली. कलाम जी कभी भी राजनिति से नहीं जुड़े रहे, फिर भी वे भारत के सर्वोच्य राष्ट्रपति पद पर विराजमान रहे. जीवन में सुख सुविधा की कमी के बावजूद वे किस तरह राष्ट्रपति के पद तक पहुँचे, ये बात हम सभी के लिये प्रेरणास्पद है. आज के बहुत से युवा एपीजे अब्दुल कलामजी को अपना आदर्श मानते है. छोटे से गाँव में जन्म ले कर इनती ऊचाई तक पहुचना कोई आसान बात नहीं. कैसे अपनी लगन, कङी मेहनत और कार्यप्रणाली के बल पर असफलताओं को झेलते हुए, वे आगे बढते गये इस बात से हमे जरुर कुछ सीखना चाहिए !

परमाणु पनडुब्बी करेगी दुश्मन के दांत खट्टे

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भारत अब जमींन से ही नहीं जल से भी दुश्मन के दांत खट्टे कर सकता है! भारत ने समंदर के भीतर से दुशमन को सबक सिखाने के लिए बैलिस्टिक मिसाइल का टेस्ट किया है! रक्षा मंत्रालय ने बंगाल की खाड़ी में बैलिस्टिक मिसाइल के सफल टेस्ट का एलान किया है! यह टेस्ट आईएनएस अरिहंत से किया गया है।

अब भारतीय बैलिस्टिक मिसाइल सबमरीन समंदर के नीचे से ही चीन और पाकिस्तान को टारगेट कर सकती है। इससे एक बात और साफ हो गई है कि स्वदेशी आईएनएस अरिहंत क्लास की सबमरीन हर पहलू पर काम करना शुरू कर चुकी है। यह दुश्मन के लिए बड़ी चेतावनी भी है। सूत्रों के अनुसार अरिहंत कम दूरी की के-15 मिसाइलों से लैस है। 3,500 किमी की दूरी तक मार करने वाली K-4 SLBM का डिवेलपमेंट ट्रायल पूरा हो चुका है लेकिन इसे पूर्ण रूप से शामिल किया जाना बाकी है। अमेरिका, रूस, यूके, फ्रांस और चीन के बाद भारत दुनिया का छठवां देश है जिसके पास बैलिस्टिक मिसाइलों से लैस न्यूक्लियर सबमरीन है।

यह टेस्ट ऐसे समय में हुआ है जब भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में तनातनी बरकरार है और दोनों देशों ने 50,000 से ज्यादा सैनिकों की तैनाती कर रखी है। बड़े हथियार भी मोर्चे पर लगाए गए हैं। दोनों देशों के बीच 30 महीने से सैन्य गतिरोध बना हुआ है। उधर दुनिया रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर आशंकित है। दुनियां में परमाणु युद्ध की आशंका के बीच भारत की ये उपलब्धि सुरक्ष कि द्रृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है! 

काल के प्रहार से मुक्त है महाकाल लोक

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भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का नया अध्याय उज्जैन में महाकाल लोक के लोकार्पण के साथ शुरू हुआ! प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस अवसर कहा कि महाकाल लोक देश के प्राचीन गौरव से जोड़ रहा है! मेघदूतम में उज्जैन की भव्यता का वर्णन है! उज्जैन के कण- कण में सांस्कृतिक इतिहास दर्ज है! महाकाल की नगरी प्रलय से मुक्त है! महाकाल में 88 तीर्थ हैं जिनके केंद्र में कालाधिराज महाकाल हैं! पीएम ने कहा कि भारत एकबार फिर विश्व के मार्ग दर्शन के लिए तैयार हो रहा है!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकार्पण करने से पहले महाकाल मंदिर में पूजा-अर्चना की और आरती की. इसके साथ ही पीएम मोदी ने महाकाल गर्भगृह में उपासना की! महाकाल के कॉरिडोर को पहले चरण में 316 करोड़ रुपये में विकसित किया गया है. 900 मीटर से अधिक लंबा महाकाल लोक कॉरिडोर पुरानी रुद्र सागर झील के चारों और फैला हुआ है. उज्जैन स्थित विश्व प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के आसपास के क्षेत्र को पुनर्विकास करने की परियोजना के तहत रुद्र सागर झील को पुनर्जीवित किया गया है!

गौरतलब है कि देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक यहां महाकालेश्वर मंदिर में स्थापित है और यहां देश विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं. इस कॉरिडोर के लिए दो भव्य प्रवेश द्वार-नंदी द्वार और पिनाकी द्वार बनाए गए हैं. यह कॉरिडोर मंदिर के प्रवेश द्वार तक जाता है तथा मार्ग में मनोरम दृश्य पेश करता है! महाकाल मंदिर के नवनिर्मित कॉरिडोर में 108 स्तंभ बनाए गए हैं, 910 मीटर का ये पूरा महाकाल मंदिर इन स्तंभों पर टिका होगा. महाकवि कालिदास के महाकाव्य मेघदूत में महाकाल वन की परिकल्पना को जिस सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है, सैकड़ों सालों के बाद उसे साकार रूप दे दिया गया है!

चूक या राजधर्म जिसने मुलायम को बनाया नेताजी

आनन्द अग्निहोत्री

वरिष्ठ पत्रकार

मुलायम सिंह अब दुनिया में नहीं हैं लेकिन सियासी तवारीख से उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। यूं तो मुलायम सिंह ने देश और प्रदेश की सियासत में ऐसे तमाम कार्य किए है जो हमेशा याद किये जायेंगे, सर्वहारा वर्ग के लिए उन्होंने जो संघर्ष किये उन्हें कभी नहीं भूला जा सकता लेकिन भारतीय जनता पार्टी के बहुचर्चित राम मंदिर आंदोलन की जब भी बात उठेगी, मुलायम सिंह का अक्स हमेशा सामने आ जायेगा। कारण था अयोध्या के विवादित ढांचे का विध्वंस। भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठन हमेशा इस ढांचे को ढहाकर यहां राम मंदिर निर्माण की बात कहते थे। मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल तक ऐसा प्रमाणित नहीं हो सका था कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर कभी राम मंदिर था। फिर भी भाजपा ने इसे अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर प्रचारित कर रखा था। राजनीति में अपनी पैठ बनाने के लिए भाजपा के पास इससे बड़ा कोई ट्रम्प कार्ड था ही नहीं। यही कारण था कि उसने इसके लिए रथ यात्रा निकाली, उस समय कट्टर हिन्दुत्व के लिए चर्चित भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए जेल तक गये।

भाजपा और हिन्दूवादी संगठन वर्ष 1990 में विवादित ढांचा ढहाने पर उतारू थे। उस समय उत्तर प्रदेश की सत्ता मुलायम सिंह के हाथ थी। उन्होंने भी एलान कर रखा था कि अयोध्या में ऐसे प्रबंध करूंगा कि वहां कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा। ऐसा उन्होंने किया भी लेकिन इसका क्या किया जाये कि गुपचुप ढंग से कारसेवकों का हुजूम वहां पहुंच गया। सुरक्षा बलों की चेतावनी के बाद भी आक्रामक नजर आ रहे कारसेवक ढांचा ढहाने की फिराक में थे। वे तमाम चेतावनियों को नजरअंदाज कर 2 नवंबर, 1990 को ढांचे की ओर बढ़ने लगे। अंतत: मुलायम सिंह को अयोध्या में हनुमान गढ़ी पर जमे कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश जारी करना पड़ा। फायरिंग में कितने कारसेवक मारे गये इस बारे में ठीक-ठीक बता पाना तो मुश्किल है क्योंकि जितने मुंह उतनी बातें चलीं। इतना जरूर हुआ कि कारसेवकों के कदम थम गये और उन्होंने वहां से पलायन करना ही उचित समझा।

इस घटना को लेकर मुलायम सिंह पर जिस तरह मुस्लिमपरस्त होने का ठप्पा लगाया गया, शायद किसी मुस्लिम नेता पर भी नहीं लगाया गया। और तो और, मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम सिंह के नाम से नवाजा गया। किसी हिन्दू पर इस तरह का ठप्पा न पहले कभी लगा और शायद ही भविष्य में किसी पर लगे। अब इसे चूक कह लीजिये या मुख्यमंत्री का राजधर्म, जिसने उन्हें राजनीति में हमेशा के लिए स्थापित कर दिया। भाजपा और हिन्दू संगठनों ने अपने प्रचार तंत्र के माध्यम से उन्हें मुसलमानों के मसीहा के रूप में स्थापित कर दिया। यह खिताब देश के इतिहास में किसी मुस्लिम नेता को भी नहीं मिला। उन दिनों मुसलमानों में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी का खासा रसूख था। उन्होंने अगले चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के पक्ष में फतवा भी जारी किया। लेकिन यह बेअसर रहा। कौन हिन्दू अब्दुल्ला बुखारी से कह सकता था कि आप इमाम हैं, मस्जिद के अंदर बैठकर नमाज पढ़ाइये, सियासत से आपका क्या वास्ता। लेकिन मुलायम सिंह ने ऐसा कहा और मुस्लिम समुदाय ने उनका न केवल मौखिक समर्थन किया बल्कि फतवा को बेअसर कर मुलायम सिंह को फिर उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुंचाया।

भाजपा तभी से और अब सत्ता पाने के बाद भी इसे मुलायम सिंह की हिन्दू विरोधी मानसिकता के रूप में निरूपित करती है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए हर समुदाय की रक्षा करना उनका कर्तव्य था। उस समय जो भी मुख्यमंत्री होता कारसेवकों की इस जोरजबर्दस्ती का विरोध करता। मुलायम सिंह ने भी ऐसा किया तो उसे गलत दर्शाने की कोशिश क्यों। हालांकि मुलायम सिंह ने कुछ वर्षों पहले यह स्वीकार किया कि कारसेवकों पर गोली चलवाना उनकी सबसे बड़ी गलती थी लेकिन यह भी कहा कि उस समय यह मजबूरी थी। यही राजधर्म था, उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। सियासतदानों से इस बेबाकी की उम्मीद नहीं की जा सकती, जितनी स्पष्टवादिता से मुलायम सिंह ने यह स्वीकारोक्ति की। अब इसे चूक कहिये या उनकी सूझबूझ या मुख्यमंत्री पद का कर्तव्य, जो भी हुआ उसने उन्हें ‘नेताजी’ के नाम से राजनीति में पूरी तरह स्थापित कर दिया।

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री तो अनेक नेता बने लेकिन आज वे जयंती और पुण्यतिथि पर ही याद किये जाते हैं। लेकिन मुलायम सिंह ऐसे राजनीतिक हस्ताक्षर बने जो हमेशा के लिए अमर हैं और बराबर याद किये जायेंगे। उनकी पार्टी और विचारधारा के लोग तो उन्हें याद करेंगे ही, उनके विरोधी भी उनका नाम नहीं भूल पायेंगे। वे सियासत में मील का ऐसा पत्थर हैं जो हमेशा याद आयेंगे।

जन्मदिन : आज भी लाइन वही से शुरू होती है, जहाँ बिग बी खड़े हो जाते हैं..

जिस उम्र में लोग अपने पैरों पर खड़े होने में कांपने लगते हैं! उस उम्र में आज भी वो जहाँ पर खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीँ से से शुरू होती है! एंग्री यंगमैन से लेकर सदी के महानायक बनने का सफ़र तय करने वाले बिग बी आई अभिताभ बच्चन की जादुई शख्सियत ऐसी ही जिसकी दुनियां दीवानी है! जीवन 80 वें पड़ाव पर कदम रखने जा रहे बिग बी आज भी 18 वर्ष के नौजवान की तरह उर्जावान दिखते हैं! बॉलीवुड शहंशाह को उनके स्पेशल डे पर विश करने के लिए फैंस की भीड़ रात 12 बजे जलसा पर उमड़ पड़ी। ये देखते हुए मेगा स्टार भी खुद को रोक नहीं पाए और फैंस के इस प्यार का शुक्रिया अदा करने के लिए ‘जलसा’ के गेट पर पहुंचे। इतना ही नहीं इस दौरान बिग बी (Big B) अपने फैंस से रूबरू भी हुए।

अमिताभ बच्चन भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे अकेले अभिनेता हैं जिन्हें देश के साथ-साथ विदेशों में भी सम्मान, लोकप्रियता और प्रतिष्ठा हासिल है। सन् 1969 में सात हिंदुस्तानी से आरंभ हुआ उनका फिल्मी सफर आज केबीसी और गुडबॉय मूवी तक बदस्तूर जारी है।  ये बिग बिग की लोकप्रियता, बॉक्स ऑफिस संभावना और प्रतिष्ठा का ही चमत्कार है कि निर्माता-निर्देशक आज भी उन्हें फिल्म के केंद्र में रखकर कहानियाँ लिखवाते हैं। फिल्म का नायक कोई भी हो, अमिताभ बच्चन की भूमिका लगभग हमेशा उस पर बीस ही पड़ती है।

महानायक अमिताभ बच्चन अपने परिवार के साथ बेहद जुड़े नजर आते हैं! धर्मपत्नी जया बच्चन के अलावा बेटे अभिषेक बच्चन, बहू ऐश्वर्या राय, पोती आराध्या बच्चन, बेटी श्वेता बच्चन, नातिन नव्या नवेली नंदा और नाती अगस्त्य नंदा के साथ नजर आ जाते हैं!

अमिताभ बच्चन और जया बच्चन ने शादीशुदा जिंदगी के 49  साल गुजर चुके हैं! इनकी शादी 3 जून 1973 को हुई थी.शादी के इन सालों में उन्होंने अपनी लाइफ में कई उतार-चढ़ाव देखें, कई बार रिश्ता टूटने की कगार पर आ गया, लेकिन फिर भी इन दोनों ने अपने रिश्ते को निभाने और बचाने की पुरजोर कोशिश की. अमिताभ का अपनी वाइफ के प्रति समर्पण और प्यार ही वो वजह है, जिसके लिए इन दोनों को बॉलीवुड का पावर कपल माना जाता है. अमिताभ अक्सर अपनी वाइफ संग बिताए गए पलों को फैंस के साथ शेयर करते रहते हैं! इसके अलावा वह अपने टीवी होस्ट शो ‘कौन बनेगा करोड़’ में अक्सर अपनी वाइफ की तारीफें करते हुए देखे जाते हैं!

महानायक के जन्मदिन को खास बनाने के लिए ‘फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन’ की ओर से ‘फिल्म फेस्टिवल’ ऑर्गनाइज किया गया!  आयोजकों के मुताबिक  उनकी फिल्मोग्राफी में से 11 पॉपुलर फिल्मों को देश के 17 शहरों के पीवीआर सिनेमा में 22 स्क्रीन पर प्रदर्शित की गई।