Wednesday, December 17, 2025
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मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल में जुटेंगे देश- विदेश के साहित्य प्रेमी

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सिंधु घाटी की सभ्यता, रामायण व महाभारत के इतिहास सहेजें हुए मेरठ की ऐतिहासिक व पवित्र भूमि पर अन्तराष्ट्रीय साहित्यिक महोत्सव ‘ मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल’ के छठे संस्करण का शुभारम्भ शुक्रवार को होगा! दिनांक 25, 26, 27 नंवबर में होने वाले तीन दिवसीय क्रांतिधरा मेरठ साहित्यिक महाकुंभ  मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन में देश विदेश के हिंदी प्रेमी व साहित्यकार भाग लेंगे! चौधरी चरण सिंह विश्वविध्यालय में आयोजित साहित्य महोत्सव में साहित्यिक व सामाजिक परिचर्चा, कविसम्मेलन और मुशायरा आकर्षण का केंद्र होगा! इसके साथ ही जाने- माने साहित्यकारों की पुस्तक चर्चा व लोकार्पण होगा!

क्रांतिधरा साहित्य अकादमी, नेपाल भारत साहित्य महोत्सव और मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल मेरठ के आयोजक डा विजय पंडित ने जानकारी देते हुए बताया कि विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सहयोग से आयोजित तीन दिवसीय साहित्य महोत्सव में मास्को- रूस, नेपाल और जापान समेत दुनियांभर से जुड़े हिंदी सेवी भाग लेंगे! उद्घाटन सत्र में पत्रिका हिंदी की गूंज, जापान कि सम्पादक श्रीमती रमा शर्मा मास्को से स्वेता सिंह जैसे वरिष्ठ साहित्यकार मौजूद रहेंगे! पहले दिन दूसरे और तीसरे सत्र में हिंदी की वैश्विक स्थिति और डिजिटल क्रांति में पुस्तकों से दूरी विषय पर पर परिचर्चा होगी! शाम के सत्र में आयोजित मुशायरे में अनुराग मिश्र गैर, डॉ एजाज पापुलर मेरठी जैसे नामचीन शायर शामिल होंगे! दूसरे दिन लघु कथा सत्र समेत भारतीय संस्कृति : नदियाँ और समाज की भूमिका पर परिचर्चा होगी! क्रन्तिधरा मेरठ का एतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व विषय पर इतिहासकार एके गांधी, डॉ विघ्नेश त्यागी आदि चर्चा करेंगे! चौथे सत्र में पत्रकारिता जगत कि हस्तियाँ पत्रकारिता, आमजन- एक फासला विषय पर अपने विचार रखेंगे! शाम के सत्र में कवि सम्मलेन होगा!  

अब जांच के बाद ही मिल पाएगा ट्विटर का ब्लू टिक

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एलन मस्क के ट्विटर के टेकओवर के बाद से ही उनके फैसले लगातार विवादों में रहे हैं! मस्क ने एलान किया था कि ट्विटर के वेरिफाइड अकाउंट को हर महीने 8 डॉलर चुकाने होंगे. इस एलान के बाद से ही ट्विटर पर नकली ब्लू टिक अकाउंट की बाढ़ आ गई थी! जिससे ट्विटर की साख को गहरा झटका लगा था!

पेड ब्लू वेरिफिकेशन सेवा के कारण दुनियाभर के बड़े ब्रांड, कंपनियों और लोगों के नाम पर लगातार फेक अकाउंट्स खुल गए थे! ऐसे में एलन मस्क के इस फैसले की जमकर आलोचना होने लगी! ऐसे में ट्विटर के ‘ब्लू टिक प्लान’ को कुछ बदलावों के बाद रिलॉन्च करने का फैसला लिया गया है! ट्विटर चीफ ने कहा है कि फिलहाल अगले कुछ दिनों के लिए ट्विटर का ब्लू टिक प्लान को रिलॉन्च करने पर रोक लगा रहे हैं! जब तक किसी व्यक्ति की सही तरीके से जांच नहीं हो जाती है उसे ट्विटर का ब्लू टिक नहीं दिया जाएगा. व्यक्ति और किसी संस्था को अलग-अलग कलर का वेरिफिकेशन टिक दिया जाएगा. इससे किसी व्यक्ति और संस्था के ट्वीट के बीच फर्क पता किया जा सकता है! इसके साथ ही कंपनी और इंडिविजुअल के ट्विटर अकाउंट को वेरिफाइड बेंच के अलग-अलग कलर देने का प्लान है! गौतलब है कि मस्क के फैसले से कम्पनी को बहुत नुक्सान हुआ था!  

जीनत अमान की दास्तान … अभी न जाओ छोड़ के…!

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दिलीप कुमार

लेखक

देव साहब के अपने दौर में या उनके दशकों बाद या आज के दौर में “अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं” ऐसे गुनगुनाती फीमेल फैन्स दिखती हैं तो यूँ लगता है, कि वो अपने हीरो देवानंद साहब को प्रेम प्रस्ताव भेज रही हैं. तीन पीढ़ियों में संवेदनशील प्रेमी के रूप में देव साहब सिल्वर स्क्रीन को जीते हुए, चले गए…. हिन्दी सिनेमा में शायद ही कोई नायिका रही हो जिसने देव साहब के साथ रोमांस करने की इच्छा न जाहिर की हो, महिलाओं में देव साहब का सुपरस्टारडम, दीवानगी अपने चरम पर थी. बहुत अजीब सी बात है, देव साहब का सुरैया के अलावा किसी के साथ कोई अफेयर भी नहीं हुआ. इसीलिए देव साहब को सभ्य इश्क़बाज कहा जाता है.

सत्तर के दशक में एक बोल्ड नायिका उभर कर आती हैं, नाम ज़ीनत अमान.. यूँ तो जीनत 1971 में हिन्दी सिनेमा में पदार्पण कर चुकी थीं. वहीँ सन 1971 में जीनत अमान को देव साहब अपनी फिल्म हरे राम हरे कृष्णा”  से पर्दे पर लाए.. दम मारो दम.. गाने में झूमती जीनत को कौन भूल सकता है. इसके बाद वो बोल्ड अवतार ज़ीनत अमान की पहिचान बन गया..देव साहब एवं ज़ीनत अमान ने लगभग आधा दर्जन से अधिक फ़िल्मों में साथ काम किया.

देव साहब अपनी आत्मकथा” रोमांसिंग विथ लाइफ” में लिखते हैं- मैंने अपने फिल्मी सफर में कई नायिकाओं के साथ काम किया. मुझे हज़ारों महिलाओं ने हिन्दी सिनेमा की नायिकाओं ने भी प्रेम प्रस्ताव दिया, लेकिन मुझे किसी के लिए आकर्षण नहीं महसूस हुआ. सत्तर के दशक में ज़ीनत अमान के साथ काम करते हैं मुझे लगा कि ज़ीनत से मुझे इश्क़ हो गया है, पहले मुझे लगा कि ज़ीनत तो मुझसे बहुत छोटी है, मैंने अपने मन को समझाना चाहा.. लेकिन प्रेम में बह चुके मन को समझाना बहुत मुश्किल है.  ज़ीनत मेरे प्रति बहुत आभारी थी, बहुत इज्ज़त करती थी. मैं नहीं चाहता था, कि ज़ीनत एहसानमंद होते हुए मेरे से जुड़े. इसलिए कभी उसको अपने मन की बात नहीं बताई.एक बार मैंने सोचा कि ज़ीनत अमान को अपने दिल की बात बताता हूं अपने दिल की बात बताने के लिए मैं ज़ीनत को ताज होटेल के राउंडअबाउट रेस्त्रां में उसको बुलाया, वहाँ पहुंचकर मैंने देखा राज कपूर जी पहले से ही मौजूद थे. ज़ीनत अमान ने झुककर राज कपूर के पैर छुए, तब राज कपूर ने हंसकर ज़ीनत अमान से कहा तुमने हमेशा सफ़ेद ड्रेस पहनने के अपने वायदे को नहीं निभाया. मुझे लगा कि राज कपूर एवं ज़ीनत अमान में कुछ नजदीकियां हैं, मैंने वहाँ से चले जाना बेहतर समझा. उस दिन के बाद आज तक मैं ज़ीनत अमान से नहीं मिला, मैंने उसको अपने रास्ते जाने दिया. हालाँकि राज कपूर जी एवं ज़ीनत अमान का रिश्ता सम्मान का था. कोई स्त्री – पुरुष का प्रेम नहीं था. ज़ीनत अमान एक बड़े कलाकार के प्रति सम्मान प्रकट कर रही थीं…. बाद में मैंने किसी प्रकार की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्यों कि मुझे ज़ीनत अमान के अपने सपनों के बारे में पता था… अभी उसको अपने हिस्से का स्टारडम देखना था. अंततः मैं आगे बढ़ गया’. देव साहब ने अपनी आत्मकथा में अपनी ज़िन्दगी के एक – एक हर्फ को ईमानदारी से खोलकर रख दिया है.

वो एक आदर्श दौर था. पहले भी हिन्दी सिनेमा में खूब अफेयर होते थे, वो लोगों को जेहन में उतर जाते थे, राज कपूर – नरगिस जी का रूहानी प्रेम कौन भूल सकता है.. अशोक कुमार – नलिनी जयवंत का प्रेम..दिलीप कुमार – मधुबाला, कामिनी कौशल के साथ जुनून की हद तक का प्रेम कोई भी नहीं भूल सकता. इन सबसे जुदा देव साहब एवं सुरैया जी का प्रेम सुरैया जी तो देव साहब का प्रेम हृदय में लिए दुनिया छोड़ गईं उन्होंने दूसरी शादी भी नहीं की…. देव साहब हमेशा महिलाओं के साथ घिरे रहे, लेकिन कभी भी उनका नाम किसी के साथ नहीं जुड़ा. देव साहब सचमुच सभ्य इश्क़बाज थे. मैंने सैकड़ों मैग्जीन, आदि पढ़ा है, जिसमें देव साहब एवं ज़ीनत अमान जी के नाम पर  कितनी फूहड़ता बेची जाती थी और अब भी बेची जाती हैं. कभी – कभी सोचता हूं सिल्वर स्क्रीन पर काम करती हुई महिला भी तो महिला ही होती है, लेकिन किसी के लिए भी व्यक्तिगत रूप से फूहड़ता कैसे बेची जाती है??? ज़ीनत अमान ने  कभी भी नहीं स्वीकारा की देव साहब से प्रेम करती थीं, हालांकि आज भी वो देव साहब की शुक्रगुजार हैं….. आज जीनत अमान जी का जन्मदिन है…

फुटबॉल के बुखार में डूबी दुनियां, फीफा विश्व कप शुरू

ग्रैंड ओपनिंग सेरेमनी के साथ कतर में दुनियां कि सबसे लोकप्रिय खेल प्रतियोगिता फीफा वर्ल्ड कप शुरू हो गई है! प्रतियोगिता के शुभारम्भ पर बायत स्टेडियम में दुनियाभर के बड़े-बड़े आर्टिस्ट ने परफॉर्म कर लोगों का दिल जीत लिया!

फुटबॉल के महाकुंभ फीफा विश्व कप 2022 के उद्घाटन समारोह में कोरियन बैंड BTS, अमेरिकी बैंड ब्लैक आइड पीज, नाइजीरियन सिंगर पैट्रिक ननेमेका ओकोरी, कोलंबियन सिंगर जे बल्विन और अमेरिकन रैपर लिल बेबी के संगीत पर पूरी दुनियां झूम उठी! इसके बाद कतर और एक्वाडोर के बीच पहला मुकाबला खेला गया!  

इस टूर्नामेंट में की मेजबानी कतर कर कर रहा है जहां के 8 स्टेडियमों में विश्व कप के मुकाबले खेले जाएंगे। यह विश्व कप 29 दिनों तक खेला जाएगा जिसमें कुल 32 टीमें भाग ले रही है और इस दौरान 64 मैच खेले जाएंगे। हर चार साल में होने वाले इस विश्व कप की तैयारी के लिए कतर ने पानी की तरह पैसे को बहाया। हजारों करोड़ खर्च कर कतर अब इसका आयोजन करने जा रहा है।  

ग्लोबल खेल होने के कारण फीफा जैसे टूर्नामेंट में इतनी बड़ी संख्या में टीमें हिस्सा लेती। कई देश तो ऐसे भी हैं जो विश्व कप के लिए क्वालीफाई ही नहीं कर पाते हैं। सिर्फ इस खेल की लोकप्रियता के कारण नहीं बल्कि टूर्नामेंट में चैंपियन बनने वाली टीम पर होने वाली इनामी रकम भी खेल के इस महाकुंभ में टीम को भाग लेने के लिए आकर्षित करती है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि फीफा विश्व कप में चैंपियन बनने वाली को 344 करोड़ रुपए इनाम के तौर पर मिलेगा। वहीं फुटबॉल विश्व कप 2022 में कुल प्राइज मनी 3568 करोड़ रुपए है। सिर्फ खिताबी जीतने वाली टीम पर ही पैसों की बारिश नहीं होगी बल्कि रनरअप रहने वाली भी मालामाल हो जाएगी। इस टूर्नामेंट में उप विजेता रहने वाली टीम को 245 करोड़ की धनराशि मिलेगी।

करोना काल के बाद क्या काल बन गया है कार्डिएक अरेस्ट !!

करोना ने केवल फेफड़े ही नहीं दिल पर भी अटैक किया है! कोविद 19 का खौफनाक दौर बीतने के बाद अब हार्ट अटैक के सामने आ रहे हैं! जिन लोगों को कोरोना हो चुका है उन लोगों को डॉक्टर विशेष सावधानी बरतने की सलाह देते हैं। लेकिन कोरोना को हार्ट अटैक का साइड इफेक्ट की अब तक कोई पुष्टि नहीं हुई है। हालाँकि लंदन में हुए एक शोध के अनुसार कोविड के शिकार लोगों में स्ट्रोक आने कि संभावना 17 गुना होती है! अभी हाल ही में एक के बाद जानी मानी हस्तियों के हार्ट अटैक से निधन के बाद इस खतरे पर बहस हो रही है!

24 साल में बंगाली एक्ट्रेस एंड्रिला शर्मा की मौत हार्ट अटैक से होने से सभी स्तब्ध हैं! इससे पहले बीते दिन 78 साल की मशहूर अभिनेत्री तबस्सुम का निधन भी हार्ट अटैक के कारण ही हुआ!  टीवी एक्टर सिद्धांत वीर और कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव (Raju Srivastav) ने जिम करते वक्त अपनी जान गंवाई थी! चाहें सेलिब्रिटी हों या आम आदमी कोविड दौर के बाद हर दिन हार्ट की बीमारी की चपेट में आकर जिंदगी से हाथ धो रहे हैं, जो आने से पहले कोई दस्तक भी नहीं दे रही है। कार्डियक अरेस्ट काल बनकर लोगों को लील रहा है! आमतौर पर हार्ट अटैक से होने वाली मौतों के पीछे कई कारण हुआ करते हैं, मगर पिछले डेढ़ सालों में हार्ट अटैक से ऐसे लोगों की मौत हुई है, जो शारीरिक तौर पर पूरी तरह फिट थे। जिन लोगों को कोरोना हो चुका है उन लोगों को डॉक्टर विशेष सावधानी बरतने की सलाह देते हैं। ऐसे में हार्ट अटैक के पीछे की असली वजह कोरोना को ही समझा जा रहा है। हालांकि अब तक इसकी कोई पुष्टि नहीं हुई है। एक नई स्टडी से पता चला है कि कोविड से संक्रमित हो चुके लोगों में कई जानलेवा बीमारियों का खतरा तुलनात्मक रूप से अधिक है। इस अध्ययन के आधार पर करोड़ों लोग खतरे के दायरे में आते हैं। द सन की खबर के अनुसार, रिसर्च में कहा गया है कि कोरोना के चलते अस्पताल में भर्ती हुए लोगों में, अंसक्रमित लोगों की तुलना में, वीनस थ्रोम्बोम्बोलिज़्म (VTE) विकसित होने की संभावना 27 गुना अधिक है। जिन लोगों को इलाज के लिए अस्पताल नहीं जाना पड़ा उनमें VTE विकसित होने की संभावना अंसक्रमितों की तुलना में तीन गुना ज्यादा है। वीटीई एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें नसों में खून का थक्का बन जाता है। अगर यह थक्का बड़ा हो जाए या इसका इलाज न किया जाए तो यह मौत का कारण भी बन सकता है।

अमजद खान की कहानी : गब्बर न कभी डरेगा न कभी मरेगा

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दिलीप कुमार

स्तंभकार

एक शिक्षित, शालीन, शख्सियत बचपन में अमजद खान बहुत ही शरारती किस्म के बच्चे थे. अमजद खान अविभाजित लाहौर में जन्मे थे.हिन्दी सिनेमा के अभिनेता जयंत के पुत्र थे. अभिनेता बनने से पूर्व अमजद , दूरदर्शी निर्देशक के.आसिफ के साथ सहायक निर्देशक के रूप में काम करते हुए बारीकियों को सीख रहे थे. अमजद खूब पढ़े-लिखे इंसान थे, वहीँ के आसिफ़ के साथ रहते हुए भी वो मूलतः अभिनेता रहे, यह पहलू आकर्षित करता है, कि निर्देशन सीखते हुए भी अभिनय नहीं छोड़ा. अमजद खान ने के.आसिफ की फिल्म “लव एंड गॉड” में पहली बार बतौर अभिनेता कैमरे का सामना किया,फिर चेतन आनन्द की फिल्म “हिंदुस्तान की कसम” में एक पाकिस्तानी पायलट की भूमिका निभाई. इन दोनों भूमिकाओं में कोई प्रभाव नहीं छोड़ सके. ये औसतन किरदार जो न दर्शको को याद रहे और न स्वयं अमजद खान याद करना चाहते थे. अंतत अमजद खान शोले को अपनी पहली फिल्म मानते थे. शोले फिल्म के काम करने वाले प्रत्येक किरदार की वो उसके लिए सिग्नेचर फिल्म थी. अमजद अपनी सिनेमाई यात्रा की सफलता का श्रेय अपने पिता को देते थे, उनको लगता था, कि मेरे पिता ने जो सिखाया वो कोई भी पाठशाला नहीं सिखा सकती थी, वो कहते कि  मेरे पिता जी मेरे लिए पूरा का पूरा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा संस्थान हैं. केवल अदाकारी ही नहीं ज़िन्दगी का प्रत्येक सबक उनसे सीखा, कोई भी व्यक्ति अमजद नामक व्यक्ति अपने पिता रूपी अपनी जड़ से जुड़ा होता है, तो उसका एक पूरा का पूरा वृक्ष बन जाना स्वाभाविक है….

व्यक्ति अपने जीवन में हर कोई ऐसा कुछ करता है, या करना चाहता है. जिसमें उसको सुकून मिले, हर कोई ऐसा करना चाहता है, जिससे उनकी साकारात्मक स्मृतियाँ उसके अपने लोगों के जेहन में अंकित हो जाएं. पर्दे पर खलनायकी के खूंखार तेवर दिखाने वाले अमजद निजी जीवन में बेहद दरियादिल और शांति प्रिय इंसान थे. शिक्षित शालीन थे.

अमजद बहुत दयालु इंसान थे. हमेशा दूसरों की मदद को तैयार रहते थे.यदि फिल्म निर्माता के पास पैसे की कमी देखते, तो उसकी मदद कर देते, यह बात आज के दौर में थोड़ा हास्यास्पद लग सकती है, कि फिल्म निर्माता के पास पैसे नहीं होते थे, यह बिल्कुल सच है, क्यों कि तब फ़िल्में बनाना व्यपार करना नहीं था, बल्कि सामाजिक चेतना का प्रसार करना होता था. उस दौर में भी अमजद खान जैसे लोग थे, जो फिल्म की महत्ता को समझते थे, फिर अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे. आज के व्यपारिक दौर में यह बातेँ सुनना भी एवं जिक्र करना भी सदियों पुरानी बातेँ हैं, या कोई राजा रानी टाइप कहानियां हैं ऐसा आभास होता है.

आज के दौर में कलाकारों को सीखना चाहिए, कि सत्ता की चरण चाशनी करने की बजाय कैसे अपनी आवाज का उपयोग किया जाता है, सीखना चाहिए. अमजद खान की शख्सियत हर किरदार में लाजवाब थी. निरंकुश सत्ता के खिलाफ़ बोलने से पीछे नहीं हटे. यह नरीमन पॉइंट पर एयर इंडिया के सभागार में होने वाली सेंसरशिप पर एक पैनल हुई. चर्चा पैनल में कई गणमान्य लोग थे.अमजद उनमें से एक थे.तत्कालीन केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री श्री एच.के.एल.भगत मुख्य अतिथि थे.अमजद चर्चा में अपना पक्ष रख रहे थे, जब उन्होंने भगत को देखा और दर्शकों को बताया,”ये देखिये हमारे मंत्री जी सो रहे है, ये हमारी बात क्या समझेगे?” मिस्टर भगत गुस्से से लाल हो गए, लेकिन तब एक शब्द भी नहीं कह सकते थे. वह कभी नहीं भूले कि कैसे अमजद ने उन्हें बेइज्जत किया था, और इसका परिणाम तब देखा गया जब अमजद ‘पुलिस चोर’ और ‘अमीर आदमी गरीब आदमी’ द्वारा निर्देशित दोनों फिल्मों का सेंसर द्वारा उनकी फ़िल्में रोक दी गईं थीं.

हिन्दी सिनेमा में डाकू का एक परम्परागत चेहरा चला आ रहा था. धोती-कुर्ता  सिप पर पगड़ी आँखें हमेशा गुस्से से लाल. माथे पर काला तिलक, लंबी लंबी मूंछे, कमर में कारतूस की पेटी, कंधे पर लटकी बंदूक, हाथों में घोड़े की लगाम, मुँह से निकलती गालियाँ मतलब अभद्र विलेन होता था, डाकू हो तो क्या क्या ही कहने.अजीत एक ऐसे विलेन थे, जो पढ़े-लिखे सभ्य विलेन थे, उसके बाद अमजद खान ने फिल्म शोले के गब्बर सिंह डाकू की इस इमेज को एकदम काऊ बॉय शैली में बदल दिया.उसने ड्रेस पहनना पसंद किया. कारतूस की पेटी को कंधे पर लटकाया.गंदे दाँतों के बीच दबाकर तम्बाखू खाने का निराला अंदाज, अपने गुर्गों से सवाल-जवाब करने के पहले खतरनाक ढंग से हँसन….. फिर एक अकड़ से पूछना – कितने आदमी थे? अमजद ने अपने हावभाव, वेषभूषा और कुटिल चरित्र के जरिए हिन्दी सिनेमा के डाकू को कुछ इस तरह पेश किया कि वर्षों तक डाकू गब्बर के अंदाज में पेश होते रहे. महाभारत में कृष्ण का रोल करने वाले नीतीश भारद्वाज कहते हैं “हम जितने भी महाभारत के किरदार हैं,सिल्वर स्क्रीन पर  हम हीरो बनने आए थे, लेकिन मुझे कृष्ण बना दिया गया, किसी को अर्जुन, किसी को दुर्योधन, नीतीश कहते हैं, कि हमारा जन्म ही शायद इसी के लिए हुआ है, और हम अपने जीवन से संतुष्ट हैं, क्योंकि महाभारत काल असर था, कि आज भी आँखे बंद करो तो किसी को देखना चाहें कल्पना में की कृष्ण कैसे रहें होंगे तो नीतीश भारद्वाज का नाम जेहन में आता है. यही बात गब्बर सिंह उर्फ़ अमजद खान के लिए सटीक बैठती है, अमजद खान इस सिल्वर स्क्रीन नहीं सभी को बता कर चले गए, कि भारत में कभी रावण था, दुर्योधन था, तो एक डाकू था,जिसका नाम बब्बर सिंह था. कलाकार की कला जब संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तो वो अमजद खान गब्बर सिंह बन जाते हैं, फिर लगता है शायद उनका जन्म गब्बर बनने के लिए ही हुआ था.

यूँ तो अमजद खान गब्बर सिंह के किरदार के लिए कभी भी पहली पसंद नहीं थे. शोले फिल्म की कास्टिंग के दौरान निर्देशक रमेश सिप्पी के जेहन में गब्बर सिंह के लिए एक ही नाम डैनी था. गौरतलब है कि शोले की पटकथा पढ़ने के बाद संजीव कुमार ने भी गब्बरसिंह का रोल करने की इच्छा जाहिर की, लेकिन सिप्पी की पहली पसंद डैनी थे, जो उस दौर में तेजी से उभरकर पहली पायदान के खलनायक बन गए थे.

मेहनत के साथ साथ नियति जैसा भी कुछ होता है. उन दिनों  फिरोज खान की फिल्म ‘धर्मात्मा’ की शूटिंग में डैनी व्यस्त थे. फिरोज़ खान को पूरा वक़्त लिखित में दे चुके थे. फिर वही हुआ सभी को पता है, इतिहास है. ऐसे समय में शोले के पटकथा लेखक सलीम-जावेद ने अमजद के नाम की सिफारिश रमेश सिप्पी से की थी. सलीम – जावेद अमजद खान को थियेटर में काम करते हुए देखकर पहले से ही प्रभावित थे. रमेश सिप्पी ने आख़िरकार अमजद खान को कास्ट कर लिया, फिर गब्बर सिंह के रूप में अमजद खान अमर हो गए. अमजद को जो गेट-अप दिया गया, उस कारण उनका चरित्र एकदम से लार्जर देन लाइफ हो गया. पश्चिम के डाकूओं जैसा लिबास पहनकर, गंदे दाँतों से अट्टहास करती हँसी. बढ़ी हुई काँटेदारदाढ़ी और डरावनी हँसी के जरिये, और संवाद अदायगी में ‘पॉज’ का इस्तेमाल तो उनका बहुत ही प्रभावशाली था, क्रूरता गब्बर के चेहरे से टपकती थी,दया करना तो जैसे वह जानता ही नहीं था. उसकी क्रूरता ही उसका मनोरंजन  थी. उसने बसंती को काँच के टुक्रडों पर नंगे पैर नाचने के लिए मजबूर किया. अधिकांश विलेन हिरोइन के प्रति अपनी मुहब्बत को प्रकट करते हैं, वो नायिका को प्रताड़ित नहीं करते थे, लेकिन गब्बर ने नायिका बसंती को प्रताड़ित किया, इससे दर्शकों के मन में गब्बर के प्रति नफरत पैदा हुई और यही पर अमजद कामयाब हो गए.

हिन्दी सिनेमा में महान सत्यजीत रे की शख्सियत एक फिल्मी साहित्यिक संस्थान की है. महान सत्यजीत रे अधिकांश बंगाली फिल्में बनाते थे. सत्यजीत रे ने सत्तर के दशक में मुन्शी प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित एक हिन्द़ी फिल्म बनाना चाहते थे.‘शतरंज के खिलाड़ी’ इस फ़िल्म में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के रोल के लिए उन्हें एक अभिनेता की दरकार थी. उसी समय 15 अगस्त 1975 को एक हिन्दी फिल्म आई, ‘शोले’, फिल्म देखते हुए उनको अपनी फिल्म के किरदार ‘वाजिद अली शाह’ किरदार उनको मिल चुका था. उनकी नज़र जिस कलाकार पर  ‘डाकू गब्बर सिंह’. महान सत्यजीत रे हीरे की पहिचान करने वाले जौहरी थे, अंततः उन्होंने इतने बड़े किरदार के लिए अमजद खान को चुन लिया. कॅरियर के शुरुआत में ही महान सत्यजीत रे के साथ काम करना किसी को भी रोमांचित कर सकने वाला अनुभव हो सकता था.   उनकी अदाकारी देखने के बाद सत्यजीत रे साहब ने पहली ही बार में तय कर लिया कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में वे अमजद खान को ही नवाब वाजिद अली शाह के किरदार के लिए लेंगे. एक दंतक कथा चलती रहती है कि कई लोगों ने सत्यजीत रे को समझाया था कि इस किरदार में अमजद को लेना ये जोख़िम होगा, लेकिन सत्यजीत रे की सिनेमाई समझ को कोई नकाराता था मैंने सुना नहीं है, किस में इतनी समझ थी कि वो उनको समझाता,हालांकि वो खुद डिस्कशन करते थे, लोगों के सुझाव मानते भी थे.

हिन्दी फिल्में ख़ास तौर पर, कुछ तय फॉर्मूलों पर चला करती थी. इसीलिए फिल्म बनाने वाले अक्सर कलाकारों को उसी तरह के किरदारों में बार-बार काम लेते थे. जिनमें देखने वाले उन्हें एक बार पसंद कर चुके हैं.और ‘शोले’ में अमजद खान को ‘गब्बर सिंह’ के किरदार में किस हद तक पसंद किया गया. सत्यजीत रे को कोई फर्क़ नहीं पड़ा लिहाज़ा, अमजद खान से संपर्क किया गया. जैसे ही अमजद खान ने सुना कि सत्यजीत रे उन्हें अपनी फिल्म में लेना चाहते हैं, उन्होंने तुरंत ही ‘हां’ कर दी. क्योंकि कोई बिरला ही होता, जो उनके लिए मना करता.

शबाना आज़मी कहती थीं, “मुझे महान सत्यजीत रे की फिल्म के सेट पर झाड़ू मारने का काम भी मिल जाए तो मैं काम करना चाहूँगी. सत्यजीत रे की यही करिश्माई शख्सियत थी. अमजद खान के लिए यह मौका खुद को एक मुख्तलिफ किरदार में खुद को साबित करना था, उसके लिए चुनौती आसान नहीं थी.

हालांकि अमजद खान के पास उस वक़्त शूटिंग के लिए कोई तारीख़ नहीं थी. उन्हें लगता था कि सत्यजीत रे जैसे महान आदमी मेरा इंतजार क्यों करेंगे. अंततः उन्होंने अपनी दिक़्क़त सत्यजीत रे को बता दिया. यह बात अमजद खान के लिए रोमांचित करने वाली थी, उन्होंने भी ज़्यादा वक़्त न लिया यह कहने में कि ‘कोई बात नहीं, हम इंतज़ार करेंगे’. तीन महीने महान सत्यजीत रे  ने अमजद खान की तारीख़ों के लिए इंतजार किया. इसके बाद उनके हिस्से की शूटिंग शुरू हो सकी और साल 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ लोगों के सामने आई.दिलचस्प बात ये कि इस फिल्म में ‘शोले’ की तरह ‘गब्बर’ यानी अमजद खान के मुकाबले में ‘ठाकुर’ मतलब संजीव कुमार ही थे. शतरंज के मुकाबलों में. संजीव कुमार ने इस फिल्म में मिर्ज़ा सज़्ज़ाद अली का किरदार किया.

फिल्म जब आई तो फिल्म समीक्षक दंग रह गए. कि नवाब वाजिद अली शाह की सूरत में यह वही ‘गब्बर’ है, जो ‘शोले’ में तंबाकू रगड़ते हुए डायलॉग बोलता था. ‘यहां से पचास – पचास कोस दूर गांव में, जब बच्चा रात को रोता है, तो मां कहती है बेटे सो जा. सो जा, नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा’. या, ‘कितने आदमी थे. सुअर के बच्चो. वो दो थे और तुम तीन. फिर भी वापस आ गए’.महान संजीव कुमार के ही सामने, ‘बहुत जान है तेरे हाथों में. ये हाथ हमको दे दे ठाकुर. ये हाथ हमको दे ठाकुर. ऐसे दमदार अभिनय करना आसान नहीं होता. बेमिसाल अदाकार अमजद खान, जिनका कमाल अभिनय सिर्फ़  दो किरदारों में नहीं बाँध सकते. अमजद खान ने हर किरदार को बखूबी निभाया.

अमजद खान मेन स्ट्रीम हीरो नहीं थे, फिर भी इस किस्म के शायद इकलौते अदाकार थे. एक साथ दस – दस फिल्मों की शूटिंग करते थे. सभी फिल्मों में उनके किरदार अलग होते थे.  हर अलग किरदार को अलग तरीके से निभाना, एक ही दिन में कई तरह से कहानियो पर काम करना आसान नहीं था. एक किरदार को दूसरे के साथ मिक्स नहीं किया. सभी किरदारों में एक अलग लेवल होता था. अमजद खान को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो थियेटर, नाटक, मूलत अभिनय में पारंगत थे. इसलिए इस विधा में इस खास मुकाम पर पहुंच सके.  अमजद खान ने ख़ुद एक इंटरव्यू के दौरान कहा था, ‘मैं ख़ुश-क़िस्मत हूं कि मुझे इस तरह के डायरेक्टर्स और राइटर्स मिले, जिन्होंने मुझे एक तरह के किरदार में डूबने से बचा लिया. उन्होंने मेरे अन्दर किरदारों को देखा और ऐसे तमाम किरदार मेरे हवाले किए, जिन्हें देखकर देखने वाले मेरी हौसलाअफजाई करते हैं.

अमजद खान बचपन से ही शरारती थे, कहते हैं कि आदमी का बचपन उसके अपने किसी न किसी कोने में जरूर रहता है. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि ‘शोले’ की रिलीज के पहले मैंने ईश्वर से कहा था कि यदि फिल्म सु‍परहिट होती है तो वे फिल्मों में काम करना छोड़ दूँगा, कोई अपने पीक पर काम करना क्यों छोड़ देगा, हालांकि यह मेरा बचकाना निर्णय था. हालांकि फिल्म हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई, अमजद खान के लिए अब रास्ता शुरू हुआ था, क्यों छोड़ देते. एक कार दुर्घटना में अमजद बुरी तरह घायल हो गए. एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में लोकेशन पर जा रहे थे. वो ठीक तो हो गए. लेकिन डॉक्टरों की बताई दवा के सेवन से उनका वजन और मोटापा इतनी तेजी से बढ़ा कि वे चलने-फिरने और अभिनय करने में कठिनाई महसूस करने लगे. वैसे अमजद मोटापे की वजह खुद को मानते थे. अमजद ने अपना वादा नहीं निभाते हुए काम करना जारी रखा. कहते थे, कि मैंने खुदा के साथ किया गया वायदा नहीं निभाया. इसलिए मेरा इतना वजन बढ़ गया. यह सज़ा खुदा ने मुझे दे दिया है. इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो अमजद खान ही जानते थे.

फिल्मी पर्दे पर खूबसूरत वसंती पर भी अत्याचार करने वाला गब्बर निजी जीवन में बहुत ही शालीन शख्स थे, खूब प्रेम बांटने वाले, खूब प्यार करने वाले थे. आमिर खान की फिल्म ‘राजा हिन्दुस्तानी’ का गाना ‘परदेसी परदेसी’ हर सिने प्रेमी को याद है. इस गाने में कल्पना अय्यर ने काम किया था. इस गाने में अभिनेत्री ने बंजारा लुक और डांस से सभी को दीवाना बना दिया. कल्पना अय्यर ने फिल्मों में आइटम नंबर्स कर लोगों के दिलों में एक अलग पहचान बनाई. कल्पना अय्यर और अमजद खान के का अफेयर काफी चर्चा में रहा. दोनों एक साथ फिल्म ‘प्यार का दुश्मन’ में नजर आए थे. कल्पना अय्यर अमजद खान को बहुत प्यार करतीं थीं, और वह अमजद से शादी करना चाहती थीं. कल्पना अय्यर अमजद खान के प्यार में इस कदर समर्पित थीं, कि अमजद खान की मौत हो जाने के बाद उन्होंने कभी शादी नहीं की. वो आज तक कुंवारी ही हैं. ऐसा प्रेम दुर्लभ होता है, ऐसा समर्पण, त्याग, लोगों को बताता है कि केवल पाना ही प्यार नहीं है, आप प्रेम मन से करते हैं उसको आप आजीवन कर सकते हैं, अमजद खान एवं कल्पना अय्यर का रूहानी प्रेम आजकल के प्रेमियों के लिए प्रेरणा है…..

अमजद खान बहुत ही बेपरवाह आदमी थे, मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसे लोग बहुत पसंद आते हैं. इसके अलावा वे चाय के भी शौकीन थे. एक घंटे में दस कप तक वे पी जाते थे. इससे भी वे बीमारियों का शिकार बने. मोटापे के कारण उनके हाथ से कई फिल्में फिसलती गई. 27 जुलाई 1992 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और दहाड़ता गब्बर हमेशा के लिए इस फानी दुनिया को रुखसत कर गया. अमजद खान का एक कालजयी डायलॉग था, जो डर गया समझो मर गया….. यह डायलॉग उनकी ज़िन्दगी का पूरा का पूरा दस्तावेज है… अमजद खान उर्फ गब्बर न कभी डरेगा न कभी मरेगा अपनी स्मृतियों के साथ जिंदा रहेगा…..

टी- 20 विश्व कप जीतकर क्रिकेट का सुनहरे दौर में पहुंचा इंग्लैण्ड

राजनीतिक रूप से अपने सुनहरे दौर को तलाश रहा इंग्लैंड क्रिकेट के सुनहरे दौर में पहुँच गया है! जोस बटलर की कप्तानी में टीम ने टी20 विश्वकप 2022 के फाइनल में पाकिस्तान को हराकर खिताब पर कब्जा कर लिया!  इंग्लैंड ने मेलबर्न में खेले गए मुकाबले में बेन स्टोक्स के तूफानी प्रदर्शन के दम पर पाक को 5 विकेट से हराया. पाकिस्तान ने पहले बैटिंग करते हुए 138 रनों का लक्ष्य दिया था. इसके जवाब में इंग्लैंड ने 5 विकेट के नुकसान पर मैच जीत लिया. इंग्लैंड ने दूसरी बार टी20 विश्वकप के खिताब पर कब्जा किया. टीम के लिए सैम कर्रन और आदिल रशीद ने खतरनाक गेंदबाजी की! इंग्लैंड ने दूसरी बार टी20 विश्वकप के खिताब पर कब्जा किया है! इससे पहले उसने 2010 में फाइनल मैच में ऑस्ट्रेलिया को 7 विकेट से हराकर टूर्नामेंट अपने नाम किया था. इसके बाद टीम साल 2016 में भी फाइनल में पहुंची. लेकिन तब उसे वेस्टइंडीज ने हरा दिया था!

पाकिस्तान के दिए लक्ष्य का पीछा करने उतरी इंग्लैंड की टीम ने 19 ओवरों में 5 विकेट के नुकसान पर लक्ष्य हासिल कर लिया. टीम के लिए बेन स्टोक्स ने दमदार पारी खेली. उन्होंने 49 गेंदों का सामना करते हुए नाबाद 52 रन बनाए. स्टोक्स की इस पारी में 5 चौके और एक छक्का शामिल रहा. मोईन अली ने 19 रनों का अहम योगदान दिया. उन्होंने 13 गेंदों का सामना करते हुए 3 चौके लगाए!

राजीव गांधी हत्याकांड मामला ; तीन दशक बाद जेल से बाहर आई दोषी नलिनी श्रीहरन

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजीव गांधी हत्या मामले में शेष छह दोषियों को रिहा करने के आदेश के एक दिन बाद नलिनी श्रीहरन को शनिवार को वेल्लोर जेल से रिहा कर दिया गया। समाचार एजेंसी पीटीआई ने बताया कि उनके पति मुरुगन और तीन अन्य दोषियों (संथान, रॉबर्ट पायस और जयकुमार) को भी रिहा कर दिया गया। मुरुगन और संथन को वेल्लोर केंद्रीय जेल से रिहा किया गया, जबकि पायस और जयकुमार को चेन्नई की पुझल जेल से रिहा किया गया। चारों श्रीलंकाई नागरिक हैं और उन्हें वहां रहने के लिए तिरुचिरापल्ली के विशेष शरणार्थी शिविर में ले जाया गया।

जेल से रिहा होने के बाद नलिनी ने मीडिया से बात भी की। नलिनी कहा कि पिछले 32 सालों में जिन तमिलनाडु वासियों ने उनका सपोर्ट किया है वह उन सबका शुक्रिया करती हूं। उन्होंने कहा कि हमारा परिवार बहुत खुश है मैं अपनों के साथ नया जीवन शुरू करने जा रही हूं।

हफ्ते में दो बार भूकंप, दिल्ली में खतरे की घंटी

दिल्ली-एनसीआर में शनिवार को एक हफ्ते में दूसरी बार भूकंप के तेज झटके महसूस किए गए। जैसे ही लोगों ने भूकंप के झटके महसूस किए वह घरों व ऑफिसों से बाहर निकलने लगे। करीब 30 से 40 सेकंड तक यह भूकंप के झटके महसूस किए गए। कमरों में पंखे हिलने लगे और गिलास में रखा पानी हिल रहा था। यूपी-उत्तराखंड के कई जिलों में यह झटके महसूस किए गए हैं। बताया जा रहा है कि भूकंप की तीव्रता 5.4 मापी गई थी। भूकंप का केंद्र नेपाल का शिलांग बताया गया है।

इससे पहले उत्तराखंड में बुधवार सुबह करीब 6.27 बजे पिथौरागढ़ में भूकंप के झटके महसूस किए गए थे। रिक्टर स्केल पर भूकंप की तीव्रता 4.3 मापी गई थी। नेशनल सेंटर फॉर सीस्मोलॉजी के मुताबिक, भूकंप की गहराई जमीन से 5 किमी नीचे थी। उधर, मंगलवार रात दिल्ली एनसीआऱ समेत नेपाल में भूकंप के झटके महसूस किए गए थे। नेपाल में भूकंप के झटकों के बाद एक बिल्डिंग गिर गई जिसके मलबे में दबकर छह लोगों की मौत हो गई थी।

बार-बार आने वाला भूकंप क्या किसी खतरे की ओर इशारा कर रहा है। एक्सपर्ट्स भी इस आशंका को मना नहीं करते हैं। एक्सपर्ट यह भी कहते हैं कि दिल्ली को सबसे बड़ा खतरा हिमालय रीजन की बेल्ट से है। नैशनल सेंटर फॉर सिस्मॉलॉजी (एनसीएस) के अनुसार दिल्ली में बड़े भूकंप की आशंका कम है, लेकिन इससे पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। दिल्ली को सबसे बड़ा खतरा इस समय हिमालय रीजन की बेल्ट से है। आखिर दिल्ली-एनसीआर समेत उत्तर भारत में आए इस भूकंप की वजह क्या है। आइए जानते हैं।

पृथ्वी के अंदर असल में 7 प्लेटलेट्स हैं। यह प्लेटलेट्स लगातार घूमती रहती हैं। जिस जगह पर प्लेटलेट्स टकराते हैं उसे हम फॉल्ट लाइन कहते हैं। टकराव के कारण उसके कोने मुड़ने लगते हैं। यही नहीं ज्यादा दवाब के चलते ये प्लेटलेट्स टूटने भी लगती हैं। प्लेटलेट्स टूटने के काण पैदा हुई ऊर्जा बाहर निकलने लगती है। इस वजह से उतपन्न डिस्टर्बेंस की वजह से भूकंप आता है।

पांच जोन में बांटा गया है

भारत को पांच भूकंपीय जोनों में बांटा गया है। सबसे ज्यादा खतरनाक जोन पांच है। इस क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 9 तीव्रता का भूकंप आ सकता है। जोन-5 में पूरा पूर्वोत्तर भारत, जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्से, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड गुजरात में कच्छ का रन, उत्तर बिहार का कुछ हिस्सा और अंडमान निकोबार द्वीप समूह शामिल है। इस क्षेत्र में अक्सर भूकंप आते रहते हैं। जोन-4 में जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के बाकी हिस्से, दिल्ली, सिक्किम, उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग, सिंधु-गंगा थाला, बिहार और पश्चिम बंगाल, गुजरात के कुछ हिस्से और पश्चिमी तट के समीप महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा और राजस्थान शामिल है।

इन जोन में कम खतरा

जोन-3 में केरल, गोवा, लक्षद्वीप द्वीपसमूह, उत्तर प्रदेश के बाकी हिस्से, गुजरात और पश्चिम बंगाल, पंजाब के हिस्से, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक शामिल हैं। जोन-2 भूकंप की दृष्टि से सबसे कम सक्रिय क्षेत्र है। इसे सबसे कम तबाही के खतरे वाले क्षेत्र की श्रेणी में रखा गया है। जोन-1 में देश का बाकी हिस्से शामिल हैं।

संगीतकारों के लिए संगीत का पूरा पाठ्यक्रम.. सचिन दा

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दिलीप कुमार

लेखक

हरदिल अजीज संगीतकार सचिनदेव बर्मन का मधुर संगीत आज भी श्रोताओं को भाव-विभोर करता है. उनके जाने के बाद भी बर्मन दादा के प्रशंसकों के दिल से एक ही आवाज निकलती है- ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…. यह बर्मन दादा के संगीत का अपना प्रभाव है. दरअसल उससे बाहर कोई संगीत प्रेमी निकलना चाहता भी नहीं है. बर्मन दादा के संगीत को सुनते हुए, ख़ासकर कालजयी फिल्म ‘गाइड’ का उन्हीं के द्वारा गाया गया गीत’ यहां कौन है तेरा मुसाफ़िर जाएगा कहाँ’ यह गीत हर किसी को भी मंत्रमुग्ध तो करता ही है. ख़ासकर सुनने वाले को बुद्धत्व के मार्ग पर ले जाता है. जब तक गीत खत्म हो रहा होता है, तब तक तो आदमी डूब चुका होता है.

सचिन देव बर्मन दादा अक्टूबर 1906 में त्रिपुरा के राजघराने में जन्मे. उनके पिता जाने-माने सितारवादक और ध्रुपद गायक थे. बचपन के दिनों से ही बर्मन दादा संगीत की तरफ झुकाव के कारण उनको संगीत विरासत में मिला. उनको अपने पिता से शास्त्रीय संगीत की तालीम मिली.इसके साथ ही उन्होंने उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली. अपने जीवन के शुरुआती दौर में  बर्मन दादा ने रेडियो से प्रसारित पूर्वोतर लोक-संगीत के कार्यक्रमों में काम किया. वर्ष 1930 तक वे लोकगायक के रूप में अपनी पहिचान बना चुके थे.  प्लेबैक सिंगर के रूप में 1933 में प्रदर्शित फिल्म ‘यहूदी की लड़की’ में पहली बार गाने का मौका मिला. इसके बाद उनको ज़ोर का झटका लगा, यह उनके संघर्ष की पराकाष्ठा थी. एक तो मुश्किल से काम मिलता है, बाद में आपका गाना रिकॉर्डिंग के बाद भी हटा दिया जाए तो मनोबल काफी कम हो जाता है,क्योंकि उस फिल्म से उनके गाए गीत को हटा दिया गया. अंततः उन्होंने 1935 में प्रदर्शित फिल्म ‘सांझेर पिदम’ में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी, लेकिन वे पार्श्वगायन में कुछ खास नहीं कर सके. संघर्षरत ही रहे, क्योंकि यहां तक भी कुछ खास पहिचान नहीं बना सके.

सन 1944 में संगीतकार बनने का ख्वाब लेकर बर्मन दादा बंबई आ गए. जहां सबसे पहले उन्हें 1946 में फिल्मिस्तान की फिल्म ‘एट डेज’ में बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म के जरिए वे कुछ खास पहचान नहीं बना पाए. कहते हैं संघर्ष से ही प्रतिभा चमक बिखेरती है. वही मुकाम बर्मन दादा का हुआ. 1947 में उनके संगीत से सजी फिल्म ‘दो भाई’ के पार्श्वगायिका गीता दत्त के गाए गीत ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया…’ की सफलता के बाद वे कुछ हद तक बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए. कुछ सालों बाद बर्मन दादा को मायानगरी बंबई की चकाचौंध कुछ ज़मी नहीं. वो बंबई की आबो हवा में घुटने लगे, शायद वो हसरत मचल रही थी,  जो उनको हिन्दी सिनेमा का बर्मन दादा बनाने के लिए बेचैन थी. आखिरकार वे सबकुछ छोड़कर वापस कलकत्ता आ गए. हालांकि उनका मन वहां भी नहीं लगा. बर्मन दादा को बंबई में शोहरत की बुलन्दियों को छूना था. अंततः बर्मन दादा अपने आपको बंबई आने से रोक नहीं पाए.

बर्मन दादा ने ने करीब 3 दशक की अपनी सिनेमाई यात्रा में लगभग 90 फिल्मों के लिए कालजयी संगीत दिया. बर्मन दादा की सिनेमाई यात्रा पर रिसर्च करने पर पता चलता है कि, उन्होंने सबसे ज्यादा काम देव साहब एवं साहिर लुधियानवी साहब के साथ किया. बाद में साहिर साहब से उसूलों की आंच टकराई दोनों दिग्गजों का आत्मसम्मान मचल गया. अंततः दोनों की जोड़ी टूट गई.सन 1949 में फिल्म आजादी की राह पर के लिए उन्होंने पहली बार गीत लिखे, लेकिन प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, से मिली. नवजवान फिल्म में संगीतकार बर्मन दादा थे.

ठंडी हवाएँ, लहरा के आयें रुत है जवां तुमको यहाँ, कैसे बुलाएँ ठंडी हवाएँ…इस गीत को लिखने के बाद साहिर लुधियानवी नाम का जिक्र लिटरेचर की दुनिया से हटकर थोड़ा सिनेमा, संगीत पर होने लगा . इस गीत पर संगीतकार बर्मन दादा ने शास्त्रीय संगीत पद्धति थाट बिलावल के राग बिहाग एवं रबींद्र संगीत पर संगीत रचा, जो हिन्दी सिनेमा एवं संगीत में मील का पत्थर साबित हुआ. इस फिल्म के गानों की आपार सफलता के बाद बर्मन दादा एवं साहिर दोनों सफलता की गारंटी, के साथ ही दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए. बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी कभी जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिए गीत लिखे. विद्वान लोग कहते हैं “कि बहुत ज़हीन लोग कम समझ आते हैं क्यों कि उनके अन्दर एक कोने में सिरहन पैदा करने वाली ख़ामोशी होती है, वहीँ एक कोने में असंतुलित कर देने वाला शोर होता है. बर्मन दादा एवं साहिर लुधियानवी दोनों अपनी – अपनी प्रतिभा में पूरा का पूरा अध्याय थे. एक दौर में एस डी बर्मन दादा, साहिर साहब, देव साहब एवं गुरुदत्त साहब आदि के ग्रुप के तौर पर काम करते थे, कहते हैं कि बर्मन दादा एवं साहिर की प्रतिभा का फायदा सबसे ज्यादा देव साहब एवं गुरुदत्त साहब को अपने फ़िल्मों में यादगार संगीत के कारण हुआ. देव साहब एवं गुरुदत्त साहब ने बर्मन दादा की प्रतिभा को खूब सराहा, एवं खूब फायदा कमाया .

इसी दौरान गुरुदत्त साहब 1957 में फिल्म ‘प्यासा’ बना रहे थे. इसी दौरान  बर्मन दादा और साहिर लुधियानवी के बीच कुछ अनबन हो गई. इस झगड़े की वजह, गाने का क्रेडिट किसको कितना मिले, उसके गीतकार को या संगीतकार में किसको ज्यादा मिलना चाहिए.

 बर्मन दादा के जीवन पर किताब लिखने वाली लेखिका सत्या सरन ने लिखा कि, ‘मामला इस हद तक बढ़ा कि साहिर, बर्मन दादा से एक रुपया अधिक फीस चाहते थे, साहिर का तर्क ये था कि बर्मन दादा के संगीत की लोकप्रियता में उनका बराबर का हाथ है. ज्यादा ज़हीन लोग ज्यादा समझौते के लिए नहीं जाने जाते वो कब क्या करेंगे, कोई नहीं जानता, तो बर्मन दादा ने कहा कि एक रू. ज्यादा मांगने का अर्थ है, आप ज्यादा काम कर रहे हैं, मैं कुछ भी नहीं…आखिकार  बर्मन दादा ने साहिर की शर्त को मानने से इंकार कर दिया, और फिर दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया. बाद में बर्मन दादा की जोड़ी मजरुह सुल्तानपुरी के साथ ज़मी. बर्मन दादा अपनी अंतिम साँस तक मजरुह सुल्तानपुरी के साथ काम करते रहे. बाद में बर्मन दादा की जोड़ी ‘मजरुह सुल्तानपुरी’ के साथ जमी. दोनों की जोड़ी अंतिम साँस तक चलती रही. वहीँ बर्मन दादा देव साहब के लिए लकी चार्म बने रहे. देव साहब ने बर्मन दादा को उनकी अंतिम साँस तक छोड़ा ही नहीं. बर्मन दादा के चले जाने के बाद भी देव साहब हमेशा बर्मन दादा की महरूमियत की कसक रही. देव साहब आजीवन बर्मन दादा के लिए आभार की मुद्रा में रहे. देव साहब बर्मन दादा को हिन्दी सिनेमा का सिरमौर संगीतकार मानते थे. दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक सिद्ध हुए.

बर्मन दादा ने 1951 में फिल्म नौजवान के गीत ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आए…’ के जरिए लोगों के दिलों में जगह बनाई. 1951 में ही गुरुदत्त साहब की पहली निर्देशित फिल्म ‘बाजी’ के गीत ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे…’ में बर्मन दादा और साहिर साहब की जोड़ी ने संगीतप्रेमियों का दिल जीत लिया.  देव साहब की फिल्मों के लिए  बर्मन दादा ने सदाबहार कालजयी संगीत दिया. उनकी फिल्मों को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बर्मन दादा के नाम के जिक्र के साथ सबसे पहले देव साहब का नाम याद आता है.

बर्मन दादा के पसंदीदा निर्माता-निर्देशकों में देव साहब के अलावा विमल राय, गुरुदत्त साहब, ऋषिकेश मुखर्जी, आदि प्रमुख रहे हैं.

बर्मन दादा की फिल्म जगत के किसी कलाकार या गायक के साथ शायद ही अनबन हुई हो, लेकिन 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘पेइंग गेस्ट’ के गाने ‘चांद फिर निकला…’ के बाद लता मंगेशकर और उन्होंने एकसाथ काम करना बंद कर दिया. दोनों ने लगभग 5 वर्ष तक एक-दूसरे के साथ काम नहीं किया. बाद में बर्मन दादा के पुत्र आरडी बर्मन (पंचम दा) ने अपने पिता को मनाया, बाद में लता मंगेशकर ने बर्मन दा के संगीत को अपनी आवाज़ दी. महान बनने से पहले किसी भी शख्स को उसके भीतर की इंसानियत, उसूल, स्थायित्व, धैर्य, सब्र, ही उसे महानता की ओर ले जाती है. किसी भी शख्सियत में ठहराव एक आभूषण होता है.

बर्मन दादा हिन्दी सिनेमा के लिए ईश्वर का नायाब तोहफ़ा थे. सचिन देव बर्मन ने अपनी जिंदगी में जो शोहरत, इज्जत, मुहब्बत कमाई, उसका कोई सानी नहीं है. सचिन देव उर्फ़ बर्मन दादा का अंदाज़ अद्वितीय था. संगीतकार तो बहुत हुए, लेकिन रबींद्र संगीत, थाट बिलावल के राग विहाग को अपनी सिग्नेचर स्टाइल बनाया, बाद में सभी संगीतकार लगभग इसी के अंतर्गत संगीत रचते थे. सिर्फ आपका मौलिक सृजन, चालीस इंच की सिल्वर स्क्रीन आपको सुपरस्टार नहीं बनाती, आपके अन्दर की अथाह प्रतिभा लगन आपको बर्मन दादा बनाती है. मगर सचिन देव बर्मन यूं ही महान नहीं बने. उनके अंदर का प्रेम, उनके भीतर की करुणा एक संवेदनशील मनुष्य के रुप में दिखाई पड़ते हैं. उनकी शख्सियत का अपना चार्म था. अपनी ज़िन्दगी में बेहद लोकप्रिय, संवेदनशील आदमी होने का पूरा कंप्लीट पैकेज थे.

 देवानंद साहब अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म “गाइड” बना रहे थे. यह साठ  के दशक के लगभग की बात होगी. देव साहब ने गीतकार कविराज शैलेंद्र को गीत लेखन एवं संगीत निर्देशन का कार्यभार बर्मन दादा को दे दिया. देव साहब की फ़िल्में संगीत प्रधानता पर टिकी होती थीं. उनकी फ़िल्मों में संगीत सर्वोत्तम होता था. उनके अभिनय में फिल्म का संगीत सहायक होता था. संगीत से ही देव साहब की फिल्मों का मूड सेट होता था. बर्मन दादा पूरे समर्पण से गाइड का संगीत बना रहे थे. लेकिन तभी एक दुर्घटना घट गई. बर्मन दादा अचानक अस्वस्थ हो गए. इलाज किया गया मगर बहुत समय तक बर्मन दादा के स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ. निरंतर गिरावट हो रही थी. जैसे ही बर्मन दादा अस्वस्थ हुए, उधर देव साहब की फिल्म का काम रुक गया. बर्मन दादा इस बात से परिचित थे, कि देव साहब अपनी फिल्मों को लेकर जुनून की हद तक दीवानगी रखते थे. फिल्म में देरी का कैसा प्रभाव देव साहब पर पड़ रहा होगा, यह सोचकर बर्मन दादा को थोड़ा दुःख हुआ. जब बर्मन दादा को अपनी तबीयत में सुधार नहीं दिखाई दिया, तो उन्होंने देव साहब को बुलाकर कहा कि आप किसी और संगीतकार के साथ फ़िल्म शुरू कर दीजिए. देव साहब ने कहा आप निराश मत हों, पहले आप जल्दी से ठीक हो जाओ. काम जल्दी ही करना हैं, लेकिन आपके बिना नहीं. देव साहब बहुत ही सकारात्मक इंसान थे. किसी भी फ़िल्मकार के लिए यह उचित होता, कि उसका समय और पैसा बर्बाद हो रहा था, अतः वह बर्मन दादा को मान लेता, मगर देव साहब ने ऐसा करने से मना कर दिया. देव साहब संगीतकार बर्मन दादा के संगीत के जादू को जानते थे,इसलिए उन्होंने बर्मन दादा से कहा कि वह उनके ठीक होने का इंतज़ार करेंगे. जब तक आप पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं होंगे, गाइड का संगीत निर्माण नहीं होगा. इस बात से बर्मन दादा बेहद भावुक हो गए. खैर समय बीता और कुछ वक्त बाद  बर्मन दादा स्वस्थ हो गये. तब उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ वापसी की और फ़िल्म का पहला गीत “गाता रहे मेरा दिल” रिकॉर्ड किया. संगीत निर्माण की प्रक्रिया में बर्मन दादा के साथ उनके पुत्र और महान संगीतकार आर.डी बर्मन ने दिया. इसी तरह फिल्म का गीत “आज फिर जीने की तमन्ना है” और “तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं” रिकॉर्ड किया गया. गीत बनते हुए ही बर्मन दादा और देव साहब को लग रहा था, कि फिल्म का संगीत जरूर बेशुमार ख्याति प्राप्त करेगा. दोनो का आंकलन सही साबित हुआ. फिल्म गाइड रिलीज हुई और इसका संगीत खूब पसंद किया गया. फ़िल्म के दो गीत “वहां कौन है तेरा मुसाफ़िर” और “अल्लाह मेघ दे पानी दे”  बर्मन दादा और तरह देव साहब ने साबित किया कि रिश्ते और व्यवसाय दोनों अलग बातेँ हैं. प्रेम आपसी सम्बन्ध ज्यादा मायने रखता है. बर्मन दादा एवं देव साहब एक – दूसरे के दिल के बहुत करीब थे. बर्मन दादा एवं देव साहब परस्पर एक सिक्के के दो पहलू बने रहे. देव साहब ने अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ में बर्मन दादा का खूब जिक्र किया है.

बर्मन दादा खूब टैलेंटेड तो थे, वहीँ उनका मूड कब बदल जाए कोई नहीं जानता था, छोटी सी बातों को घुमा- फ़िराक़र बोलते थे. उनके सहकर्मियों को लगता, कि बर्मन दादा जैसे ग्रेट संगीतकार हल्की बातों पर उलझे रहते थे,और खूब मजे लेते थे.  बर्मन दादा का सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत ग़ज़ब का था. एक बार राम कृष्ण मंदिर में गए.  “मंदिर में घुसने से पहले दोनों जूते एक साथ रखने के बजाए उन्होंने एक जूता एक जगह रखा और दूसरा उससे थोड़ी दूर पर जूतों के एक ढेर में अलग – अलग कर दिया. उनके साथी ने कहा आप ये क्या कर रहे हैं? बर्मन दादा ने जवाब दिया. आजकल चोरी की वारदातें बढ़ गई हैं. उनके साथी ने पूछा कि अगर चोर ने जूतों के ढेर में से दूसरा जूता ढूंढ लिया? बर्मन दादा ने जवाब दिया अगर चोर इतनी मेहनत कर सकता है, तब तो वो जूता पाने का हकदार है.” कोई सोच सकता है, कि बर्मन दादा जैसे बौध्दिक व्यक्ति ऐसे भी बातेँ करते रहे होंगे, लेकिन एक बात तय है, कि ज्यादा प्रतिभा शाली व्यक्ति कम ही समज आता है.

बर्मन दादा बहुत कंजूस थे. उनको जानने वाले बताते हैं, राजघराने में पैदा हुए बर्मन दादा कंजूस थे, या मजेदार थे, समझना मुश्किल है. राजघराने में पैदा हुए बर्मन दादा ने अपने हिस्से का संघर्ष भी झेला. बर्मन दादा के पिता को उनके राजघराने से संपति से बेदखल कर दिया गया था. बर्मन दादा बताते थे कि “मैं कंजूस नहीं हूं, मैंने अपने जीवन में खूब मेहनत किया है, तब इस मुकाम तक पहुंचा हूं. मुझे एक – एक पैसे की जरूरत एवं मह्त्व पता है. ”  गुरुदत्त साहब हमेशा चर्चा के लिए उनके घर जाते रहते थे. गुरुदत्त साहब जानबूझ कर उनके खाने के समय जाते थे. बर्मन दादा पूछते “गुरुदत्त तुम खाना खाकर तो आए होंगे” ? गुरुदत्त साहब कोई जवाब देते इससे पहले वो खाना खाने चले जाते, गुरुदत्त साहब मुस्कान फेंकते हुए कहते “दादा चाय पीना है”, तब बर्मन दादा कहते “गुरुदत्त तुम नौजवान बौद्धिक आदमी हो चाय क्यों पीते हो मत पिया करो”.

एक बार गुरुदत्त साहब को राहुल देव बर्मन (आरडी बर्मन) जो बर्मन दादा के पुत्र थे, उन्होंने गुरुदत्त साहब को इशारा किया, कि पिता जी से कहिए चाय पिलाएं, तो गुरुदत्त साहब ने इसरार किया कि चाय पीना हैं, तो उन्होंने कहा कि “गुरुदत्त तुम जवान हो चाय मत पिया करो”,कहकर टाल दिया, गुरुदत्त साहब ने एक बार और कहा, तो बर्मन दादा कहते हैं, यार दूध खत्म हो गया है. थोड़ी सी देर बाद आर डी बर्मन ट्रे में चाय ले आए, बर्मन दादा कहते हैं, दूध तो खत्म हो चुका था, इतना बोलते ही सब हँस पड़े. बर्मन दादा पान खाने के बहुत ही शौकीन थे, लेकिन वो किसी को अपने पान दान से पान नहीं देते थे. हमेशा गुरुदत्त साहब छेड़ते रहते दादा पान खिलाईए. बर्मन दादा कहते गुरुदत्त तुम इतने बौध्दिक इंसान पान मत खाया करो, कहकर बर्मन दादा खुद पान खाने लग जाते. वो कितना सुन्दर दौर था, उसको आदर्श दौर कहा जाता है.

आज के दौर में भले ही लोग संगीतकारों को जानते हों, भले ही संगीतकारों की भूमिका से परिचित न हों, लेकिन एक आदर्श दौर था, जब फिल्म स्टारों जैसे, गीतकारों, संगीतकारों को लोग खूब जानते थे, खूब लोकप्रियता मिलती थी. क्रिकेट के भगवान सचिन तेंडुलकर का नाम भी सचिन इसलिए रखा गया, क्योंकि तेंडुलकर के पिता रमेश तेंडुलकर सचिव देव बर्मन दादा के संगीत के जबरदस्त फैन थे. न सिर्फ रमेश तेंडुलकर बल्कि फिल्म संगीत को पसंद करने वाले असंख्य लोग महान संगीतकार बर्मन दा के मुरीद थे, हैं और हमेशा रहेंगे,आज के दौर में कितने लोग बर्मन दादा से परिचित हैं, बड़ा सवाल है.

बर्मन दादा टेनिस के प्रेमी थे, फ़ुटबॉल के लिए तो वो जुनून की हद तक दीवाने थे. ईस्ट बंगाल उनका पसंदीदा फ़ुटबॉल क्लब था. एक बार उनकी पसंदीदा टीम मैच हार गई, तब उन्होंने गुरुदत्त साहब से कहा कि मैं आज बहुत उदास हूं, मुझसे दुःखी गाना बनवाना हो तो बनवा लो, ऐसा मूड बार – बार नहीं होता. ऐसा कहते हुए वो इमोशनल संगीत तैयार कर देते थे.  बर्मन दादा जैसे प्रतिभाशाली शख्सियतें कम ही समझ आती हैं आप उनको शब्दों में नहीं परिभाषित कर सकते. एक व्यक्ति अपने क्षेत्र में समूचा आसमान समाहित कर लेता है, जीवन की बहुमुखी यात्रा उसको सचिन देव बर्मन (एसडी बर्मन) हिन्दी सिनेमा का लोकप्रिय संगीतकार बर्मन दादा बनाती है.

किशोर दा ने एक इंटरव्यू में कहा था “रफी साहब, , लता जी , मुकेश जी, मन्ना दा, मुझे,आदि के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बर्मन दादा जब भी गायकों से काम लेते थे, तो केवल संगीतकार की भूमिका में नहीं बल्कि एक पिता की तरह व्यवहार करते थे. किशोर दा कहते हैं कि बांकी तो सभी गायक अपनी गायकी, एवं आवाज़ के लिए खूब सजग रहते थे, लेकिन मैं बहुत बेपरवाह रहता था. बर्मन दादा मुझे बहुत डांटते, किशोर तुम इतने गैरजिम्मेदार क्यों हो? यह नहीं खाओगे वो नहीं खाओगे, मेरे घर कई बार फोन करते चुपके से पता करते की आज किशोर ने कुछ ऊटपटांग तो नहीं खा लिया?? सुनकर खूब डांटते, लेकिन बर्मन दादा की डांट हमेशा पिता की तरह महसूस होती. यह केवल मेरे साथ ही नहीं हर गायक के साथ उनके रूप यही होता था, लेकिन मुझे उनका स्नेह ज्यादा मिला. मैं गायक तो बन गया था, लेकिन बेपरवाह क्यों कि मेरी आवाज़ का ख्याल तो बर्मन दादा रखते थे, बर्मन ने मेरे कंठ को बहुत सम्भाला, किशोर कुमार बर्मन दादा के लिए हमेशा तत्पर एवं आभार मुद्रा में रहते थे.

फिल्म ‘मिली’ के संगीत ‘बड़ी सूनी-सूनी है…’ की रिकॉर्डिंग के दौरान एसडी बर्मन बीमार हो गए, किशोर दा ने एक बार इंटरव्यू में कहा था कि “रेकॉर्डिंग होने ही वाली थी,” मैंने देखा बर्मन दादा असहज हो रहे थे, मैं गया मैंने पूछा दादा क्या हुआ? दादा कहते हैं किशोर तुम गाओ, मुझे कुछ नहीं हुआ, किशोर ने खूब मनाया की दादा आज नहीं फ़िर रिकार्ड कर लेंगे, आज आप बीमार हैं, आप पहले डॉ. के पास चलिए. किशोर दा ने आरडी बर्मन (पंचम दा)को फोन किया कि बर्मन दादा को घर ले जाइए. बर्मन दादा घर चले गए आरडी बर्मन ने खूब मनाया, बर्मन दादा हस्पताल जाने के लिए नहीं मान रहे थे. पंचम दा ने फोन लगाया कहा किशोर बाबा को समझाओ, किशोर दा ने को बर्मन दादा हस्पताल जाने के लिए मनाया बाद में हस्पताल जाने के के लिए तैयार हुए”. बर्मन दादा अपने संगीत की लगन के लिए कितने जुनूनी थे, उन्होंने जाते हुए किशोर दा को कहा किशोर ऐसे गाना रिकॉर्ड करना की गीत अमर हो जाए, और यह सोचना कि मैं तुम्हारे सामने ही बैठा हूं. आख़िरकार गाना रिकॉर्ड हो गया. अगले ही दिन किशोर दा बर्मन दादा को रिकॉर्डिंग सुनाने के लिए हस्पताल पहुंचे, गाना सुनने के बाद बर्मन दादा कोमा में चले गए, शायद वो उस गीत सुनने का ही इंतज़ार कर रहे थे. महीनों दुआओं का दौर चलता रहा, दुआएं काम भी आईं. बाद में उनके कान में किसी ने कहा कि दादा आपकी पसन्दीदा टीम ईस्ट बंगाल मैच जीत गई है, सुनते ही बर्मन दादा की आँखे खुली, और थोड़ी देर बाद हिन्दी सिनेमा को अपने बेमिसाल संगीत का पूरा सिलेबस लिखकर आज की पीढ़ी के लिए पूरी विरासत छोड़कर 31 अक्टूबर 1975 को इस दुनिया से रुख़सत कर गए…..