Thursday, June 5, 2025
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खेल के लिए ईमानदार नीति की जरुरत

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अरविंद जयतिलक

टोक्यो ओलंपिक में अब तक के श्रेष्ठ प्रदर्शन से भारत गौरान्वित और उत्साहित है। भारत के खाते में एक गोल्ड, दो सिल्वर और चार ब्रान्ज समेत कुल सात पदक आए हैं। इसका श्रेय नीरज चोपड़ा, मीराबाई चानू, रवि दहिया, पीवी सिंधु, लवनीना बोरगेहेन, बजरंग पुनिया और भारतीय पुरुष हाकी टीम के खिलाड़ियों को जाता है। तथ्य यह भी कि 41 वर्ष बाद भारत ने ओलंपिक हाकी में कांस्य पदक अपने नाम किया है और 121 साल के ओलंपिक इतिहास में पहली बार भारत ने एथलेटिक्स में भी पदक जीता है। यह कारनामा भाला फेंक के एथलीट नीरज चोपड़ा ने कर दिखाया है। टोक्यो ओलंपिक की उपलब्धियों से देश रोमांचित है और पूरे देश में इन खिलाड़ियों का इस्तकबाल हो रहा है। इस सम्मान से खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि 2024 के पेरिस ओलंपिक में यह सम्मान भारत एक नया कीर्तिमान गढ़ने का मौका देगा। किसी भी राष्ट्र की प्रतिभा खेलों में उसकी उत्कृष्टता और हासिल होने वाले पदाकों से जुड़ा होता है। अच्छा प्रदर्शन केवल पदक जीतने तक ही सीमित नहीं होता बल्कि राष्ट्र के स्वास्थ्य, मानसिक अवस्था एवं लक्ष्य के प्रति सतर्कता व जागरुकता को भी रेखांकित करता है। दो राय नहीं कि टोक्यो ओलंपिक में मिली उपलब्ध्यिों ने देश को गौरान्वित किया है लेकिन सच यह भी है कि सवा अरब की आबादी वाले देश को इससे बड़ी उपलब्धि की दरकार है। ऐसा तभी संभव होगा जब देश में उत्कृष्ट खिलाड़ियों, अकादमियों और प्रशिक्षकों को बढ़ावा मिलेगा। एक आंकड़े के मुताबिक देश में सिर्फ पंद्रह प्रतिशत लोग ही खेलों में अभिरुचि रखते हैं। यह आंकड़ा निराश करने वाला है। विचार करें तो इसके लिए भारतीय समाज का नजरिया और सरकार की नीतियां दोनों जिम्मेदार हैं। समाज में यह धारणा है कि खेलकूद के जरिए नौकरी या रोजी-रोजगार हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए पढ़ाई पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए। नतीजा सामने है। बच्चों में खेल के प्रति लगन और उत्सुकता में कमी है। चिंता की बात यह भी कि सरकारें भी खेल के विकास का इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने के बजाए राष्ट्रीय खेल अकादमियों को अध्यक्ष व सदस्य कौन होगा उस पर ज्यादा फोकस करती है। भला ऐसे में खेल का विकास कैसे होगा। खेलों के विकास के लिए आवश्यक है कि सरकार की खेलनीति स्पष्ट व ईमानदार हो तथा साथ ही स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों व खेल अकादमियों में बुनियादी ढांचे के विकास की गति तेज हो। बेहतर होगा कि सरकारें स्कूल स्तर से ही खेल को बढ़ावा देने का मिशन चलाए। स्कूलों में बच्चों की प्रतिभा एवं विभिन्न खेलों में उनकी अभिरुचि को ध्यान में रखकर उन्हें विभिन्न किस्म के खेलों में समायोजित कर उनके उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था करे। ऐसा करने से उनकी प्रतिभा का सार्थक इस्तेमाल होगा और खेल को बढ़ावा भी मिलेगा। लेकिन देखें तो स्कूलों में खेल के प्रति घोर उदासीनता है। इसका मूल कारण खेल संबंधी संसाधनों की भारी कमी और खेल से जुड़े योग्य शिक्षकों-प्रशिक्षकों का अभाव है। अगर स्कूलों से इतर माध्यमिक विद्यालयों, काॅलेजों और विश्वविद्यालयों की बात करें तो यहां भी स्थिति कमोवेश वैसी ही है। यहां संसाधन तो हैं लेकिन इच्छाशक्ति और प्रशिक्षण के अभाव में खेलों के प्रति रुझान नहीं बढ़ रहा है। उचित होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें खेलों में सुधार के लिए पटियाला में स्थापित खेल संस्थान की तरह देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के संस्थान खोलें। ऐसा इसलिए कि उचित प्रशिक्षण के जरिए ही देश में खेलों का स्तर ऊंचा उठाया जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह भी कि जब तक खेलों को रोजगार से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक खेल प्रतिभागियों में स्पर्धा का वातावरण निर्मित नहीं होगा। अगर खेलों में नौजवानों को अपना भविष्य सुनिश्चित नजर नहीं आएगा तो स्वाभािवक है कि वे वे खेलों में बढ़-चढ़कर हिस्सा नहीं लेंगे। खेलों में भविष्य सुरक्षित न होने के कारण ही नौजवानों में उदासीनता है और खेल के क्षेत्र में भारत फिसड्डी देशों में शामिल है। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि खेलों में खराब स्थिति के लिए एकमात्र सरकार की उदासीनता ही जिम्मेदार नहीं है। बल्कि खेल से विमुखता के लिए काफी हद तक समाज का नजरिया भी जिम्मेदार है। आज भी देश में एक कहावत खूब प्रचलित है कि ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’। अकसर देखा जाता है कि माता-पिता के माथे पर तब चिंता की लकीरें उभर आती हैं जब उनका बच्चा खेल में कुछ ज्यादा ही अभिरुचि दिखाने लगता है। तब उन्हें डर सताने लगता है कि कहीं उनका उनका बच्चा खेल में अपनी उर्जा खर्च कर अपना भविष्य न चैपट कर ले। स्कूलों में भी गुरुजनों द्वारा अकसर बच्चों से कहते सुना जाता है कि दिन भर खेलोगे तो पढ़ोगे कब। यह ठीक नहीं है। बच्चों को खेलने के लिए उत्साहित करना चाहिए। अगर सरकार की नीतियों में खेल से रोजगार का जुड़ाव हो तो फिर माता-पिता के मन में भी बच्चे के भविष्य को लेकर किसी तरह की आशंका-चिंता नहीं रहेगी। खेल के प्रति उत्साहजनक वातावरण निर्मित न होने के कारण ही आज देश अंतर्राष्ट्रीय खेल पदकों की फेहरिस्त में नीचले पायदान पर है। हां, यह सही है कि अब पहले के मुकाबले ओलंपिक और एशियाड खेलों में भारत के खिलाड़ी उत्तम प्रदर्शन कर रहे हैं। वे पदक जीतकर देश का मान बढ़ा रहे हैं। लेकिन सच यह भी है कि आज की तारीख में देश में खेल का मतलब क्रिकेट तक सीमित रह गया है। बाकी खेल दोयम दर्जे की स्थिति में हैं। फुटबाल, कबड्डी, तीरंदाजी, जिमनास्टिक जैसे खेलों के खिलाड़ियों को उस तरह का सम्मान और पैसा नहीं मिल रहा है जितना कि क्रिकेटरों को मिलता है। यहां तक कि विज्ञापनों में भी क्रिकेटर ही छाए रहते हैं। यह ठीक नहीं है। भारत को अपने पड़ोसी देश चीन से सबक लेना चाहिए कि 1949 में आजाद होने के बाद 1952 के ओलंपिक में एक भी पदक नहीं जीता। लेकिन 32 वर्ष बाद 1984 के ओलंपिक में 15 स्वर्ण पदक झटक लिए। आज चीन हर ओलंपिक खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर दुनिया को अचंभित कर रहा है। उसके ओलंपिक पदकधारकों में महिलाओं की तादाद भी अच्छी रहती है। अब भारत में भी खेलों को लेकर उत्साह बढ़ा है और महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। उचित होगा कि भारत भी चीन की तरह खेल को अपनी शीर्ष प्राथमिकता में शामिल कर अपनी नीतियों को उसी अनुरुप ढ़ाले। इससे अपेक्षित परिणाम मिलने तय हैं। इसके लिए भारत को गांवों से लेकर नगरों तक के खेल की बुनियादी ढांचे में आमुलचूल परिवर्तन करना होगा। उसे खेल प्रशिक्षण की आधुनिक अकादमियों की स्थापना के साथ-साथ समुचित प्रशिक्षण, खेल धनराशि में वृद्धि तथा प्रतियोगिताओं का आयोजन करना होगा। उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों एवं प्रशिक्षकों को सम्मानित करना होगा। यही नहीं मेजर ध्यानचंद जैसे अन्य महान खिलाड़ी को भारत रत्न की उपाधि से विभुषित करना होगा। अच्छी बात है कि भारत सरकार ने उनके नाम से खेल पुरस्कार को जोड़ने का एलान कर दिया है। आज भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मन पद्मभूषण से सम्मानित मेजर ध्यानचंद जी का जन्मदिन है। खेल में उनके महत्वपूर्ण योगदान के सम्मान में उनके जन्मदिन को भारत में खेल दिवस के रुप में मनाया जाता है। मेजर ध्यानचंद विश्व हाॅकी में शुमार महानतम खिलाड़ियों में से एक अद्भुत खिलाड़ी रहे हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा व लगन से देश का मस्तक गौरान्वित किया। दो राय नहीं कि अब खेलों के प्रति बदलते नजरिए से भारत खेल के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति करना शुरु कर दिया है। लेकिन जब तक खेल के विकास के लिए ईमानदार और स्पष्ट नीति का अनुपालन व क्रियान्वयन नहीं होगा और खेल को रोजगार से जोड़ा नहीं जाएगा तब तक भारत को खेल की शीर्षतम उपलब्ध्यिों की फेहरिस्त में सम्मानजनक स्थान नहीं मिलेगा।

पैरालंपिक : भारतीय खिलाड़ियों का परचम, अवनी को गोल्ड, देवेन्द्र, योगेश को सिलवर मेडल

टोक्यो पैरालंपिक खेलों में भारतीय खिलाड़ियों ने सफलता के झंडे गाढ़ दिये हैं। भाविनी के बाद अवनि लखेड़ा ने सोमवार को निशानेबाजी प्रतियोगिता में महिलाओं के 10 मीटर एयर राइफल के क्लास एसएच1 के फाइनल में जीत दर्ज करते हुए गोल्ड पर निशाना लगाया। इसके साथ ही देवेंद्र झाझरिया ने पुरुषों के भाला फेंक के एफ46 वर्ग में सिल्वर मेडल जीता। वहीं, योगेश कथूनिया ने पुरुषों की चक्का फेंक स्पर्धा के एफ56 वर्ग में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए सिल्वर मेडल जीता।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विजेताओं को बधाई दी है। अवनि पैरालंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं. यह भारत का इन खेलों की निशानेबाजी प्रतियोगिता में भी पहला पदक है. टोक्यो पैरालंपिक में भी यह देश का पहला स्वर्ण पदक है. पैरालंपिक खेलों में पदक जीतने वाली वह तीसरी भारतीय महिला हैं। अवनि के इतिहास रचने के बाद भारत के देवेंद्र झाझरिया ने पुरुषों के भाला फेंक के एफ46 वर्ग में सिल्वर मेडल जीता. वहीं, भारत के योगेश कथूनिया ने पुरुषों की चक्का फेंक स्पर्धा के एफ56 वर्ग में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए सिल्वर मेडल जीता. इसके अलावा सुंदर सिंह गुर्जर ने पैरालंपिक खेलों में पुरुषों के भाला फेंक के एफ46 वर्ग में कांस्य पदक जीता।

पैरालंपिक में भाविना ने भारत को पहला मेडल दिलाया

टोक्यो पैरालंपिक में भारत  को पहला मेडल मिल गया है। टेबल टेनिस  प्लेयर भाविना पटेल मेडल जीता है। वो फाइनल में 3-0 के अंतर से हारकर गोल्ड जीतने से चूक गईं।

वीमेंस सिंगल्स क्लास 4  के फाइनल में भाविना पटेल को चीन की जोउ यिंग  ने 7-11, 5-11, 6-11 से मात दी।  टोक्यो पैरालंपिक गेम्स में ये भारत का पहला मेडल है। भाविना ने पहले गेम में झाउ यिंग को अच्छी टक्कर दी लेकिन चीन की 2 बार की गोल्ड मेडल विनर ने एक बार लय हासिल करने के बाद भारतीय खिलाड़ी को कोई मौका नहीं दिया और सीधे गेम में आसान जीत दर्ज की।

“असफलता उतनी ही महत्वपूर्ण क्यों है जितनी सफलता।”

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मनीष नागर

“प्रैक्टिशनर लाइफ कोच और डिजिटल ग्रोथ मार्केटर”

क्या हममें से किसी ने असफलता का सपना देखा है? या असफलता हमें सफलता प्राप्त करने के तरीके में कैसे आकार देती है? अधिकांश लोग “नहीं” के साथ उत्तर देंगे। समस्या यह है कि कैसे अधिकांश लोग सफल नहीं होने के बाद अयोग्य महसूस करते हैं।

1.     असफलता आपको बढ़ने की दिशा देती है।

हम में से अधिकांश लोग अपने द्वारा लिए गए सभी निर्णयों का अनुमान लगाते रहते हैं। असफलता आपको पुनर्निर्देशन का मार्ग देती है। आप हर जगह पर स्पष्टता की भावना प्राप्त करते हैं कि आप गलत हो गए हैं और अब अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए एक बेहतर रास्ता कैसे अपनाया जाए।

2.     असफलता आपको महत्व देती है।

मूल्य सबसे बड़ा सबक है जो असफलता हमें हमारे जीवन में सिखा सकती है। जहां सफलता आसानी से हमारे सिर पर चढ़ जाती है, वहीं असफलता हमें जमीन से जोड़े रखती है। असफलता हमें सफल होने के लिए सभी सही चीजों को महत्व देना सिखाती है।

3.     असफलता विकसित होने और बढ़ने का एक अवसर है।

असफलता के साथ आने वाली नकारात्मक चीजों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अपनी ऊर्जा को सभी सकारात्मक चीजों पर केंद्रित करें। यह आपको लचीला होना और सभी बाधाओं का सामना करना सिखाता है। असफलताओं के बाद सफलता प्राप्त करना आपको दिखाता है कि आप मानसिक रूप से कितने मजबूत और सक्षम हैं।

4.     असफलता एक अनुभव है अंत नहीं।

यह सच है कि जीवन में हम जो कुछ भी करते हैं वह एक अनुभव है और ऐसा ही असफलता भी है। सफलता ही सब कुछ नहीं है। जीवन की समझ होना ही मायने रखता है। यह हमें बेहतर इंसान बनाता है और हमें हमारे जीवन का महत्व सिखाता है।

5.असफलता आपको मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत करती है।

असफलता आपको तोड़ सकती है लेकिन यह आपको एक मजबूत इंसान भी बनाती है। यदि आप उन सभी महान व्यक्तित्वों की कहानियों को पढ़ते हैं जिनकी हम तलाश करते हैं, तो वे सभी असफलता के कारण वहां पहुंच गए हैं। स्टीव जॉब्स, वॉल्ट डिज़नी, एलोन मस्क, जैक माँ और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे नाम आज भी सबसे सफल लोगों में से हैं और यहां तक कि उन्हें बड़ी असफलताओं से भी जूझना पड़ा।

सुपर एक्टर-सेवक सोनू सूद चले राजनीति की ओर

कांग्रेस की ओर से बीएमसी के मेयर पद चुनाव लड़ने की सुगबुगाहट

अब  AAP के ‘मैंटोर मिशन’ का ब्रांड एंबेसडर बने अभिनेता

ऐसा लग रहा रहा हैं एक्टिंग और समाज सेवा में भूमिका निभाने के बाद सोनू सूद अब राजनीति की राह पर बढ़ रहे हैं। कुछ दिनों पहले यह चर्चा शुरू हुई कि कांग्रेस बीएमसी के चुनाव में सोनू सूद को मेयर पद के लिए चुनाव मैदान में उतार सकती है। उसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और अभिनेता सोनू सूद की आज शुक्रवार (27 अगस्त) को मुलाकात हुई है। आम आदमी पार्टी (आप) के ”देश के मैंटोर” कार्यक्रम के सोनू सूद ब्रांड एंबेसडर बने हैं। सीएम केजरीवाल और सोनू सूद की ये मुलाकात मुख्यमंत्री के दिल्ली में आवास पर हुई है। इस दौरान उनके साथ उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी मौजूद थे। इस बैठक के बाद सोनू सूद और सीएम केजरीवाल ने एक ज्वाइंट प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की। जिसमें जानकारी दी गई है कि सोनू सूद ”देश के मैंटोर” अभियान के लिए ब्रांड एंबेसडर बनने को तैयार हो गए हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिल्ली सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा, ”देश के मैंटोर कार्यक्रम के लिए सोनू सूद हमारे ब्रांड एंबेसडर बनने के लिए तैयार हो गए हैं। उन्होंने ने कहा है कि वो भी कुछ बच्चों के मैंटोर बनेंगे।” वहीं सोनू सूद ने कहा है, ”आज दिल्ली सरकार ने ”देश के मैंटोर” का प्लेटफॉर्म नहीं बनाया, देश के लिए कुछ करने का आपके लिए एक प्लेटफॉर्म तैयार किया है। अगर आप एक भी बच्चे को दिशा दे पाते हैं, इस अभियान के तहत तो तो इससे बड़ा देश को कोई योगदान नहीं होगा।

बीएमसी चुनावों में स्टार वार की तैयारी

महाराष्ट्र में बीएमसी के चुनावों को मिनी विधानसभा के चुनाव कहा जाता है। ये चुनाव अगले साल होने जा रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों ने अभी से चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए स्थानीय नेताओं के साथ ही फिल्म कलाकारों के साथ संपर्क भी किया जा रहा है।

सत्तारूढ़ कांग्रेस, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने मेयर पद के लिए दावेदारी शुरू कर दी है। मुंबई कांग्रेस ने अभी से 2022 के बीएमसी (BMC) चुनावों की तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए पार्टी ने 25 पेज का एक ड्राफ्ट तैयार किया है जिसमें चुनावों के लिए पूरी रणनीति बताई गई है। इसमें कहा गया है कि पार्टी को अपना मेयर कैंडिडेट पहले ही घोषित कर देना चाहिए। रिपोर्ट में इसके लिए ऐक्टर रितेश देशमुख, मिलिंद सोमन और सोनू सूद के नाम की चर्चा की गई है। रितेश पहले ही राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं और उनके पिता विलासराव देशमुख कांग्रेस लीडर और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि बीएमसी के चुनाव ग्लैमरस हो सकते हैं। अगर कांग्रेस फिल्म कलाकारों को मैदान में उतारती है तो भाजपा समेत अन्य राजनीतिक दल भी नए सिरे से रणनीति बनाने को बाध्य होंगे। ऐसे में बॉलीवुड के बाहर भी स्टार वार हो सकता है।

अफगानिस्तान के पूर्व मंत्री जर्मनी में बेच रहे हैं पिज्जा

वक्त क्या- क्या नहीं दिखा देता है इसकी मिसाल है अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद पैदा हुए हालात। तालिबान के कब्जे के बाद आम आदमी ही नहीं देश के मंत्रियों को भी देश छोडना पड़ा। अब देश छोडने वालों की स्थिति सामने आ रही है। अफगानिस्तान के पूर्व संचार मंत्री  इन दिनों जर्मनी में पिज्जा डिलीवरी  का काम कर रहे हैं। सैयद अहमद शाह सआदत अफगानिस्तान में संचार मंत्री के साथ ही कई अन्य महत्वपूर्ण पद संभाल चुके हैं।  ऐसे में उनका यूं पिज्जा डिलीवरी करना सभी के लिए चौंकाने वाला है। हालांकि, सैयद को खुद को डिलीवरी बॉय कहलाने में कोई शर्म नहीं।

एक जर्मन पत्रकार ने अफगानिस्तान के पूर्व संचार मंत्री की फोटो अपने ट्विटर अकाउंट पर शेयर की है। पत्रकार ने पूर्व मंत्री से बातचीत भी की, जिसमें उन्होंने अफगानिस्तान के हाल और अपने बारे में बताया। सैयद अहमद शाह सआदत पिछले साल के आखिरी में अपने पद से इस्तीफा देकर जर्मनी चले आए थे. मुल्क छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ समय अच्छे से बिताया, लेकिन जब पैसा खत्म होने लगा तो उन्हें जीवनयापन के लिए पिज्जा डिलीवरी बॉय का काम करना पड़ा। सैयद ने अपने देश छोड़ने की वजह बताते हुए कहा कि राष्ट्रपति अशरफ गनी की टीम और उनकी मांगों से सहमत नहीं होने की वजह से उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया और सबकुछ छोड़कर जर्मनी चला आया। पूर्व अफगान मंत्री ने बताया कि उनके पास ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से संचार और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग में दो मास्टर डिग्री हैं. इसके अलावा उन्होंने 13 देशों की 20 से अधिक कंपनियों के साथ कम्युनिकेशन की फील्ड में काम किया है।

तालिबान के कब्जे से भारत लाई गई पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब, केंद्रीय मंत्री सिर पर रखकर लाए

तालिबान के कब्जे के बाद अफगानिस्तान में अन्य धर्मों और उनके प्रतीकों के लिए खौफनाक हालात हो गए गए हैं। यहाँ तक कि अफगान सिखों ने अमेरिका समेत दुनियाँ के बड़े देशों से सुरक्षा कि गुहार लगाई है। हालांकि केवल भारत ही एकलौता देश है जिसने सिखों और पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब की सम्मानजनक वापसी सुनिश्चित की है।दुशांबे से दिल्ली आए लोगों में 44 अफगान सिख शामिल हैं, जो काबुल से पवित्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब  की तीन प्रतियां भी अपने साथ लेकर पहुंचे हैं। इनके साथ 25 भारतीय नागरिक भी दिल्ली पहुंचे हैं, जो काबुल में फंसे हुए थे. सभी यात्रियों को एयर इंडिया के स्पेशल विमान के जरिए दुशांबे से दिल्ली लाया गया है। केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी सिर पर ग्रंथ को रखकर एयरपोर्ट से बाहर लाए।

दिल्ली पहुंचने पर 2 केंद्रीय मंत्री उनका स्वागत किया. इसके अलावा भारत सरकार के अधिकारी, भारतीय जनता पार्टी और भारतीय विश्व मंच के सदस्य भी उनकी सहायता के लिए एयरपोर्ट पहुंचे थे. इसके साथ ही अफगान सिख नेता भी मौजूद रहे. इसके बाद तीनों श्री गुरु ग्रंथ साहिब को जुलूस के साथ दिल्ली के न्यू महावीर नगर स्थित गुरु अर्जन देव जी गुरुद्वारा ले जाया जाएगा। इस बीच सिख समुदाय का एक वीडियो सामने आया है, जिसमें वे फ्लाइट के अंदर बैठने के बाद ‘जो बोले सो निहाल’ और ‘वाहे गुरुजी का खालसा-वाहे गुरुजी की फतह’ का नारा लगाते नजर आ रहे हैं. इस वीडियो को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने शेयर किया है।

सिओल से अटलांटा: डोपिंग रहस्य

डॉ सरनजीत सिंह

फिटनेस एंड स्पोर्ट्स मेडिसिन स्पेशलिस्ट

हम जानते हैं कि 1988 सिओल ओलिंपिक की में’स ‘100 मीटर’ रेस में मुकाबला आठ बार ओलिंपिक गोल्ड मेडल जीत चुके अमेरिका के स्प्रिंटर कार्ल लुइस, 1984 लॉस एंजेल्स में दो ब्रॉन्ज़ मेडल जीतने वाले, जमैका में पैदा हुए कैनेडियन स्प्रिंटर बेन जॉनसन, 1986 यूरोपियन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप्स में गोल्ड मेडल जीतने वाले, जमैका में पैदा हुए ब्रिटिश स्प्रिंटर लिंफ़ोर्ड क्रिस्टी और 1984 ओलंपिक्स की 4×100 मीटर रिले रेस के गोल्ड मेडल विजेता कैल्विन स्मिथ के बीच हुआ था. इस रेस में बेन जॉनसन के डोपिंग में पकड़े जाने के बाद उसका गोल्ड मेडल अमेरिका के स्प्रिंटर कार्ल लुइस, सिल्वर मेडल ब्रिटिश स्प्रिंटर लिंफ़ोर्ड क्रिस्टी को और ब्रॉन्ज़ मेडल अमेरिका के कैल्विन स्मिथ को दे दिया गया था. अब यहाँ जानने की बात ये है कि कैल्विन स्मिथ को छोड़कर दोनों स्प्रिंटर कार्ल लुइस और लिंफ़ोर्ड क्रिस्टी के डोप टेस्ट में फेल होने के बावज़ूद उन्हें गोल्ड और सिल्वर मेडल्स दिए गए. कार्ल लुइस के यूरीन में तीन प्रतिबंधित दवाएं, ‘एफ़िडिरिन’, ‘स्यूडोएफ़िडिरिन’ और ‘फेनीलप्रोपेनोलामिन’ पायी गयीं थीं. लिंफ़ोर्ड क्रिस्टी ने 1992 बार्सिलोना ओलिंपिक में  में’स ‘100 मीटर’ रेस में गोल्ड जीता और वो फिर से डोपिंग में फेल हुआ. रही बात कैल्विन स्मिथ की तो उसने रेस के काफ़ी पहले ड्रग्स लेना छोड़ दिया था जिसकी वज़ह से वो डोप टेस्ट में बच गया. कार्ल लुइस के बारे में एक बात ये भी जननी ज़रूरी है कि इसी ओलिंपिक (1988) से मात्र दो महीने पहले, ट्रायल्स के दौरान वो तीन बार डोप टेस्ट में फेल हुआ था और उस समय के अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार उसे ओलिंपिक में भाग ही नहीं लेने देना चाहिए था. ऐसे खिलाड़ी को अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक कमेटी ने ‘स्पोर्ट्समैन ऑफ़ द सेंचुरी’ की उपाधि से नवाज़ा और अमेरिकन स्पोर्ट्स मैगज़ीन ने उसे ‘ओलिंपियन ऑफ़ द सेंचुरी की उपाधि दी. आज लेविस, हॉउस्टन यूनिवर्सिटी में बतौर कोच काम कर रहा है और भावी खिलाड़ियों को दौड़ने की तकनीक के साथ-साथ डोपिंग के गुर भी सिखा रहा होगा. यहाँ एक और जानकारी ये भी है कि 1988 की उसी ‘100 मीटर’ रेस में चौथे स्थान पर आने वाले अमेरिकन स्प्रिंटर का नाम डेनिस मिशेल था और बाद में वो भी डोप टेस्ट में फेल हुआ.

कार्ल लुइस

1988 सिओल ओलिंपिक के बाद हुए 1992 बार्सिलोना ओलिंपिक की ‘100 मीटर’ रेस में गोल्ड मैडल ब्रिटिश स्प्रिंटर लिंफ़ोर्ड क्रिस्टी ने जीता लेकिन डोप टेस्ट में फेल होने के बाद उससे मेडल वापस ले लिया गया. 1992 बार्सिलोना ओलिंपिक के इस प्रकरण के बाद अब मैं बात करूँगा 1996 अटलांटा ओलिंपिक के बारे में. ये वो दौर था जब खिलाड़ी स्पोर्ट्स वैज्ञानिकों की मदद से डोपिंग के नए-नए नुस्खे आज़मा रहे थे. उस समय तक कई ऐसी शक्तिवर्धक दवाएं इजाद हो चुंकी थी जो तत्कालीन प्रतिबंधित दवाओं की सूची में न तो शामिल थीं और न उनको पकड़ने का कोई तरीका ही था. कई खिलाड़ी इन खामियों का फायदा उठाते रहे और जीवन भर ‘क्लीन’ बने रहे. इनमें से एक नाम जमैका में पैदा हुए कैनेडियन स्प्रिंटर डोनोवन बेली का है जिसने 1996 अटलांटा ओलिंपिक की मेंस ‘100 मीटर’ रेस में 9.84 सेकण्ड्स का नया रिकॉर्ड बनाते हुए गोल्ड मैडल जीता और डोप टेस्ट में बचता रहा. इसी तरह कुछ ऐसे बड़े खिलाड़ी भी थे जो शक्तिवर्धक दवाओं को सही तरह से संचालित न कर सके और डोपिंग में फेल होने की वजह से या तो उन्हें अपना मेडल खोना पड़ा या उन्हें प्रतियोगिता से बाहर कर दिया गया. इनमें से कुछ नाम स्पेनिश वॉकर डेनियल प्लाजा, जमैका में पैदा हुई अमेरिकन फीमेल स्प्रिंटर सैंड्रा पैट्रिक और इटली की हाई जम्पर एंटोनेला बेविलास्क्वा हैं.

लिंफ़ोर्ड क्रिस्टी यहाँ ये भी जानना बहुत ज़रूरी है कि ऐसा नहीं है कि प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग सिर्फ 100 मीटर रेस या एथलेटिक्स और वेट लिफ्टिंग तक ही सीमित है, इन दवाओं का प्रयोग दुनिया के सभी खेलों में किया जाता रहा है. यहाँ तक कि इनका प्रयोग साइकिलिंग, बास्केटबॉल, बेसबॉल, वॉलीबाल, बैडमिंटन, फेंसिंग, फुटबॉल, क्रिकेट, हॉकी, टेनिस, स्विमिंग, तीरंदाज़ी, शूटिंग, बिलियर्ड्स, शतरंज और यहाँ तक कि घुड़सवारी में भी होता है जहाँ घुड़सवार के साथ-साथ घोड़ों को भी शक्तिवर्धक प्रतिबंधित दवाएं दी जाती हैं और इन दवाओं में सिर्फ स्टेरॉएड्स’ का ही प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि इसमें कई अलग-अलग श्रेणी की दवाओं का प्रयोग होता है जिनमें ‘स्टिमुलैंट्स’, ‘नारकोटिक्स’, ‘पेप्टाइड होर्मोनेस’ ‘डाईयुरेटिक्स’, ‘ग्लुकोकोर्टिकॉइड्स’, ‘एलकोहॉल’, ‘कोकीन’, ‘लेसिक्स’, और इनके न जाने कितने वैरिएंट्स का प्रयोग में लाये जाते हैं. इसके अलावा कई ऐसे तरीके हैं जिनसे बहुत आसानी से डोप टेस्ट को धोखा दिया जा सकता है और ये पिछले कई सालों से निरंतर चलता चला आ रहा है. इन प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग सिर्फ विकसित देशों के खिलाड़ी ही करते, इन्हे दुनिया के सभी छोटे बड़े देशों के खिलाड़ी इस्तेमाल करते हैं. ऐसे खिलाड़ियों की गिनती हज़ारों में है जिसे इस तरह के लेखों में प्रकाशित करना संभव नहीं है. अगर पिछले सिर्फ पाँच सालों की बात की जाए तो मैंने अपने सभी सोशल एकाउंट्स, ‘फेसबुक’, ‘लिंकडिन’, ‘ट्वीटेर’ और ‘इंस्टाग्रम’ पर अभी तक करीब 2000 डोपिंग केसेस की जानकारी दी है. ऐसा तब है जब दुनिया की कोई भी एंटी डोपिंग एजेंसी सभी खिलाड़ियों पर किये गए डोपिंग टेस्ट्स का विस्तृत विवरण नहीं देती. इन लेखों का मुख्य उद्देश्य आप तक न केवल ‘डोपिंग’ के रहस्यों की जानकारी देना है बल्कि इसके पीछे एक ये भी सन्देश है कि डोपिंग में होने वाली तमाम अनियमितताओं की वज़ह से हमारे कई प्रतिभावान खिलाड़ी ओलिंपिक में मेडल्स की रेस में बहुत पीछे छूट गए. ये वो खिलाडी थे जो देश के लिए मेडल्स जीत कर आने वाले युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत बन सकते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं होना चाहिए. मैं मानता हूँ कि हमारे देश के भी कई खिलाड़ी डोपिंग में लिप्त हैं लेकिन तमाम सुविधाओं के अभावों और स्पोर्ट्स साइंस में पीछे होने के कारण उन्हें मजबूरन इन खतरनाक दवाओं का सेवन करना पड़ता है. वे इन दवाओं की सही जानकारी न होने के कारण डोप टेस्ट में फेल हो जाते हैं और उनके करियर पर हमेशा के लिए ग्रहण लग जाता है. मैं इन दवाओं के प्रयोग के सख्त खिलाफ हूँ लेकिन अब हमें ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे दूसरे देशों के खिलाड़ियों पर भी नकेल कसी जा सके. अपने आने वाले लेखों में मैं कुछ ऐसे टेस्ट्स का भी ज़िक्र करूँगा जिनके प्रयोग में लाने पर सभी दोषी खिलाड़ियों को पकड़ना बहुत आसान हो जाएगा और तब, जब हमारा मुकाबला मशीनों से नहीं बल्कि इंसानों से होगा, ओलिंपिक में हमारे मेडल्स की गिनती कहीं अधिक हो जाएगी।

हिंदुत्ववादी राजनीति के शिखर पुरुष का जाना

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अरविंद जयतिलक

‘ईश्वर से आरजू है जब जान से जाऊं, जिस शान से आया हूं उस शान से जाऊं’। राममंदिर आंदोलन के महानायक और राजनीति के देदीप्यमान नक्षत्र कल्याण सिंह अब नहीं रहे। वे जब तक रहे शेर की तरह दहाड़ते रहे और जब गए तो मौत को ललकारते हुए। अब वक्त के कैनवास पर उनके स्थापित राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्य, जनसरोकारी पूंजी और एक अनन्य रामभक्त होने का गौरव ही शेष भर रह गया है जो उन्हें इतिहास में अमर रखेगा। सैकड़ों साल बाद जब भी भारतीय राजनीति का कालजयी मूल्यांकन होगा कल्याण सिंह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुर्नस्थापना के इंकलाबी बीज को रोपने-सहेजने और उसे वट-वृक्ष बनाने वाले मनीषियों की कतार में खड़े नजर आएंगे। उनकी राजनीतिक अपराजेयता, राष्ट्रवाद के प्रति उत्कट जिजीविषा तथा हाशिए के लोगों को मुख्यधारा में खींच लाने की अनहद बेचैनी उन्हें एक नए भारत के महान सृजनकर्ता की श्रेणी में खड़ा करेगा। सदन से लेकर सड़क तक उनकी गुंजती-दहाड़ती आवाजें दबे-कुचले, वंचितों, शोषितों एवं पीड़ितों का आवाज बनकर सदियों तक प्रेरित करती रहेंगी। कल्याण सिंह के पास न तो विजेता की सैन्य शक्ति थी और न ही कोई राजनीतिक विरासत। उनके पास एकमात्र विचारों का बल था जिसके बूते उन्होंने राजनीति की ऊंचाई को जीया और सत्ता के मीनार को छुआ। बचपन में वे संघ से जुड़े और 1967 में पहली बार विधायक बने। फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कल्याण सिंह की मूल्यवादी राजनीति, सनातक सांस्कृति के प्रति अगाध प्रेम और राष्ट्र के प्रति उच्चतर समर्पण भाव को समझने के लिए तत्कालीन समय-समाज की राजनीतिक बुनावट को समझना आवश्यक है। जिस समय वे भारतीय राजनीति का हिस्सा बने वह दौर मूल्यवादी राजनीति के तिरस्कार और राष्ट्रवादी सोच के खिलाफ प्रबल षड़यंत्र का काल था। उन्होंने इस नकारात्मक राजनीतिक प्रवृत्ति के खिलाफ तन कर खड़ा होने की हिम्मत दिखायी और उसे बदल डालने के एवज में विरोध के हर ताप को सच्चाई से सहा। अपने सांस्कृतिक व राष्ट्रवादी विचारों के दम पर सनातन चेतना को नष्ट करने वाले राजनीतिक षड़यंत्रकारियों-दुराग्रहियों को उनके ही मांद में पराजित किया। सांस्कृतिक मूल्यों की ध्वजा को लहराकर भारत के लोगों को जोरदार आवाज दी। इंकलाबी बदलाव के लिए अपने राजनीतिक विचारों को सनातन सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़कर रामराज्य की संकल्पना को पूरा करने का आह्नान किया। ऐसे राजनीतिक शक्तियों से मुठभेड़ किया जो छद्म निरपेक्षता का चोला ओढ़कर सांस्कृतिक मूल्यों, आस्था के प्रतीकों को ध्वस्त करने वालों के हिमायती थे। उन्होंने राजनीति की उर्वर भूमि में हिंदुत्व के सनातन बीजों का प्रकीर्णन कर भारतीय जनमानस को जागृत किया। अपने प्रयासों से साबित किया कि एक बड़े वृक्ष की संभावना छोटे से बीज में ही निहित होती है। जिस साहस से उन्होंने सत्ता को ठोकर पर रख अयोध्या में विवादित ढांचे गिरा रहे रामभक्तों पर गोलियां चलवाने से इंकार किया वह उनके राष्ट्रवादी मूल्यों और हिंदुत्व के अंतश्चेतना के प्रति उच्च्चतर समर्पण भाव को ही ध्वनित करता है। कल्याण सिंह के इस साहस भरे कदम के खिलाफ जहां राजनीतिक प्रतिद्वंदियों-दूराग्रहियों ने सुडो सेक्युलरिज्म का तलवार भांजना शुरु किया वहीं मूल्यवादी व राष्ट्रवादी राजनीति के पक्षधरों ने उनका स्वागत किया। शायद ही किसी राजनेता में राजनीति के गुणसूत्र को बदलने का माद्दा हो। लेकिन कल्याण सिंह ने यह कर दिखाया। अपने राजनीति सुझबुझ और स्पष्ट सोच के बरक्स न केवल छद्म धर्मनिरपेक्षता की विभाजनकारी राजनीति के कील-पेंचों को उखाड़ फेंका बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। उनका यह अदम्य साहस ही उन्हें भारतीय राजनीति का महावीर बना दिया। उन्होंने राजनीति में सत्ता के निर्माण या ध्वंस और ठहराव या बिखराव की तनिक भी फिक्र नहीं की। वे हर अवरोधों को तोड़ते और विरोध के घड़े को फोड़ते नजर आए। राजनीति में सर्वजन की चेतना को मुखरित करना और उसे अंजाम तक पहुंचाना आसान नहीं होता। लेकिन कल्याण सिंह ने यह कर दिखाया। अस्सी का दशक मंडल राजनीति का दौर था। आरक्षण को लेकर समाज में जातिगत विभाजन, हिंसा और द्वेष का वातावरण निर्मित था। तब कल्याण सिंह ने लालकृष्ण आडवानी और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कंधा जोड़ राममंदिर आंदोलन को धार दिया। राममंदिर आंदोलन के जरिए टुकड़े और वर्गीय खांचे में विभक्त भारतीय जनमानस विशेष रुप से पिछड़ों को गोलबंद किया। मंडल का घाव कमंडल के संजीवनी से सूखने लगा। मंदिर मुक्ति को लेकर 30 अक्टुबर 1990 को कारसेवा के एलान के बाद कल्याण सिंह की छवि हिंदू हृदय सम्राट और हिंदुत्व के शिखर पुरुष की बन गयी। तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों को रोकने के लिए गोलियां चलवायी जिसमें कई कारसेवक मारे गए। सरजू का निर्मल जल और हिंदू जनमानस दोनों ही उबल पड़े। कल्याण सिंह ने इस घटना को जनआंदोलन में बदलकर विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की और पूर्ण बहुमत की सरकार गठित की। हालांकि यह सरकार सिर्फ 18 महीने ही चली और मंदिर के लिए कुर्बान हो गयी। सरकार जाने से कल्याण सिंह तनिक भी विचलित नहीं हुए। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में ढांचा ध्वंस के बाद राज्यपाल को त्यागपत्र देते हुए कहा कि मुझे ढांचा ढह जाने पर कोई अफसोस नहीं है। जहां तक सरकार का सवाल है तो एक क्या सैकड़ों सरकारें राममंदिर पर न्यौछावर है। भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण को लेकर उनकी अनन्य भक्ति उस समय भी उजागर हुई जब उनपर न्यायालय की अवमानना का मामला चला और सजा मिली। तब भी उन्होंने कहा कि रामलला के मंदिर के खातिर एक जन्म नहीं जन्मों तक सजा भुगतने को तैयार हैं। कल्याण सिंह दूसरी बार 1997 में मुख्यमंत्री बने। 21 मार्च 1997 को भारतीय जनता पार्टी का बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता हुआ और तय हुआ कि दोनों दल छह-छह माह की सरकार बनाएंगे। मायावती के नेतृत्व में सरकार गठित हुई लेकिन छह महीने बाद मायावती के मन में खोट आ गया। उन्होंने तय शर्तों के मुताबिक पद छोड़ने और भाजपा का समर्थन करने से इंकार कर दिया। काफी मान-मनौव्वल के बाद वे मानी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। कल्याण सिंह मायावती के फैसले को पलटने लगे जिससे वे नाराज हो गयी और समर्थन वापस ले लिया। लेकिन कल्याण सिंह सरकार बचाने में सफल रहे। राजनीति को लेकर कल्याण सिंह की स्पष्ट राय थी। वे अकसर कहा करते थे कि वे दिल की राजनीति करते हैं दिमाग की नहीं। देखा भी गया कि वे कई बार भाजपा से अलग हुए और जरुरत पड़ी तो घरवापसी भी की। अटल बिहारी वाजपेयी से विवाद के बाद वे भाजपा से अलग होकर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया। 2004 में पुनः भाजपा में शामिल हो गए। फिर 2009 में अलग हुए। तब उन्होंने एक नया राजनीतिक प्रयोग करते हुए समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाया। लेकिन विपरित विचारधारा की कमजोर बुनियाद पर टिकी यह दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चली। उसके बाद कल्याण सिंह हमेशा-हमेशा के लिए भाजपा के होकर रह गए। पर एक बात स्पष्ट रुप से रेखांकित हुई कि कल्याण सिंह ने जब-जब भाजपा से दूरी बनायी तब-तब भाजपा को नुकसान हुआ। कल्याण सिंह ने बार-बार साबित किया कि वे भाजपा के प्राणवायु ही नहीं बल्कि हिंदुत्व के पुजारी भी हैं। गौर करें तो बतौर प्रशासक कल्याण सिंह जितना कठोर थे उतना ही संवेदनशील भी। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में सत्ता के विकेंद्रीकरण के बीज रोपे और शासन को जवाबदेह बनाया। जोतबही के रुप में किसानों का न सिर्फ उनकी जमीन का स्थायी दस्तावेज उपलब्ध कराया बल्कि वरासत की समय सीमा तय करने जैसे ऐतिहासिक निर्णय भी लिए। उनकी पहली सरकार ने नकल विरोधी कानून को लागू कर शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया। इसे संज्ञेय अपराध घोषित किए जाने से परीक्षा के दौरान नकल करने वाले बहुतेरे छात्र-छात्राएं जेल गए। भाजपा सरकार पर इस कानून में बदलाव को लेकर दबाव बढ़ा लेकिन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह टस से मस नहीं हुए। सच कहें तो कल्याण सिंह भारतीय राजनीति के विराट संसार में राजनीतिक-सांस्कृतिक साधना के ऋषि भर नहीं हैं बल्कि अदभुत बौद्धिक क्षमता से आबद्ध व उर्जा से लबरेज नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत भी हैं।