Saturday, December 13, 2025
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धरतीपुत्र नेताजी के साथ एक युग का अंत

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नेताजी कहें, धरतीपुत्र कहें, राजनीति के अखाड़े के दिग्गज खिलाडी कहें… अनेक नामों से अपने प्रशंसकों के बीच लोकप्रिय समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव का लंबी बीमारी के बाद गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में निधन हो गया। नेताजी के पुत्र और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि मेरे पिता जी और आपके सबके प्रिय नेताजी नहीं रहे. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शोक जताया है. उत्तर प्रदेश सरकार ने नेताजी ने निधन पर तीन दिन के राजकीय शोक का एलान किया है! सीएम ने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा.

तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में रक्षामंत्री रहे मुलायम सिंह को देश के दिग्गज राजनेताओं में से एक कहा जाता था। मुलायम सिंह को सांस लेने में ज्यादा दिक्कत होने पर मेदांता अस्पताल के आईसीयू में शिफ्ट किया गया था।लेकिन हालत बिगड़ने के बाद उनका जीवन नहीं बचाया जा सका और मुलायम ने सुबह 8.16 पर आखिरी सांस ली।   

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव खुद मेदांता अस्पताल पहुंचे थे। अखिलेश यादव और मुलायम सिंह के बहू अपर्णा यादव को लखनऊ में मुलायम की तबीयत बिगड़ने की सूचना मिली थी, जिसके बाद वह 2 अक्टूबर को ही स्पेशल विमान से दिल्ली के रास्ते गुरुग्राम पहुंचे। अखिलेश से पहले शिवपाल यादव और रामगोपाल यादव दिल्ली में ही मौजूद थे। अखिलेश के साथ उनकी पत्नी डिंपल और बच्चे भी गुरुग्राम में ही हैं.  

22 नवंबर 1939 को इटावा जिले के सैफई में जन्मे मुलायम ने करीब 6 दशक तक सक्रिय राजनीति में हिस्सा लिया। वो कई बार यूपी विधानसभा और विधान परिषद के सदस्य रहे। इसके अलावा उन्होंने संसद के सदस्य के रूप में ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और पंद्रहवीं लोकसभा में हिस्सा भी लिया। मुलायम सिंह यादव 1967, 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993 और 1996 में कुल 8 बार विधानसभा के सदस्य बने। इसके अलावा वह 1982 से 1985 तक यूपी विधानसभा के सदस्य भी रहे।

मुलायम सिंह यादव ने तीन बार यूपी के सीएम के रूप में काम किया। वो पहली बार 5 दिसम्बर 1989 से 24 जनवरी 1991, दूसरी बार 5 दिसम्बर 1993 से 3 जून 1996 तक और तीसरी बार 29 अगस्त 2003 से 11 मई 2007 तक उत्तर प्रदेश के सीएम रहे। इन कार्यकालों के अलावा उन्होंने 1996 में एचडी देवगौड़ा की संयुक्त गठबंधन वाली सरकार में रक्षामंत्री के रूप में भी काम किया। अपने सर्वस्पर्शी रिश्तों के कारण मुलायम सिंह को नेताजी की उपाधि भी दी जाती थी। मुलायम को उन नेताओं में जाना जाता था, जो यूपी और देश की राजनीति की नब्ज समझते थे और सभी दलों के लिए सम्मानित भी थे।

श्रद्धांजली : डायलॉग डिलिवरी और स्टाइल का राजकुमार

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दिलीप कुमार

लेखक

वैसे तो हर आदमी अपने आप में यूनिक और दूसरे आदमी से अलग होता है. हिन्दी सिनेमा में राजकुमार तो सचमुच एकदम जुदा किस्म की शख़्सियत थे. राजकुमार का ताब बाकियों से मेल नहीं खाता था. एक ठसक हमेशा उनके लहजे में रही है. राजकुमार के लिए कहा जाता था, कि जितना दूर रहो उतना ही अच्छा है, राजकुमार लोगों को कम ही समझ आये हैं. मुझे उनको याद करते ही पाकिजा का उनका प्रसिद्ध डॉयलॉग याद आता है, जब वो ट्रेन में मीना कुमारी को सोती हुई देख कर उनके पांव देखकर कहते हैं मैंने तुम्हारे पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगे… यह डायलॉग हिन्दी सिनेमा के लिए नायाब मानक बना हुआ है. पाकीजा की सफ़लता मीना कुमारी की अदायगी, कमाल अमरोही के ख्वाबों का ताजमहल, फिर भी पाकीजा का नाम आते ही याद आते हैं राजकुमार….

राजकुमार का अभिनय तो औसत किस्म का था, कोई बहुत गहराई नहीं थी. वो न देव साहब की तरह रोमांस कर सकते थे. न ही दिलीप साहब की तरह सीरियस अभिनय कर सकते थे, न ही राजकपूर की तरह सादगी, मासूमियत दिखा सकते थे. वो कुछ दिखा सकते थे, तो अपना संवाद करने का अंदाज़ डायलॉग अदायगी जो उनको अपनी शैली का अभिनेता बनाती थी. राजकुमार के पास अपनी प्रतिभा केवल शब्दों से खेलना रहा. लेकिन अपनी अलग अंदाज की डॉयलॉग डिलिवरी और खालिस ऊर्दू के लहजे का ऊम्दा इस्तेमाल उन्हें अलग पहचान दिलाने में कामयाब रहा. खासकर ऐसे दौर में जब देव साहब दिलीप साहब राजकपूर साहब जैसे चोटी के बेहतरीन अभिनेता काम कर रहे थे. वहीं राजेंद्र कुमार जैसे जुबली कुमार की लगभग हर फिल्म हिट हो रही थी. राजकुमार की पहचान अहंकारी, अक्खड़ और दूसरे लोगों को हमेशा नीचा दिखाने वाले इन्सान के रूप में भी रही है. वे लोगों से कम मिलने वाले और कुछ हद तक कछुए की तरह अपनी ही खोल में घुसकर रहने वाले व्यक्ति थे.

 नब्बे के शुरूआती दशक में राजकुमार गले के दर्द से जूझ रहे थे यहां तक की बोलना भी दुश्वार हो रहा था. उस अदाकार की आवाज ही उसका साथ छोड़ रही थी जिसकी आवाज ही उसकी पहचान थी. राजकुमार  डॉक्टर के पास पहुंचे तो डॉक्टर ने हिचकिचाहट दिखाई. उसकी हिचकिचाहट भांपते हुए राज साहब ने कारण पूछा! जवाब आया कि आपको गले का कैंसर है, इस पर राजकुमार ने वही अपने बेफिक्री भरे अंदाज में जवाब दिया  डॉक्टर! राजकुमार को छोटी मोटी बीमारियां हो भी नहीं सकती.

 राजकुमार ने नज़म नक़वी की फिल्म रंगीली (1952) से फिल्मों में काम करना शुरू किया. फिल्म नहीं चली फ्लॉप हो गई. फिल्म फ्लॉप हो जाने के बाद भी राजकुमार ने अपनी फीस बढ़ा दी. उनसे पूछा गया कि आपकी पहली फिल्म फ्लॉप हो गई फिर भी आप अपनी फीस बढ़ा रहे हैं, राजकुमार जवाब देते हुए कहते हैं, फिल्म फ्लॉप हो गई तो क्या हुआ. मैं तो हिट हो गया हूं. मुझे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि फिल्म चलती है या नहीं अभिनय करना मेरा काम है, उससे मुझे संतुष्टि है. अतः मेरी फीस मुझे बढ़ानी चाहिए, इसलिए बढ़ा दिया. बाद में उन्हें पहचान मिली सोहराब मोदी की फिल्म नौशेरवां-ए-आदिल से, इसी साल आई फिल्म मदर इंडिया में नरगिस के पति के छोटे से किरदार में भी राजकुमार खूब सराहे गए. सोहराब मोदी की सरपरस्ती में फिल्मी जीवन शुरू करने के कारण यह लाजिमी था कि राजकुमार संवादों पर विशेष ध्यान देते,हुआ भी यही, बुलंद आवाज और त्रुटिहीन उर्दू के मालिक राजकुमार की पहचान एक संवाद प्रिय अभिनेता के रूप में बनी. सोहराब मोदी संवाद अदायगी में बेजोड़ अभिनेता थे, राजकुमार के लिए सोहराब मोदी आदर्श रूप में थे, खास बात यह रही कि शुरुआती दौर में ही सोहराब मोदी की सोहबत हुई. राजकुमार भी संवाद अदायगी डायलॉग बोलने में अद्वितीय उस्ताद कहे जाते हैं.

साठ के दशक में राजकुमार की जोड़ी मीना कुमारी के साथ खूब सराही गई और दोनों ने ‘अर्द्धांगिनी’, ‘दिल अपना और प्रीत पराई’, ‘दिल एक मंदिर’, ‘काजल’ जैसी फिल्मों में साथ काम किया. यहां तक कि लंबे अरसे से लंबित फिल्म ‘पाकीजा’ में काम करने को कोई नायक तैयार न हुआ तब भी राजकुमार ने ही हामी भरी. मीना कुमारी के अलावा वे किसी नायिका को अदाकारा मानते भी नहीं थे. राजकुमार मीना कुमारी के लिए कहते थे, कि मीना कुमारी के अभिनय को देखने के बाद कोई किसी को कैसे देख सकता है. मीना कुमारी को एक बार देख लो तो किसी को देखने का मन ही नहीं होता. मूलतः अभिनय में दिलीप कुमार मीना कुमारी के अलावा राजकुमार को कोई पसंद ही नहीं आया. राजकुमार बहुत ही टफ इंसान थे.

राजकुमार को ध्यान में रख कर बनी फिल्में बनाई गईं ख़ासकर उनकी दूसरी पारी में फिल्में ही नहीं बल्कि संवाद भी राजकुमार के कद को ध्यान में रख कर लिखे जाने लगे थे. ‘बुलंदी’ ‘सौदागर’, ‘तिरंगा’, ‘मरते दम तक’ जैसी फिल्में इस बात का उदाहरण हैं कि फिल्में उनके लिए ही लिखी जाती रहीं. सौदागर में अपने समय के दो दिग्गज अभिनेताओं दिलीप कुमार व राजकुमार का मुकाबला देखने लायक था. इसी तरह तिरंगा में राजकुमार का सामना उन्हीं की तरह के मिज़ाज और तेवर वाले अभिनेता नाना पाटेकर से हुआ था, लेकिन अपने अभिनय की सीमाओं के बावजूद वो अपनी संवाद अदायगी और स्टाइल की वजह से सभी अभिनेताओं को कड़ी टक्कर देते थे.

राजकुमार अनुशासनप्रिय इंसान ही नहीं अपनी ही शर्तों पर काम करने के हठी भी थे.उनके  कई किस्से  फिल्मी गलियारों में मौजूद हैं,ऐसा ही एक किस्सा फिल्म पाकीजा का है.फिल्म के एक दृश्य में राजकुमार, मीना कुमारी से निकाह करने के लिए तांगे पर लिए जाते है. तभी एक बदमाश उनका पीछा करता हुआ आता है. स्क्रिप्ट के अनुसार राजकुमार उतर कर बदमाश के घोड़े की लगाम पकड़ लेते हैं. उसे नीचे उतरने को कहते हैं. वो उनके हाथ पर दो-तीन कोड़े मारता है. फिर राजकुमार लगाम छोड़ देते हैं.इस दृश्य पर राजकुमार अड़ गए. उनका कहना था कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक मामूली गली का गुंडा राजकुमार को मारे!  होना तो यह चाहिए कि मैं उसे घोड़े से खींच कर गिरा दूं, और दमभर मारूं! निर्देशक कमाल अमरोही ने समझाया कि आप राजकुमार नहीं आपका किरदार सलीम खान का है. राजकुमार नहीं माने.  निर्देशक ने भी शोहदे को तब तक कोड़े चलाने का आदेश किया जब तक राजकुमार लगाम न छोड़ दें. अंततः बात राजकुमार की समझ में आ गई. कमाल अमरोही कहते थे, कि राजकुमार को निर्देशन करना टेढ़ी खीर है, हालांकि उनको अगर समझ आ गया कि क्या करना है, तो फिर वो जो कर सकते हैं, कोई भी नहीं कर सकता. चूंकि कमाल अमरोही मीना कुमारी के पति थे, वहीँ राजकुमार शूटिंग के वक़्त उनको कुछ कहते तो कमाल अमरोही उनको कहते, कि मंजू सिर्फ मेरी है. राजकुमार हंसते हुए कहते कमाल साहब मज़ाक सीरियस मत ही लीजिए, राजकुमार का सेंस ऑफ ह्यूमर भी था. सोचकर यकीन नहीं होता, यही कमाल अमरोही को भी लगता था, राजकुमार सचमुच समझ नहीं आए.

कालजयी फिल्म ‘नीलकमल’ का मूर्तिकार प्रेमी चित्रसेन उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रोल है. राजकुमार प्रेम को भी अपनी ज़िद जुनून से पर्दे पर उकेरते थे. फिल्म की कहानी में महान मूर्तिकार चित्रसेन(राजकुमार) के काम से खुश होकर राज्य का महाराजा उससे मनोवांछित वर मांगने के लिए कहता है, वर में चित्रसेन राजकुमारी नील कमल (वहीदा रहमान) को मांग लेता है. उसके दुसाहस से क्रोधित होकर राजा उसे जिंदा दीवार में चिनवा देता है. अगले जन्म में जब नील कमल सीता के रूप मे जन्म लेती है तो चित्रसेन की आत्मा उसे रातों में पुकारती है, और वह अपना होश खोकर आवाज़ की ओर चल देती है. चित्रसेन किरदार को निभाना राजकुमार के लिए सहज था, वहीँ किसी दूसरे के लिए इतना सहज नहीं था, व्यक्तिगत रूप से वहीदा रहमान सबसे ज्यादा फिल्म ‘नीलकमल’ पसंद आईं, वहीँ राजकुमार के जीवन का सबसे प्रमुख रोल यही रहा, बगावती चित्रकार जिसका ताब किसी बादशाह से कम नहीं है, राजकुमार सिल्वर स्क्रीन पर प्रेम करते हैं, तो वो सिर्फ अपनी ज़िद पर करते हैं, त्याग की भावना से ज्यादा उनके तेवर दिखते हैं, सिल्वर स्क्रीन आपको केवल प्रसिद्धि देती है, व्यजतुग शख्सियत आपको परिभाषित करती है, यही अंदाज़ उनको राजकुमार बनाता है.

देव साहब राजकुमार को लेकर अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विथ  लाइफ’ में लिखते हैं कि यूँ तो राजकुमार में लोग नकारात्मकता, घमंड देखते हैं, लेकिन उस व्यक्ति में सादगी का एक कोना था, देव साहब कहते हैं, कि यही दृष्टिकोण ज़िन्दगी में मेरा भी रहा है, लेकिन मैंने कभी भी यह सोचा नहीं है, कि मैं भी ऐसा करूंगा. देव साहब लिखते हैं कि राजकुमार का निधन हो जाने के बाद कुछ दिनों बाद उनकी बेटी वास्तविकता मेरे पास काम मांगने के लिए आईं, तो मैंने सहसा पूछा कि राजकुमार कैसा है? स्वास्थ्य ठीक है? वास्तविकता अपने पिता राजकुमार को याद करते हुए रो पड़ी, मैंने पूछा क्या हुआ, कहती है कि मेरे पिता राजकुमार इस दुनिया में नहीं रहे. मुझे भी दुःख हुआ, कि राजकुमार के देहांत की खबर भी नहीं लगी, तो वास्तविकता ने बताया जो राजकुमार का डर दृष्टिकोण था, वो राजकुमार को एक दार्शनिक सिद्ध करता है, कि यह आज की दुनिया में कोई ऐसा सादगी से भरा कैसे हो सकता है, राजकुमार ने अपने देहांत से पहले ही तय कर दिया था, कि मेरे देहांत के बाद मेरे घर के लोग ही मुझे पंचतत्व को सौंप देना. किसी प्रकार की कोई शवयात्रा ड्रामा मेरी मौत का मत बनाना, मौत व्यक्ति की अपनी पर्सनल होती है, शरीर प्रकृति का है, उसको ही सौंप देना चाहिए. वो नहीं चाहते थे, कि राजकुमार को कोई असहाय रूप में नाक में रुई लगी अर्थी में लेता हुआ देखे. मैं अपनी तस्वीर लोगों के जेहन में ऐसी ही जिन्दा रखना चाहता हूं. बेटी वास्तविकता यह सुनने के बाद राजकुमार के लिए आदर का भाव बढ़ गया. देव साहब कहते हैं सचमुच राजकुमार बहुत कम समझ आता था. तब देव साहब ने भी प्रेरणा लिया कि मरने के बाद इवेंट बाज़ी नहीं होना चाहिए, शरीर प्रकृति को सौंप देना चाहिए. चाहे, जिस मुल्क में चाहे जिस गांव में चाहे जिस शहर में जहां देहांत हो मुझे प्रकृति को सुपुर्द कर देना. यही देव साहब की इच्छा के मुताबिक अमेरिका में उनके कुछ रिश्तेदारों की मौजूदगी में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. राजकुमार का यह दृष्टिकोण उनको दार्शनिक सिद्ध करता है.

राज कुमार ने पचास से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें कुछ प्रमुख फ़िल्में थीं – मदर इंडिया, दुल्हन, जेलर, दिल अपना और प्रीत पराई, पैगाम, अर्धांगिनी, उजाला, घराना, दिल एक मंदिर, गोदान, फूल बने अंगारे, दूज का चांद, प्यार का बंधन, ज़िन्दगी, वक़्त, पाकीजा, काजल, लाल पत्थर, ऊंचे लोग, हमराज़, नई रौशनी, मेरे हुज़ूर, नीलकमल, वासना, हीर रांझा, कुदरत, मर्यादा, सौदागर, हिंदुस्तान की कसम। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में उन्हें कर्मयोगी, चंबल की कसम, तिरंगा, धर्मकांटा, जवाब जैसी कुछ फिल्मों में बेहद स्टीरियोटाइप भूमिकाएं निभाने को मिलीं.

राजकुमार साहब अपने अंतिम दिनों तक उसी ठसक में रहे फिल्में अपनी शर्तों पर करते रहे. फिल्में चलें न चलें वह बेपरवाह रहते थे.राजकुमार- राजकुमार फेल नहीं होता. फिल्में फेल होती हैं. आखिरी वर्षों मे वह शारीरिक कष्ट में रहे मगर फिर भी अपनी तकलीफ लोगों और परिवार पर जाहिर नहीं होने दी. उनकी आखिरी प्रदर्शित फिल्म गॉड एण्ड गन रही.3 जुलाई 1996 को राजकुमार दुनिया से रुख़सत हो गए. राजकुमार के लिए यही कहा जा सकता है, कि आज भी एक सितारा चमकता रहता है, लेकिन समझ कम आता है.

और रहा सवाल समझने का तो दुनिया में किसको कौन समझ सका है, हम खुद को ही नहीं समझ सके दुनिया को समझ क्या खाक आएंगे. आज अगर जिवित होते तो ऐसा ही कुछ बोलते. राजकुमार अपने जन्मदिन पर बहुत याद आए.

नगर निकाय चुनाव के लिए यूपी भाजपा ने बनाई रणनीति

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लखनऊ । भारतीय जनता पार्टी ने आगामी नगरीय निकाय के चुनाव को लेकर अपनी तैयारिया तेज कर दी है। शनिवार को पार्टी के राज्य मुख्यालय पर प्रदेश अध्यक्ष श्री भूपेन्द्र सिंह चौधरी की अध्यक्षता में नगर निकाय चुनाव को लेकर पार्टी के जिलाध्यक्ष व जिला प्रभारियों सहित नगर निकाय चुनाव के लिए पार्टी द्वारा नियुक्त किए गए संयोजकों/प्रभारियों की बैठक सम्पन्न हुई। प्रदेश के उपमुख्यमंत्री श्री केशव प्रसाद मौर्य, बृजेश पाठक व प्रदेश महामंत्री (संगठन) श्री धर्मपाल सिंह जी ने बैठक में उपस्थित पार्टी पदाधिकारियों व प्रमुख नेताओं को नगर निकाय के चुनाव में पार्टी की अभूतपूर्व सफलता के लिए मार्गदर्शन किया व आगामी कार्ययोजना पर चर्चा की। पार्टी निकाय स्तर पर 14 व 15 अक्टूबर को बैठक करेगी। जबकि 16 व 17 अक्टूबर को वार्ड/शक्तिकेन्द्र स्तर पर बैठके आयोजित की जाएगी। नगर पालिका परिषद व नगर पंचायत के चुनाव को लेकर अवध-कानपुर क्षेत्र, बृज व पश्चिम क्षेत्र और गोरखपुर व काशी क्षेत्र की सायंकाल अलग-अलग क्षेत्रशः बैठकें हुई।

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष श्री भूपेन्द्र सिंह चौधरी ने बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा की डबल इंजन की सरकार की नीतियों का शत प्रतिशत लाभ जनता को तभी मिल सकता है जब निकायों में भाजपा की सरकार हो, यानि निकायों में भी एक बार फिर भाजपा की जीत का परचम फहरेगा तो हम और भी अधिक मजबूती से अपने काम और प्रभाव दोनो को बढ़ा सकेंगे।

श्री चौधरी ने कहा कि पिछले साल ग्राम पंचायतों, क्षेत्र पंचायतों और जिला पंचायतों में भाजपा ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था। उसके बाद हुए विधानसभा 2022 के चुनावों में भी हम दोबारा चुनाव जीतकर आए हैं। अब नगर निकाय के चुनाव होने जा रहे हैं, हमें एक बार फिर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दोहराना है। यह इसलिए भी जरूरी है की नगर निकायों की स्थानीय सरकार में जब हमारी पार्टी सत्ता में होगी तो केंद्र और राज्य सरकार की योजनाएं जमीन पर उतर सकेंगी, आम लोगों के लिए हम और भी अच्छे ढंग से जनकल्याणकारी और विकास के कार्य कर सकेंगे।

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि नगर निकाय के चुनाव पार्टी के लिए महत्वपूर्ण है। माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में पार्टी का चहंुओर विस्तार हुआ है। आज पार्टी सर्वस्पर्शी, सर्वव्यापी, सर्वसमावेशी और सर्वग्राही बन गई है। ऐसे में हम सब की जिम्मेदारी है कि नगरीय निकाय चुनावों में पार्टी के नए पुराने सभी कार्यकर्ताओं को एकजुट कर चुनाव में सक्रिय करते हुए पार्षद से लेकर नगर पंचायत व पालिका के अध्यक्षों और महापौर के पद पर पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के संकल्प के साथ पार्टी द्वारा तय की गई कार्ययोजना के अनुसार नगर निकाय चुनाव में जीत दर्ज करने के लिए कार्य करना है। उन्होंने कहा कि गरीब कल्याण, महिलाओं को सुरक्षा, बेहतर कानून व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ, किसान कल्याण के लिए लागू की गई योजनाओं सहित समाज के सभी वर्गों के लिए भाजपा सरकार द्वारा किए गए कार्यों के कारण जन-जन का समर्थन भाजपा को मिल रहा है।

उपमुख्यमंत्री श्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि सपा, बसपा, कांग्रेस हताशा व निराशा के गर्त में डूबे हुए है फिर भी हमें विपक्ष को कमजोर नहीं समझना है और पूरी तैयारी तथा मेहनत के साथ नगरीय निकाय चुनाव लड़ना है। उन्होंने बैठक को सम्बोधित करते हुए कहा कि आप सभी के अनुभव और परिश्रम के से भाजपा ने बहुत चुनाव लड़े और जीते है। हमें नगर निगम, नगर पालिका, नगर पंचायत के अध्यक्ष व सभी पार्षदों की सुनिश्चित विजय के संकल्प के साथ चुनाव की तैयारी में जुटना है। प्रदेश के मतदाता भाजपा के साथ हैं हमें मतदाताओं से सम्पर्क और उन्हें मतदान केन्द्र तक पहुंचाने का काम करना है। उन्होंने विभिन्न सामाजिक संगठनों व गणमान्य जनों को भी योजनापूर्वक पार्टी से जोड़कर नगर निकाय के चुनाव में पार्टी की जीत के संकल्प के साथ सक्रिय करने पर जोर दिया।

उपमुख्यमंत्री श्री बृजेश पाठक ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी के एक-एक कार्यकर्ता अपने परिश्रम से प्रदेश में विजय की परम्परा प्रारम्भ कर चुका है। देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की केन्द्र सरकार व मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व की प्रदेश भाजपा सरकार की जनकल्याणकारी योजनाएं तथा पार्टी कार्यकर्ताओं के मतदाताओं से सतत् संवाद व सम्पर्क ने भाजपा को जन-जन की पार्टी बनाया है। उन्होंने कहा कि आगामी नगर निकाय चुनाव की चुनौति फिर हमारे सामने है। पार्टी कार्यकर्ताओं के परिश्रम व समर्पण से एक बडी़ जीत के साथ प्रदेश में नया इतिहास लिखेगी। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार व अपराध पर जीरो टॉलरेंस की नीति के साथ प्रदेश के मतदाता पूर्णरूपेण भाजपा के साथ है। उन्होंने कहा कि प्रदेश के मतदाताओं ने तय कर लिया है कि सपा-बसपा व कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष भी अगर एक साथ मिलकर चुनाव लडे़ तब भी कमल खिलाना है।

पार्टी के प्रदेश महामंत्री (संगठन) श्री धर्मपाल सिंह जी ने नगर निकाय के आगामी चुनाव को लेकर पार्टी संगठन द्वारा तैयार की गई कार्ययोजना पर विस्तार पूर्वक चर्चा की। उन्होंने कहा निकाय चुनाव में पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए हम सबको मिलकर मतदाता पुनरीक्षण अभियान में सक्रियता पूर्वक कार्य करना होगा। मतदाता सूची में नाम बढाने के लिए कार्यकर्ताओं द्वारा पार्टी की योजनानुसार घर-घर सम्पर्क अभियान चलाने को कहा। उन्होंने कहा नगर निकाय के चुनाव में सफलता के लिए बूथ स्तर तक कार्ययोजना बनाकर कार्य करना होगा। वार्ड व बूथ स्तर पर पार्टी के नए पुराने कार्यकर्ताओं, मोर्चा, प्रकोष्ठों के पदाधिकारी की सूची बनाकर उन्हें निकाय चुनाव में योजनापूर्वक सक्रिय करना होगा। प्रदेश महामंत्री संगठन ने कहा कि लोकसभा व विधानसभा चुनाव की तरह ही नगर निकाय के चुनाव में भी बूथ जीता-चुनाव जीता के मंत्र के साथ हम सब को कार्य करना है।

बैठक में नगर निकाय चुनाव को लेकर प्रदेश महामंत्री व राज्यमंत्री  (स्वतंत्र प्रभार) श्री जेपीएस राठौर ने प्रस्तावना रखी। संचालन प्रदेश मंत्री त्रयम्बक त्रिपाठी ने किया। 

रेणु की ‘मारे गए गुलफाम’ को अमर कर गई राज कपूर की ‘तीसरी कसम’

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दिलीप कुमार

लेखक

बिहार के ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म तीसरी कसम हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म अपने आप में सिल्वर स्क्रीन पर फ्लॉप हो जाने के बाद भी अपनी सफलता की कहानी बयां करती है!

फणीश्वरनाथ रेणु की लघुकथा ‘मारे गए गुलफाम’ की कहानी में प्रेम को परिभाषित करती हुई फिल्म ‘तीसरी कसम’ सिने प्रेमियों एवं साहित्य पर रुचि रखने वाले दर्शकों – पाठकों के लिए आज भी प्रासंगिक है,जिसको राजकपूर ने अपने मूलत : यादगार अभिनय से सीधे – सादे गंवई मासूम बैलगाड़ी चालक हीरामन नामक भूमिका को यादगार बना दिया. ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म एवं मारे गए गुलफाम लघुकथा दोनों ही दर्शकों एवं पाठकों के लिए एक साहित्यिक धरोहर हैं!

एकमात्र फिल्म के निर्देशक गीतकार शैलेन्द्र ‘तीसरी कसम’ में मीना कुमारी एवं महमूद को कास्ट करना चाहते थे. बाद में उन्हें एहसास हुआ,कि गंवई, आदमी के किरदार में राजकपूर से बेहतर कौन हो सकता है! बाद में उन्होंने मीना कुमारी महमूद का विचार तज दिया. ग्रेट राज कपूर ने फिल्म की फीस एक रुपया लिया था, क्योंकि शैलेन्द्र एवं राजकपूर दोनों जिगरी दोस्त थे. देव साहब की जोड़ी एस डी बर्मन(बर्मन दादा) के साथ, दिलीप कुमार की जोड़ी नौशाद के साथ, वहीँ राजकपूर की जोड़ी कविराज शैलेन्द्र के साथ जमी और प्रसिद्ध हुई. आज के दौर में यह सब अतीत हो चुका. प्रासंगिक है तो केवल व्यवसाय केवल और केवल व्यवसाय……

राजकपूर साहब मासूम आदमी की भूमिका में, सीधे सादे भोले आदमी के रोल मे जब होते हुए वो पर्दे पर किरदार को जीते थे. मासूम सीधे आदमी के किरदार में उनका कोई सानी नहीं था. सिल्वर स्क्रीन पर तालियां, ग्लैमर, अकूत पैसा, आदि नहीं बल्कि सिनेमैटोग्राफी की जहीन समझ  ग्रेट राज कपूर को शोमैन बनाती है. शूटिंग के वक़्त कौन सा कैमरा किस एंगिल में रहेगा, कौन सा शॉट किस एंगल में सटीक होगा, टेकनीशियन आदि को भी राज कपूर रास्ता दिखा देते थे.

यूँ तो वहीदा रहमान सीरियस, रोमांस, संजीदा अभिनय आदि में कंप्लीट पैकेज थीं. ‘तीसरी कसम’ फिल्म में उदार नाट्यकर्मी की भूमिका में हीराबाई यानि वहीदा रहमान बेजोड़ अभिनय करती हैं.

राज  कपूर एवं वहीदा रहमान दोनों के सर्वोत्तम अभिनय से सधी हुई कहानी के कारण तीसरी कसम अपनी सफलता की कहानी खुद सुनाती है. आज तीसरी कसम मील का पत्थर साबित मानी जाती है. इसका सबसे ज्यादा योगदान शो मैन राज कपूर को जाता है. तत्कालीन परिस्थितियों में फिल्म सिल्वर स्क्रीन पर नकार दिए जाने के बाद भी आज इस फिल्म को हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है.इसका सबसे ज्यादा योगदान साहित्यक कृति ‘मारे गए गुलफाम’ के लेखक ‘फणीश्वर नाथ रेणु’  जिन्होंने फिल्म में शानदार संवाद भी लिखा.

गंवई अंदाज़ में राज कपूर के लिए शानदार संवाद लिखा गया. वहीँ राजकपूर भी संवाद अदायगी में सारी लकीरों को क्रॉस कर जाते हैं. राज कपूर साहब के सामने एक पल के लिए वहीदा रहमान भी अप्रभावी दिखती हैं. राज कपूर साहब का तिलिस्म आज भी कायम है. सबसे ज्यादा तीसरी कसम के लिए, वहीँ किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाना हमेशा ही रिस्की रहा है, क्योंकि भारतीय दर्शकों की साहित्यिक समझ न के बराबर है.अधिकांश फ़िल्में पिट जाती हैं, लेकिन तीसरी कसम के साथ यह आरोप नहीं लगा न ही कोई लगा सकता है. ख़ासकर साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्में बनी हैं, सफलता – असफलता से पहले ही उपन्यासों के लेखकों से हमेशा नाराज़गी जाहिर की है, कि हमारी साहित्यक रचना के साथ न्याय नहीं हुआ, क्योंकि सबसे बड़ी समस्या है, एक बड़े उपन्यास को दो तीन घंटे की फिल्म में दिखाना, एवं उसकी कहानी छोटी न हो ऐसे हो ही नहीं सकता. उपन्यास एवं सम्बंधित कहानी का लेखक एक भी भाग छोड़ने देने की इजाजत क्यों देंगे. सबसे बड़ी खाई यहीं खुद जाती है. सबसे बड़ा जोखिम भी यही है,लेकिन ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ इस विवाद से भी परे है. राज कपूर, कविराज शैलेन्द्र, फणीश्वर नाथ रेणु, बासु भट्टाचार्य, आदि ने क्या बेहतरीन समन्वय स्थापित किया, जो सीखने योग्य है.

यह फ़िल्म उस समय व्यावसायिक रूप से सफ़ल नहीं रही थी, लेकिन फिल्म ‘तीसरी कसम’ आज अदाकारों के श्रेष्ठतम अभिनय तथा दूरदर्शी निर्देशन के लिए जानी जाती है. इस फ़िल्म के बॉक्स ऑफ़िस पर फ्लॉप हो जाने के कारण निर्माता गीतकार शैलेन्द्र को काफ़ी बड़ी ठेस पहुंची थी. उन्होंने कहा कि समझ नहीं आता, कि भारतीय दर्शकों का टेस्ट क्या है? कभी – कभार ही बन सकती हैं, ‘तीसरी कसम’ जैसी फ़िल्में, फ़िर भी साहित्य को सिल्वर स्क्रीन पर फ़िल्माया जाना अपने आप में एक जोखिम का काम है, क्योंकि गीतकार शैलेन्द्र को इस फिल्म से काफी उम्मीदें थीं. फिल्म बुरी तरह से पिट गई. गीतकार शैलेन्द्र को बहुत नुकसान हुआ, आखिरकार वो बहुत निराश हो चुके थे, कहते हैं, कि अगले साल ही गीतकार शैलेन्द्र निधन हो गया, और इस फिल्म की असफ़लता ही उनकी मौत का कारण बनी!

‘तीसरी कसम’ फिल्म को तत्काल बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता नहीं मिली थी, पर यह हिन्दी के श्रेष्ठतम फ़िल्मों में गिनी जाती है. कई बार फ़िल्में दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पातीं, क्योंकि भारतीय दर्शकों को कला वाली फ़िल्में कम ही आकर्षित करती हैं. व्यवसायी फ़िल्मों का अपना महत्व है, उनका अपना मार्केट है. ‘मेरा नाम जोकर’ हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म मानी जाती है. स्वः राज कपूर ने इस फिल्म को काफी समय लेते हुए बड़ी उम्मीदों के साथ बनाया था. फ्लॉप होने के बाद अर्थिक रूप से तबाह हो गए थे. बॉबी ने उबार दिया था. ऐसे ही फ्लॉप फ़िल्में जो पर्दे पर फ्लॉप हो गईं देर से ही सही उनको वो मुकाम मिला.

बिहार का गांव और ग्रामीण पृष्ठभूमि पर चली सधी कलम और वो भी प्रेम की अद्भुत दास्तान तीसरी कसम जिसे 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार मिला. इस  प्रेम कहानी को सिल्वर स्क्रीन पर राजकपूर एवं वहीदा रहमान ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया. आज तक जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनीं, तीसरी कसम इनमें सबसे अलग है. फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ एक अंचल की कथा है. जिसका परिवेश ग्रामीण है, जहां जीविकोपार्जन का साधन कृषि और पशु-पालन है. इस कहानी के मूल पात्र हीरामन और हीराबाई हैं. ‘तीसरी कसम’ अपने दोनों माध्यमों में ऊंचे दरजे का सृजन है. इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है. आजादी के बाद भारत के ग्रामीण समाज को समझने के लिए ‘तीसरी कसम’ मील का पत्थर साबित हुई. हीरामन(राज कपूर) एक गाड़ीवान है, फ़िल्म की शुरुआत एक ऐसे दृश्य के साथ होती है, जिसमें वो अपना बैलगाड़ी को हाँक रहा है और बहुत खुश है, थोड़ी देर बाद उसकी बैलगाड़ी का टक्कर हो जाता है, जिससे दो लोग सीधे – सादे हीरामन को बेतहासा मारने लगते हैं, तब हीरामन गिड़गिड़ाता हुआ कहता है, जान कर नहीं किया धोखे से हो गया अब नहीं करूंगा, यह सीन सबसे शानदार अंश था.

बाद में उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई (वहीदा रहमान) बैठी है. वहीं हीराबाई हीरामन को कहती हैं, कि मैं तुम्हें भैया नहीं, क्योंकि हमारा नाम एक ही है, इसलिए तुम्हें मीता कहूँगी. हीरामन की खुशी सातवें आसमान पर होती है. हीरामन(राज कपूर) वहीं उकडूं बैठकर कई कहानियां सुनाते और लीक से अलग ले जाकर हीराबाई को कई लोकगीत सुनाते हुए, ख़ासकर एक नदी के घाट पर कुंवारी लड़कियों का नहाना वर्जित है,क्योंकि वो सुनाते हैं, महुआ नामक लड़की एवं उसकी सौतेली माँ की कहानी जो अपने प्रेमी से प्रेम करती है, लेकिन उसकी माँ उसी घाट पर महुआ को बेंच देती है. इसलिए यहां कुवांरी लड़कियां नहीं नहाती. वहीं  हीरामन, हीरा बाई को सर्कस के आयोजन स्थल तक पहुँचा देता है. इस बीच उसे अपने पुराने दिन याद आते हैं, और लोककथाओं और लोकगीत से भरा यह अंश फिल्म के आधे से अधिक भाग में है. इस फ़िल्म का संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था. हीरामन अपने पुराने दिनों को याद करता है, जिसमें एक बार नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे अपने बैलों को छुड़ा कर भगाना पड़ता है. इसके बाद उसने कसम खाई कि अब से “चोरबजारी” का सामान कभी अपनी गाड़ी में नहीं लादेगा. उसके बाद एक बार बांस की लदनी से परेशान होकर उसने प्रण लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बांस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा. हीराबाई नायक हीरामन की सादगी से इतनी प्रभावित होती है कि वो मन ही मन उससे प्रेम कर कर बैठती है. उसके साथ मेले तक आने का 30 घंटे का सफर कैसे पूरा हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता हीराबाई हीरामन को उसके नृत्य का कार्यक्रम देखने के लिए पास देती है. जहां हीरामन अपने दोस्तों के साथ पहुंचता है, लेकिन वहां उपस्थित लोगों द्वारा हीराबाई के लिए अपशब्द कहे जाने से उसे बड़ा गुस्सा आता है, वो उनसे झगड़ा कर बैठता है. हीराबाई से कहता है कि वो ये नौटंकी का काम छोड़ दे. उसके ऐसा करने पर हीराबाई पहले तो गुस्सा करती है, लेकिन हीरामन के मन में उसके लिए प्रेम और सम्मान देख कर वो उसके और करीब आ जाती है. इसी बीच गांव का जमींदार हीराबाई को बुरी नजर से देखते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास करता है, और उसे पैसे का लालच भी देता है. नौटंकी कंपनी के लोग और हीराबाई के रिश्तेदार उसे समझाते हैं, कि वो हीरामन का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दे, अन्यथा जमींदार उसकी हत्या भी करवा सकता है. यही सोच कर हीराबाई गांव छोड़ कर हीरामन से अलग हो जाती है. फिल्म के आखिरी हिस्से में रेलवे स्टेशन का दृश्य है, जहां हीराबाई हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसके पैसे उसे लौटा देती है. जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे दिए थे. उसके चले जाने के बाद हीरामन वापस अपनी गाड़ी में आकर बैठ कर जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है, तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं “मारो नहीं”और वह फिर उसे याद कर मायूस हो जाता है.

अन्त में हीराबाई के चले जाने और उसके मन में हीराबाई के लिए उपजी भावना के प्रति हीराबाई के बेमतलब रहकर विदा लेने के बाद उदास मन से वो तीसरी क़सम खाता है, कि अपनी गाड़ी में वो कभी किसी नाचने वाली को नहीं ले जाएगा. हीरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिडकी दी, दुआली से मारे हुए बोला, “रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो?” दोनों बैलों ने कदम खोलकर चाल पकडी. हिरामन गुनगुनाने लगा- “अजी हाँ, मारे गए गुलफाम….

लघुकथा लिखने वाले ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ कितने ज़हीन थे, फिल्म की पृष्ठभूमि को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है. वहीँ राजकपूर जैसा व्यक्ति पूरा गंवई लगता है, एवं बोलता है, तो ऐसे लगता है, कोई गांव का अनपढ़ आदमी हैं. वहीँ उनके फिल्म के संवाद भी आम बोलचाल की भाषा में हैं.  शंकर – जयकिशन का संगीत, वहीँ गीतकार शैलेन्द्र ही निर्माता हैं. ग्रेट निर्माता, निर्देशक राजकपूर साहब भी केवल अभिनेता के रूप में रहे. बासु भट्टाचार्य, दूरदर्शी निर्देशक फिल्म आज देखने पर सिनेमाई दृष्टि एवं साहित्य की दृष्टि से सीखने के लिए बेशुमार सम्भावनाएं हैं. हिन्दी सिनेमा में फ़िल्मों का फ्लॉप होना बड़ी बात नहीं है, एक फिल्म की असफ़लता से हमें बेशकीमती कविराज शैलेन्द्र जैसे कोहिनूर को खो देने का डर होना चाहिए. कोई भी सकारात्मक आदमी, रचनात्मक, सृजनशीलता के खिलाफ नहीं हो सकता, प्रत्येक सिने प्रेमी के मन में सृजनशीलता के लिए सहयोग आदर का भाव होना चाहिए. तीसरी कसम फिल्म का अतीत, वर्तमान, सब सीखने के लिए बहुत हैं, बटोर लीजिए जो बटोर सकते हैं!

फैसला : अमेरिका में नशेडी, गंजेड़ियों की चांदी

अमेरिका में नशेडी, गंजेड़ियों की चांदी हो गई है! राष्ट्रपति जो बाइडेन ने गांजा रखने और इसके इस्तेमाल वाले जेल न भेजने के आदेश दिए हैं!

जो बाइडेन ने कहा कि गांजा पीने और रखने के आरोप में देश की फेडरल जेलों में बंद सभी लोगों को रिहा कर दिया जाएगा. आपको बता दें कि राष्ट्रपति चुनाव के कैंपेन के दौरान जो बाइडेन ने वादा किया था कि वो इसको लेकर कदम उठाएंगे. इसी मामले को लेकर उन्होंने एक बयान जारी करते हुए ये एलान किया है. उन्होंने कहा कि गांजा रखने और इसके इस्तेमाल करने के आरोप में लोग जेल में बंद हैं और कई जिंदगियां बर्बाद हो गईं!

उन्होंने अपने संदेश में कहा कि गांजा रखने के चलते लोगों को जेल में बंद कर दिया जाता है. इन आरोपों के चलते लोगों को रोजगार, घर और पढ़ाई-लिखाई के मौके नहीं मिल पाते. श्वेत अश्वेत लोग बराबर मात्रा में गांजे का इस्तेमाल करते हैं. श्वेत लोगों के मुकाबले अश्वेत लोगों को इस मामले में ज्यादा गिरफ्तार किए जाते हैं. उन्हें ज्यादा सजा मिलती है!

जो बाइडेन (Joe Bieden) ने कहा कि फेडरल कानून (Federal Law) के तहत दोषी हजारों लोगों की सजा को माफ कर दिया गया है. वहीं, नीति में बदलाव कर ये भी घोषणा की गई है कि ये आदेश उन लोगों पर लागू होता है जिन पर साधारण तौर पर गांजा (Marijuana) रखने का आरोप लगा है. जो बाइडेन ने कहा, जिन लोगों के पास से साधारण तौर मारिजुआना मिलने के मामले दर्ज किए गए थे उन सभी को दोष मुक्त करार देते हुए माफ किया जाता है! 

सेवा समर्पण से निकल रहा विकसित भारत का रास्ता

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देशवासियों का हर दिन खास बनाने की कोशिश करते हैं!  पीएम कहते भी हैं अमृत में वो शक्ति होती है जो मृत को जीवित कर देता है! ये  बानगी भर है। प्रधानमंत्री मोदी के अनुसार सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते हमारे लिए वर्तमान पर नजर रखने के साथ ही भविष्य की योजनाएं तैयार करना बेहद अहम है। भारत आज से 25 साल बाद विकसित राष्ट्र होगा ! इस तरह की योजनाओं को धरातल पर उतारा जा रहा है!  

पीएम मोदी के जन्मदिन से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती दो अक्टूबर तक देश भर में ‘सेवा’ अभियान शुरू किया गया! ये सेवा सर्वव्यापी और सर्वग्राही है! पीएम मोदी ने  इस सेवा भाव को प्रकट करते हुए विलुप्त हो चुके चीते दोबारा देश को सौप दिये हैं! देश की पहचान ये चीते आजादी से पहले ही खत्म होने लगे थे! केंद्र सरकार ने 1952 में चीतों को विलुप्त घोषित कर दिया था। लेकिन पीएम ने 70 सालों बाद नामीबिया से उनकी घर वापसी संभव कराई है! पीएम सिर्फ यहीं नहीं रुके हैं ! उनका विजन वर्ष 2047 के भारत के लिए बिलकुल साफ है! जब 100 साल की यात्रा में देश ग्रामीण और शहरी विकास समग्र रूप से समृद्ध हो चुका होगा! इसके लिए केंद्र सरकार ने अभी से रोडमैप तैयार कर लिया गया है! पीएम साफ तौर पर कहते हैं! कि हम 2047 में विकसित देश होंगे! इसके लिए हर दिन नई तैयारी हो रही है! देश आगे बढ़ा रहा है और हर उपलब्धि का उत्सव भी मना रहा है! इस उत्सव में सेवा और समर्पण है। तभी पीएम मोदी ने जन्मदिन पर रक्त अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है! ‘‘सेवा’’ अभियान चलाया जा रहा है! देश के सभी जिलों मे ‘अनेकता में एकता’ उत्सव का आयोजन हो रहा है!

पीएम के जन्मदिन पर उत्तर प्रदेश में भी उत्सव का माहौल है! मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की देखरेख में प्रदेश भर में सेवा पखवाड़ा शुरू हो चुका है! जिसकी मॉनिटरिंग खुद मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र कर रहे हैं! सभी कार्यक्रमों के फोटो और वीडियो नमो एप या विभागीय टि्वटर हैंडल पर अपलोड किए जा रहे हैं! सीएम योगी आदित्यनाथ की ओर से महोत्सव के समापन पर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले जिलों को पुरस्कृत भी किया जाएगा।

सीएम योगी कहते हैं! लंबे समय से सांप्रदायिकता और तुष्टीकरण नीति से आहत मानवता को सर्वस्पर्शी और सर्वसमावेशी नेतृत्व देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देने का कार्य किया है! आज राष्ट्र प्रधानमंत्री के नेतृत्व में “ एक भारत- श्रेष्ठ भारत” बन रहा है!

सिर्फ इतना ही नहीं भारतीय जनता पार्टी अनुसूचित जाति मोर्चा देशभर में 75,000 अनुसूचित जातियों की बस्तियों में ‘संपर्क अभियान’ चला रहा है! यह अभियान 70 दिनों तक चलेगा। इसमें 7,500 छात्रावास और विध्यार्थियों को जोड़ा जा रहा है ! बीजेपी की तमिलनाडु इकाई पीएम मोदी के जन्मदिन पर पैदा होने वाले नवजात शिशुओं को सोने की अंगूठियां दे रही है! मत्स्य पालन और सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री एल मुरुगन ने इस बात की पुष्टि भी की है !   

प्रदेश स्तर पर हो या फिर केंद्र सरकार, डबल इंजन की सरकार पीएम मोदी के जन्मदिन के बहाने जनता को सेवा और समर्पण की सौगात दी जा रही है ! यही कारण है कि पीएम के नेतृत्व में शुरू की गई आयुष्मान भारत योजना का डंका आज पूरी दुनिया में बज रहा है! इससे आसाध्य रोगों का इलाज भी आसान हो रहा है! दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित स्वास्थ्य पत्रिकाओं में से एक लांसेट ने भी आयुष्मान भारत की सराहना की है!

ये सच भी है कि सबका साथ और सबका विकास होने पर ही भारत 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन पाएगा! क्योंकि पिछले कुछ सालों में कोविड जैसी महामारी के दौर में देश कठिन परीक्षा के दौर से गुजरा है! वहीं हाल में रूस- यूक्रेन युद्ध में जिस प्रकार ने पीएम मोदी के नेतृत्व में भारत ने चतुराई से तटस्थ भूमिका निभाई ! उससे पूरी दुनियाँ में देश का कद ऊंचा हुआ है! 

यही कारण है कि अमेरिका ने भारत को आई2यू2 समूह में शामिल करने में अहम भूमिका निभाई। इस समूह में भारत, इसराइल, संयुक्त अरब अमीरात और यूएसए शामिल हैं। अब भारत दक्षिण एशिया में ही नहीं बल्कि पश्चिम एशिया में भी तेजी से बड़ी ताकत बनकर उभर रहा है! जिससे इन क्षेत्र में चीन को रोकने की कवायद तेज हो सकती है!

पीएम मोदी ये अच्छी तरह से जानते हैं कि वैश्विक रिश्तों में केवल राष्ट्रहित ही सर्वोपरि होता है! इसीलिए आज भारत के अमेरिका और रूस दोनों से ही बराबरी के रिश्ते हैं! और रिश्ते विश्वास और मजबूती से भरपूर हैं! बीते दिन एससीओ समिट मोदी- पुतिन मुलाक़ात यही कहानी बयान करती है। जब पीएम ने कहा कि ये युग युद्ध का नहीं है! पीएम की इस बात से रूस और अमेरिका जैसी विश्व शक्तियों समेत पूरी दुनियाँ स्वीकार करती है! यही बात भारत के लिए गौरव का विषय है कि आज देश को पीएम मोदी के रूप में ऐसा नेतृत्व मिला है जो पूरी दुनियाँ को दिशा दे रहा है! पीएम सिर्फ इंसान ही नहीं पर्यावरण और पशु- पक्षियों के भविष्य को लेकर संवेदनशील नजर आते हैं! इसी कारण देश को 70 साल बाद एकबार फिर विलुप्त हो चुके चीते मिल जाते हैं! जिनकी हम अब तक केवल कहानियाँ सुनते थे! यही समग्र विकास है! यही विकसित राष्ट्र बनने की राह है! जिस पर देश के 140 करोड़ लोग पीएम की अगुवाई में चल पड़े हैं!

बीएचयूः स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश पंजीकरण की अंतिम तिथि बढ़ी

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–  8 अक्टूबर तक पंजीकरण कर सकते हैं सीयूईटी 2022 में शामिल हुए अभ्यर्थी

वाराणसी : शैक्षणिक सत्र 2022-23 के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु पंजीकरण की अंतिम तिथि बढ़ा दी गई है। प्रवेश के इच्छुक उम्मीदवार विश्वविद्यालय के काउंसिलिंग पोर्टल http://bhuonline.in/ पर अब 8 अक्टूबर 2022 तक पंजीकरण कर सकते हैं। पहले पंजीकरण की अंतिम तिथि 3 अक्टूबर थी। एनटीए द्वारा प्राप्त डेटा अपडेट करने के लिए काउंसिलिंग पोर्टल 4 और 5 अक्टूबर, 2022, को preference entry के लिए बंद रहेगा। अभ्यर्थी 6 से 9 अक्टूबर 2022 तक पोर्टल पर preference entry कर सकते हैं।अभ्यर्थियों को सूचित किया जाता है कि वे समय समय अपने ईमेल और बीएचयू के प्रवेश परीक्षा पोर्टल http://bhuonline.in/ का अवलोकन करते रहें।

राजकीय माध्यमिक विद्यालयों को मिलेंगे 1,395 नये अध्यापक

123 सहायक अध्यापक व 1,272 प्रवक्ताओं का होगा ऑनलाइन पदस्थापन

अभ्यर्थी एन0आई0सी0 द्वारा विकसित पोर्टल https://seceduonlineposting. up.gov.in पर करेंगे आवेदन

06 अक्टूबर, 2022 के अपराह्न से प्रारम्भ होगा पोर्टल

अभ्यर्थी 10 अक्टूबर से 20 अक्टूबर, 2022 तक कर सकेंगे आवेदन

लखनऊ: लोक सेवा आयोग, उत्तर प्रदेश, प्रयागराज द्वारा चयनित 123 सहायक अध्यापक तथा 1,272 प्रवक्ताओं को शीघ्र निष्पक्ष एवं पारदर्शी प्रक्रिया अपनाते हुये, राजकीय माध्यमिक विद्यालयों में नियुक्ति दी जायेगी। एन0आई0सी0 द्वारा विकसित पोर्टल https://seceduonlineposting.up.gov.in पर  अभ्यर्थी आवेदन कर  सकेंगे!तथा अपनी इच्छानुसार जनपद तथा विद्यालय का चयन कर सकेंगे। पोर्टल दिनांक 06 अक्टूबर, 2022 के अपराह्न से प्रारम्भ हो जायेगा तथा अभ्यर्थी दिनांक 10 अक्टूबर से 20 अक्टूबर, 2022 तक आवेदन कर सकेंगे।  उक्त आवेदन ऑनलाइन ही सबमिट होगा तथा किसी अन्य माध्यम से आवेदन स्वीकार नहीं किया जायेगा। अभ्यर्थियों को उक्त ऑनलाइन नियुक्ति प्रक्रिया में प्रतिभाग न करने की दशा में उन्हें अन्य अवसर प्रदान नहीं किया जायेगा तथा विभाग का निर्णय अन्तिम होगा। उक्त प्रक्रिया पूर्ण होने के पश्चात नियुक्ति पत्र निर्गत करने की कार्यवाही की जायेगी।

अभ्यर्थियों की सुविधा के लिए ई-मेल [email protected]  तथा हेल्पलाइन मो0नं0 9454452588 पर Call या इसी नम्बर पर WhatsApp  (कार्यदिवस में समय 10ः00 बजे से 5ः00 बजे तक) उपलब्ध रहेगा जिस पर वे अपनी समस्या के निराकरण हेतु संपर्क कर सकते है। अभ्यर्थियों में महिला शाखा में 402 तथा पुरूष शाखा के 870 नव चयनित प्रवक्ता मिले हैं। इसी प्रकार महिला शाखा के 74 तथा पुरूष शाखा के 49 नव चयनित सहायक अध्यापक राजकीय माध्यमिक विद्यालयों को मिले हैं। राजकीय विद्यालयों में नये अध्यापक प्राप्त होने से शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि होगी।

श्रद्धांजली : एक इंस्टीट्यूशन… महमूद मेरे महमूद मेरे

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श्रद्धांजली : एक इंस्टीट्यूशन… महमूद मेरे महमूद मेरे

दिलीप कुमार

दिलीप कुमार

लेखक

हिन्दी सिनेमा में  महमूद साहब की सिनेमाई यात्रा को याद न किया जाए तो एक प्रमुख चैप्टर से लोग महरूम रह जाएंगे। महमूद साहब ने केंद्र में रहते हुए एक लंबे समय तक दर्शकों का ध्यान खींचा है. उनका कॉमिक, भावनात्मक अभिनय काबिल ए तारीफ बेमिसाल रहा है. जिक्र ऐसे चलते-फिरते अभिनय इंस्टीट्यूशन का एक ऐसे एक्टर का जिसने अपने शुरुआती दिन मुफ़लिसी और तंगहाली में तो गुजारे, लेकिन जब उन्हें प्रतिभा बिखरने का मौका मिलातो बेशुमार ख्याति हासिल हुई . इसके बाद महमूद साहब ने पीछे पलट के नहीं देखा. उस एक्टर की एक्टिंग आज भी तमाम एक्टिंग स्कूल्स में सिलेब्स का हिस्सा है,कहने को तो महमूद एक कॉमेडियन थे, मगर किसी स्क्रिप्ट राइटर की स्क्रिप्ट के लिए महमूद कितने ज़रूरी थे, इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जब बात पेमेंट की आती थी, तो उस आमुक फ़िल्म में काम करने वाले एक्टर के मुकाबले महमूद को कहीं ज्यादा पैसे मिलते थे. साथ ही फिल्म के पोस्टर में हीरो के साथ उनकी तस्वीर लगाई जाती थी, किसी भी कॉमेडियन के लिए यह शिखर था।

29 सिंतबर सन 1932 बंबई में जन्मे महमूद अली पर्दे पर लोगों को हंसाते या फिर रुलाते हुए महमूद के लिए  ये कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं है कि महमूद जैसा कोई हुआ है और न ही कभी होगा. महमूद के बारे में मशहूर है कि उनका अंदाज ऐसा था कि उन्हें पर्दे पर देखने मात्र से ही दर्शक चहक उठते थे. अपनी सिनेमाई यात्रा में लगभग 300 फिल्मों में अपनी एक्टिंग का जलवा दिखाते हुए अभिनय का एक मानक स्थापित करते हुए  महमूद आज भी सिनेमा के विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के लिए किसी इंस्टिट्यूट से कम नहीं हैं. यह उनका अपना कद है, कमाया तो उन्होंने अपनी मेहनत से लेकिन उनकी सिनेमाई यात्रा अब हम सभी सिने प्रेमियों के लिए साझी विरासत है. हम कितना सहेज पाए हैं, यह एक विमर्श का विषय है।

दर्शकों की तालियां किसी भी कलाकार के लिए ऊर्जा सरीखी होती हैं, ऐसे में जब हम इस सन्दर्भ में महमूद को देखते हैं,तो इस मामले के मद्देनजर महमूद वाक़ई बेमिसाल थे. महमूद के दौर की फिल्मों को देखें तो मिलता है कि फ़िल्म के मेन लीड की अपेक्षा ज्यादा तालियां, प्रशंसा महमूद की झोली में आईं. उस दौर में भी कॉमेडियन के लिए ज्यादा कोई स्पेस नहीं था, लेकिन आप अपनी प्रतिभा के साथ केंद्र में रहते हुए ख्याति तो पाते ही हैं, अपितु एक ट्रेंड मार्क सेट करते हैं. यही शख्सियत महमूद साहब की है।

महमूद के बारे में एक दिलचस्प बात काफ़ी प्रचलित थी, खूब लिखी जाती थी,वो ये थी कि, फ़िल्म में अभिनेता और अभिनेत्री कोई भी हो भले ही कितनी भी बड़ी बजट फिल्म हो चाहे बेशुमार पैसा क्यों न लगा हो, फ़िल्म तब तक हिट नहीं हो सकती, जब तक उसमें महमूद न हों. यह उनकी अपनी निजी कमाई है. बात अगर महमूद की शख्सियत और अभिनय कौशल की हो तो उस दौर में चाहे दिलीप कुमार, देवानंद, राज कपूर, अशोक कुमार आदि ध्रुव तारे रहे हों, या फिर किशोर कुमार हर कोई महमूद की अभिनय कौशल का दीवाना था. वहीँ महमूद साहब देव साहब, दिलीप साहब, राज कपूर, अशोक कुमार, आदि से थोड़ा दूरी बनाकर रखते थे. उनका कहना था कि मैं इनके बीच अपनी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर सकता. मुझे अपने लिए एक मुकाम इन दिग्गजों से हटकर बनाना पड़ेगा. बाद में महमूद साहब की नए अभिनेताओं में विनोद खन्ना, अमिताभ बच्चन , विनोद मेहरा, आदि के साथ ट्यूनिंग ज़मी, और क्या खूब ज़मी. इन सभी के लिए उस दौर में महमूद साहब एक अध्यापक की तरह थे. हमेशा अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, विनोद मेहरा आदि को अपने सेट पर बिना रीटेक बिना रिहर्सल अभिनय की सीख देते थे. यह  विधा हर कलाकार को मिलती नहीं है. यह एक प्राकृतिक प्रतिभा है. एकाद महमूद जैसे अपनी तपस्या से उसको सिद्ध कर कर लेते हैं. कहते हैं कि मेहमूद जो भी बोलते थे वो निर्देशकों के लिए परफेक्ट होता था. महमूद बिना रिहर्सल के बिना रीटेक के शॉट देते थे. यह उनकी अदायगी अद्वितीय है. महमूद कहते थे कि मैं हिन्दी सिनेमा के सारे उस्तादों को जानता हूँ कौन कितने पानी में है, दूसरे शब्दों में कहें तो वो सभी कलाकारों के अभिनय कौशल की सीमा जानते थे. कहते थे, किशोर कुमार को समझना बड़ा मुश्किल है. वो कब क्या बोल जाएं और अभिनय की कौन सी लकीर स्थापित कर दें कहना – समझना बहुत मुश्किल है.

वहीँ महमूद किशोर कुमार के जानी दोस्त थे, धर्मेंद्र एवं हरफ़नमौला संजीव कुमार के साथ दोस्ती के किस्से आम हैं. उस दौर में महमूद साहब अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, विनोद मेहरा, आदि के प्रशिक्षक के तौर पर थे, जो इन सभी को प्रशिक्षित करते हुए, अत्यंत स्नेह भी देते थे।

आज के दौर में फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों को देखते हुए महमूद याद आते हैं. जिन्होंने सांवले लोगों के लिए एक कालजयी प्रेरणा-गान दिया. महमूद ने जो भी किरदार निभाया. अपनी खास भाव भंगिमाओं के लिए मशहूर महमूद आज भी अपनी लकीरों को क्रॉस करते हुए बहुत दूर खड़े दिखाई देते हैं.  आप सिर्फ उनसे सीख सकते हैं, जितना सीखना चाहो।

महमूद साहब केवल अभिनय के लिए ही नहीं जीवन संघर्ष के दिनों में भी लोगों के लिए प्रेरणा हो सकते हैं. कौन सोच सकता है, कि अंडे बेचने वाला से ऑटो चालक से डायरेक्टर पीएल संतोषी के ड्राईवर उसके बाद अपनी प्रतिभा प्रदर्शन से महमूद साहब बन जाएगा।

महमूद को महान एक्ट्रेस मीना कुमारी को टेबल टेनिस सिखाने की नौकरी मिली थी. यह कितना ही उम्दा पक्ष है, प्रशिक्षक का गुण तो उनके अंदर बखूबी था. बाद में महमूद ने मीना की बहन मधु से 4 सितंबर 1953 में शादी की. एक बच्चे का पिता बनने के बाद महमूद ने एक्टिंग की तरफ गंभीरता से ध्यान देना शुरू किया. देव साहब की सस्पेंस थ्रिलर फिल्म ‘सीआईडी’ 1956 में किलर का एक छोटा सा रोल मिला. ‘सीआईडी’ फिल्म जबरदस्त हिट हुई, लेकिन महमूद के लिए कुछ ख़ास नहीं बदला. कालजयी फिल्मों ‘दो बीघा जमीन’ और ‘प्यासा’ में भी महमूद के रोल थे.  किसी ने कोई भाव नहीं दिया.  बतौर अभिनेता महमूद की किस्मत का सितारा फिल्म ‘भूत बंगला’ सन 1965 से बुलन्द हुआ. ‘भूत बंगला’ उनके अपने ही डायरेक्शन में बनी. इस फिल्म में तनुजा उनके अपोजिट थीं.  फिल्म की कामयाबी के बाद महमूद को जॉनी वॉकर के बाद कॉमेडी का वारिस कहा जाने लगा.इसके बाद आई ‘पड़ोसन’,सन 1968 ‘लव इन टोक्यो’, ‘आंखें’ और ‘बॉम्बे टु गोवा’ जैसी फिल्मों में महमूद एक स्तंभ बन चुके थे.

पूरी दुनिया को हंसाने वाले मेहमूद की जिंदगी में एक वाक्या हुआ जो उनको झकझोर गया, वो समझ नहीं पा रहे थे, कि बच्चों को किस बात की सज़ा मिलती है. उनके एक बेटे को पोलियो नामक बीमारी थी, वो बहुत दुखी थे. उन्होंने अपनी निजी जिंदगी में एक फिल्म बनाने की सोची फिल्म ‘कुंवारा बाप’ महमूद ने लगभग तीन सौ से अधिक फ़िल्मों में काम किया. फिर भी अगर हम उनकी फिल्म ” कुंवारा बाप’ सन 1974 फिल्म की चर्चा न करें तो उनकी सिनेमाई यात्रा अधूरी है.’ कुवांरा बाप’ फिल्म में महमूद अपनी मध्यम वार्गीय शैली रिक्शे चालक की भूमिका में होते हैं, जो पूर्णता परिपक्व तो नहीं होता, लेकिन उसको फिल्म में एक महीने का अनाथ बच्चा मिल जाता है, जिसको समाज़ के कुछ ठेकेदार उनके गले में डाल देते हैं. चूंकि वह बच्चा पोलियो नामक बीमारी से पीड़ित होता है. कहानी में वह बच्चा महमूद की जान बन जाता है. जो व्यक्ति पूर्णता परिपक्व नहीं है, वह बच्चे के लालन – पालन में अपनी समर्पित प्रेमिका को भूल जाता है, कि वो उस बच्चे के इर्द-गिर्द अपनी दुनिया बसाएगा. पूरी फिल्म में आपको शायद ही कहीं रोना न आए, फिल्म के शुरुआती दौर में लगता है, कि यह फिल्म महमूद साहब की शैली के मुताबिक हास्य पर आधारित होगी, लेकिन यह फिल्म भावनात्मक शैली के लिए प्रसिद्ध है. इस फिल्म को अगर सर्वकालिक महान फ़िल्मों में शुमार किया जाए, तो शायद कम ही होगा. उस समय जब हमारे आस-पास लोग पोलियो जानते भी नहीं रहे होंगे. वहीँ उस दौर में जागरुकता के हिसाब से यह एक सामजिक संदेश देती  है. आप सभी महमूद साहब को पड़ोसन, भूत बंगला, आँखे, लव इन टोक्यो, के लिए जानते होंगे, लेकिन वो कुंवारा बाप फिल्म में बेमिसाल अभिनय के कारण मेरे जेहन में अंकित हैं.

सामाजिक सरोकार सद्भाव, सहयोग की भावना अगर नहीं है तो आप कितनी भी अकूत सम्पति कमा लें, लोग आपको क्यों याद करेंगे? वो आपकी सहयोग भावना को याद करते हुए आपको याद करेंगे. दोनों परस्पर बहुत बड़े मित्र थे, मशहूर अभिनेता प्लेबैक सिंगर किशोर दा एवं महमूद साहब की शख्सियत में एक अन्तर ग़ज़ब की सीख देते हुए अंतर्विरोध को समझाता है. चूंकि दोनों जानी दोस्त थे. किशोर दा कभी भी पैसे बिना कुछ करते नहीं थे, वहीँ बहुत मूडी किस्म के इंसान थे. या ये कह सकते हैं, कि अत्यंत प्रतिभाशाली आदमी कम समझ आता है, हो सकता है, यही बात किशोर दा में रही हो क्योंकि दुनिया उनको मूडी पागल इंसान कहती थी. वहीँ किशोर दा इस बात पर खूब मज़ा लेते थे, और कहते थे कि यह दुनिया पागल है. मैं इस बात की परवाह कम करता हूँ. वहीँ महमूद साहब बहुत जिद्दी आदमी कहे जाते थे. उन्हें अपने दौर के बहुत से बड़े – बड़े ऐक्टर डरते थे, या सम्मान करते थे, यह अलग बात है. किशोर दा – मेहमूद साहब में पैसे को लेकर एक अंतर्विरोध है. मैंने एक पुस्तक में पढ़ा महमूद साहब पूछते हैं, कि यार किशोर आप इतने पैसे का क्या करोगे कभी तो पैसे से हटकर सोचिए तो किशोर दा हंसते हुए कहते हैं, कि यार एक बात सुनो मैं अपनी पूरी सम्पति अपने छाती में बांधकर मरूंगा, मैं अपनी मेहनत क्यों छोड़ दूँ. वहीँ महमूद साहब कहते हैं कि यार समाज़ के लिए कुछ तो करना ही चाहिए. हमेशा पैसे के लिए नहीं भागना चाहिए. यह अन्तरविरोध किशोर दा एवं महमूद में था. किशोर दा अपनी बेजोड़ गायन प्रतिभा एवं कालजयी अभिनय के लिए जाने जाते हैं. वही एक कलाकार समाज के लिए सब कुछ तज देता है. तब मुकाम मिलता है. किशोर दा की सिनेमाई यात्रा भी एक पूरा पाठ्यक्रम है. इसलिए भी याद किए जाते हैं,लेकिन महमूद के तर्क का ज़वाब उनके पास नहीं है.

महमूद साहब सच कहते हैं, दूसरे शब्दों में की इस दुनिया में बड़े से बड़े सिकंदर आए और गए, लोग आपको याद तब करते हैं, जब आप समाज़ के लिए कुछ करें. महमूद साहब बहुत ही दरियादिल इंसान थे. अमिताभ बच्चन, के गॉड फ़ादर कहे जाते हैं. वहीँ अपने देहांत से कुछ दिनों पहले महमूद साहब ने एक वीडियो जारी करते हुए अमिताभ बच्चन को अपने बेटे जैसा बताया था. अमिताभ बच्चन – एवं उनका संबद्ध अपना निजी है. समाज़ में अगर सहयोग की भावना खत्म हो जाए, अगर मेहमूद साहब  जैसे प्रभाव शाली लोग खुद में ही मुब्तिला हो जाएं, तो समाज़ को शायद ही! अमिताभ बच्चन मिलें शायद ही आर डी बर्मन (पंचम दा) मिलें. शायद ही! महान ऐक्ट्रिस मुमताज मिलें. व्यक्ति को अपनी प्रतिभा से हटकर सहयोग, प्रेम की भावना से ही वो मुकाम हासिल हो सकता है, जो मेहमूद साहब का मुकाम है. महमूद  को आप पढ़ते हुए जितना आप हसेंगे . उससे कहीं अधिक भावुक होंगे, उससे कहीं अधिक सीखेंगे. आप उनकी शख्सियत से सीख सकते हैं. जितना सीखना चाहें. इसीलिए कहा जाता है, कि महमूद साहब  अभिनय के चलते – फिरते इंस्टीट्यूशन हैं. वहीँ उनकी सिनेमाई यात्रा आज भी पढ़ाई जाती है.  ज़िन्दगी के विद्यालय में भी उनकी शख्सियत पढ़ाई जा सकती है. महमूद साहब के लिए आप जितना लिख सकें कम ही है.सिनेमा एवं ज़िन्दगी में रंगमंचन करते हुए अपने जीवन के आखिरी दिनों में महमूद का स्वास्थ्य खराब हो गया. वह इलाज के लिए अमेरिका  पेनसिल्वेनिया गए. जहां  23 जुलाई सन 2004 में उनका निधन हो गया.

शातिर है PFI, वकील, प्रोफेसर और बड़े कारोबारी भी शामिल

मुस्लिम धर्मगुरुओं की रजामंदी के बाद लगी पीएफआई पर पाबंदी

आनन्द अग्निहोत्री

सुन्नी वहाबी संगठन पीएफआई और उसके आठ सहयोगी संगठनों पर केन्द्र सरकार ने पांच साल के लिए बैन लगा दिया। बड़ी बात यह कि पीएफआई ने इसे स्वीकार भी कर लिया और अपने संगठन को भंग करने का ऐलान किया है। सब कुछ शांति के साथ निपट गया। जिस तरह 22 और 27 सितम्बर को देश भर में पीएफआई के ठिकानों पर एनआईए और ईडी छापे मार रहीं थीं, इनके कार्यकर्ताओं की धरपकड़ कर रहीं थीं, उससे पहले ही अनुमान हो गया था कि सरकार कभी भी इन पर प्रतिबंध लगा सकती है। यह सब अचानक नहीं हुआ है। इसकी शुरुआत तो एक साल से चल रही थी। छापों के दो दौर में जब सरकार के पास सुबूत पुख्ता हो गये तो उसने प्रतिबंध लगा दिया। बैन लगाने का फैसला भी केन्द्र सरकार ने अचानक नहीं लिया है। चूंकि मामला मुस्लिम समुदाय से जुड़ा हुआ था, इसलिए सरकार ने कोई भी सख्त कदम उठाने के पहले देवबंदी, बरेलवी और सूफी सम्प्रदाय के वरिष्ठों के साथ सलाह मशविरा किया। उनकी ओर से सहमति मिलने के बाद ही यह कदम उठाया गया।

केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां करीब एक साल से पीएफआई की टॉप लीडरशिप में शामिल 45 लोगों पर अनवरत नजर रख रहीं थीं। इनमें से ज्यादातर संगठन के फाउंडर मेंबर थे। इनमें वकील, प्रोफेसर और कारोबारी शामिल हैं। संगठन का चेयरमैन ओएमए सलाम इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड का सस्पेंड कर्मचारी है, जबकि उपाध्यक्ष ईएम अब्दुल रहमान बिजनेसमैन, पी कोया गवर्नमेंट कॉलेज में लेक्चरर और खालिद मोहम्मद एडवोकेट है। छापेमारी में सबसे पहले इन्हीं को गिरफ्तार किया गया। पीएफआई में ज्यादातर लोग पहले स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) से जुड़े थे। सरकार ने 2001 में सिमी को आतंकवादी संगठन घोषित कर बैन लगा दिया था। इस बार प्रतिबंध से पहले जांच एजेंसियों ने पीएफआई के पदाधिकारियों और बड़े कार्यकर्ताओं पर शिकंजा कसा।

इस बात का अंदाज तो पहले से ही था कि कांग्रेस और गैरभाजपाई दल सरकार के इस कदम का विरोध करेंगे। ऐसा ही हुआ भी। ये दल तत्काल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फिरकापरस्त ठहराकर इस पर बैन लगाने की मांग करने लगे। लेकिन यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की कि सरकार ने इतना बड़ा कदम कैसे उठाया। गिरफ्तारियों और सुबूतों की बात छोड़ दीजिये, इन्हें तो सही और गलत ठहराया जाता रहेगा। इस तरह के आरोप भी लगेंगे कि सरकारी सुबूत मनगढ़ंत हैं। सच तो यह है कि इस प्रतिबंध के पीछे भी मुस्लिम धर्मगुरुओं की सहमति है। अखिल भारतीय सूफी सज्जादानशीन परिषद ने केन्द्र सरकार को विचार विमर्श में इस बात की सहमति दी थी कि अगर यह संगठन देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त है तो इस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। इसी तरह अजमेर दरगार के आध्यात्मिक प्रमुख जैनुल आबेदीन अली खान ने भी सरकार से कहा था कि पीएफआई भारत में साम्प्रदायकिता के हालात का फायदा उठाकर अखिल इस्लामी संगठनों के वहाबी-सलाफी एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है। जब ये इस्लाम धर्म प्रमुख सरकार के पाले में आ गये तब बैन करने का फैसला लिया गया।

विपक्षा कह रहा है बैन कोई समाधान नहीं है। वह आरएसएस पर बैन लगाने की मांग तो कर रहा है लेकिन यह नहीं बता रहा कि अगर बैन समाधान नहीं तो फिर समाधान क्या है। वह आरोप लगाने के पहले अपने गिरेबां में झांक कर नहीं देखता कि स्वयं उसकी अपनी गतिविधियां क्या हैं। मतदाताओं ने क्यों भाजपा को दूसरी-तीसरी बार सत्ता सौंपी है। ऐसा नहीं है कि आरएसएस पर बैन न लगा हो। आजादी के बाद तीन बार संघ पर बैन लगाया जा चुका है। इसके पीछे तर्क वहीं दिये गये थे, जो आज विपक्षी दल दे रहे हैं। लेकिन आज तक कोई भी दल संघ पर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप नहीं लगा सका। अगर ऐसा कुछ होता, तब तो आरोप लगता। यह जरूर है कि उस पर हिन्दू मानसिकता का प्रचार प्रसार करने का आरोप लगता रहा है। संघ की भी विदेशों में शाखाएं हैं, पीएफआई की जड़ें भी कई इस्लामी मुल्कों में फैली हुई हैं। लेकिन विदेश में भी संघ की किसी शाखा पर भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप नहीं लगा है।